अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2013
।।कथा प्रवाह।।
सामग्री : इस अंक में सुरेश शर्मा, डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’, उषा अग्रवाल ‘पारस’, जितेन्द्र ‘जौहर’, ललितनारायण उपाध्याय, सत्य शुचि की लघुकथाएँ।
सुरेश शर्मा
{वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुरेश शर्मा जी की लघुकथाओं का संग्रह ‘‘अंधे बहरे लोग’’ जिसमें उनकी 82 लघुकथाएं शामिल हैं। पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से मनुष्य की संवेदनहीनता को दर्शाती दो लघुकथाएं।}
भला आदमी
ट्रेन चलने में अभी समय था। तभी देखा अपेक्षाकृत कुछ अधिक उम्र के दो व्यक्तियों ने एक क्षीणकाय वृद्धा को सहारा देकर जैसे-तैसे डिब्बे में चढ़ाया। शयनयान के उस डिब्बे में सामने की सीट पर युवक को बैठा देख आस भरी नजरों से उन्होंने पूछा- ‘‘आप कहाँ तक जा रहे हैं?’’
‘‘दिल्ली तक।’’ युवक ने जवाब देकर, सवाल किया- ‘‘और आप?’’
‘‘हम भी दिल्ली ही जा रहे हैं, हमें सभी बर्थ ऊपर की मिली हैं। हम दोनों भाई तो चढ़ जाएँगे, समस्या हमारी माताजी की है। छियासी की उम्र है। किसी नीचे की बर्थ वाले यात्री से सीट बदलने को कहेंगे तो माँ की उम्र और हालत देखकर कोई भी भला आदमी मान जाएगा।’’ उन्होंने अपनी समस्या रखते हुए अपना कथन जारी रखा, ‘‘भले आदमियों की कमी तो नहीं है दुनिया में।’’
‘‘ठीक कहते हैं आप। ट्रेन चलने वाली है। कोशिश करेंगे तो जरूर कोई भला यात्री आपको मिल जाएगा।’’ युवक ने कहा और चादर तानकर सो गया।
मर गया साला
एक ‘बियर बार’ के सामने अपनी कार पार्क करने के लिए वो उतरे ही थे, तभी एक क्षीणकाय लड़का ‘‘साब कुछ दे दो। दो-तीन रोज से कुछ नहीं खाया।’’
उस फटेहाल लड़के को देखकर उनमें से एक ने नफरत से मुँह बनाते हुए कहा- ‘‘चल भाग, साले को दारू
पीने को पैसा चाहिए।’’
‘‘नहीं साब, सचमुच मैं बहुम भूखा हूँ। मुझे होटल से रोटी ही दिला दीजिए साब।’’ उसने उसके दूसरे साथी से याचना की।
‘‘चल फूट बे। बेकार में मूड खराब न कर!’’
‘‘उन्होंने एक अट्ठहास किया और ‘‘बार’’ में जा घुसे।
लगभग दो घंटे बाद नशे में धुत होकर लड़खड़ाते कदमों से वे बाहर आए तो देखा सामने सड़क पर भीड़ जमा थी।
भीड़ में से झाँककर उन्होंने देखा कि वही लड़का सड़क पर अचेत पड़ा था। पुलिस पंचनामा बना रही थी। ‘‘क्या हो गया है, इसे?’’ साले ने ज्यादा पी ली क्या?’’ उनमें से एक ने पूछा।
‘‘नहीं साहब, यह तो मर गया है...शायद भूख से।’’ पुलिस वाले ने जवाब दिया- ‘‘हम पंचनामा बना रहे हैं।’’
कार में बैठते हुए वे बड़बड़ा रहे थे, ‘‘मर गया साला, कल से बोर नहीं करेगा।’’
डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’
छू लें आसमान
अभी साढ़े दस बजे थे और वह चेम्बर में आकर बैठा ही था। वह एक नाटे कद के बेहद साधारण से युवक के साथ कमरे में दाखिल होते हुए बोली थी- ‘‘सर! मेरी हेल्प कीजिए....समय बहुत कम है और मुझे अपने क्लासेज के लिए पटना भी लौटना है।.... ‘‘मगर काम क्या है, यह तो बताएं.....?’’
‘‘सॉरी सर! मैं तो यह बताना ही भूल गई। सर, मुझे ओबीसी जाति का प्रमाण-पत्र की आवश्यकता है और मुझे यह आज ही चाहिए। यह मेरा आवेदन पत्र है सर!’’ यह कहते हुए उसने कागजों का पुलिंदा सर की ओर बढ़ाया।
‘‘क्या किसी ने आपको नहीं बताया, अंग्रेजी फारमेट में ओबीसी के लिए अंचल से जाति निर्गत होना जरूरी है। इसके बगैर एसडीएम आफिस से प्रमाण-पत्र निर्गत हो ही नहीं सकता। इसलिए पहले अंचल से सही फारमेट में जाति निर्गत करायें, फिर मिलें।’’
‘‘सर! क्या ऐसा हो सकता है? मुझे इंटरव्यू की तैयारी के लिए क्लासेज भी करने हैं और मैं घर आकर इसी चक्कर में उलझकर रह गई हूं।’’
‘‘अब उसने आवेदन को ध्यान से देखा। सबीहा नाज लिखा था। पते के स्थान पर समीप के ही एक छोटी सी बस्ती का नाम दर्ज था।
सर ने उसको ध्यान से देखा। बेहद साधारण से कपड़ों में अति साधारण सी दिख रही, वह युवती उत्साह
और उमंग से भरपूर दिख रही थी।
अचानक वह बोली- ‘‘सर! मेरी बस्ती में दौलतमंद मुसलमान भी हैं, मगर बच्चियां पढ़ाई नहीं करतीं। अगर मैं इस एक्जाम में सफल हो जाती हूं तो अपने पड़ोसियों के लिए एक मिसाल बनूंगी। तब जाकर हो सकता है कि दो-चार लड़कियां स्कूल-कॉलेज जाने के बारे में सोचें और घरवाले भी उनके लिए फिक्र करें।’’ यह कहते हुए उसके चेहरे पर गजब की रौनक थी।
‘‘चलिए! आपको यह एहसास है कि तालीम हासिल करना जरूरी है, मगर जिस परिवार के बच्चे पैदा होते ही गैराज, साइकिल, होटल, बस खलासी और सड़क किनारे अंडा बेचने का काम संभालने लगें, उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है! हां, जब सरकार को गरियाना होता है तब सब यही कहते हैं कि सरकार अल्पसंख्यकों की उपेक्षा बरत रही है। जबकि सच तो यह है कि देश के आम मुसलमानों को उर्दू जबान भी नहीं आती। एक मदरसे का मौलवी दो लाइन उर्दू नहीं लिख सकता। ऐसों को भला सरकार कौन सी नौकरी देगी? यह जाने कब समझेंगे ये।’’
यह सुनकर सबीहा गहरी सोच में डूब सी गई।
उषा अग्रवाल ‘पारस’
लक्ष्मी
दिन डूब रहा था, पक्षी भी थक-हार कर अपने बसेरों की ओर लौट रहे थे। एक दिनचर्या खत्म कर, भोर होते ही दूसरी दिनचर्या शुरू करने हेतु रात की विश्रांति पाने।
रामदास की ड्यूटी का समय भी समाप्त हो चला था। चौकीदारी के काम से महीने की तनखाह के अलावा फ्लैट में रहने वालों के छोटे-मोटे काम भी वो कर दिया करता था, जिससे अलग से कुछ पैसे मिल जाया करते थे।
आज दूसरे माले की छठे नं. की फ्लैट मालकिन का रास्ता देख रहा था रामदास जिनका कि दो-तीन दिन से बहुत सारा छुट-पुट काम उसने कर दिया था। फ्लैट में दोपहर से ताला लगा था। सोच रहा था मालकिन आ जाती तो मिले पैसों से थोड़ी साक-सब्जी और अपनी खत्म हुई दवाई भी ले लेता।
तभी उनकी कार आती दिखाई दी और वह खुश हो गया। थोड़ी देर बाद ऊपर जाकर उसने फ्लैट की कॉलबेल बजाई और कहा कि, ‘‘पचास रुपये दे दो’’ तो मालकिन ने पूरा दरवाजा खोले बिना ही वहीं खड़े-खड़े जवाब दिया कि ‘‘दिया-बत्ती के समय तो लक्ष्मी आने का समय होता है, देने का नहीं, कल ले लेना।’’
रामदास सोच रहा था, मेरी ड्यूटी खत्म होने का समय ही शाम को होता है। अगर पहले माँगता तो कहते- ‘जाते समय ले लेना’। मैंने तो अपनी मेहनत के पैसे माँगे थे। क्या गरीब आदमी और अमीर आदमी की लक्ष्मी अलग होती है? गरीब आदमी को उसके श्रम की कीमत सही समय पर मिल जाए, वही उसकी लक्ष्मी होती है। पर क्या अमीर आदमी ‘दिया-बत्ती’ के समय बिना श्रम किये भी लक्ष्मी का इंतजार करता है....।
जितेन्द्र ‘जौहर’
गंतव्य
सरकारी बस के उस कंडक्टर का यह खेल मैं काफी देर से देख रहा था; जो भी लोकल सवारियाँ चढ़तीं, बिना टिकट लिये आधा-अधूरा किराया देकर अपनी मंज़िल आने पर बस से उतर जाती थीं।
वस्तुतः कंडक्टर और ड्राइवर के बीच एक मौन समझौते के तहत निर्बाध रूप से फलने-फूलने वाला यह एक उभयपक्षीय लाभ का सौदा था।
इस बाबत मेरे मस्तिश्क में तरह-तरह के विचार कौंध रहे थे कि तभी सहसा वह बस अपने एक पड़ाव पर रुकी। नीचे से एक सज्जन ने अचानक मेरी खिड़की थपथपाते हुए पूछा- ‘भाई साब …. ये बस कहाँ जा रही है.…. ?’
मैंने कहा- ‘घाटे में.…!’
ललितनारायण उपाध्याय
{व्यंग्यकार-लघुकथाकार ललितनारायण उपाध्याय की व्यंग्यात्मक लघुकथाओं एवं व्यंग्यालेखों का संग्रह ‘‘एक गधे का प्रमोशन’’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है, जिसमें उनकी अनेक व्यंग्यात्मक लघुकथाएं एवं कुछ व्यंग्यालेख शामिल हैं। पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से प्रशासनिक व्यवस्था की चुटकी लेती दो लघुकथाएं।}
एक तरफा कानूनी कार्यवाही
एक जागरूक और सफाई प्रिय नागरिक होने के कारण मैंने नगर निगम में आवेदन पत्र दिया-
‘‘हमारे मोहल्ले में कुछ लोग गंदगी फैला रहे हैं, उनके खिलाफ कार्यवाही करने की कृपा करेंगे ताकि मोहल्ले को साफ-सुथरा रखा जा सके।’’
आठवें दिन मुझे नोटिस मिला- ‘‘नगर निगम के ध्यान में लाया गया है कि आपके मोहल्ले में कुछ लोग गंदगी फैला रहे हैं। इससे जन-स्वास्थ्य को खतरा बढ़ता है। आप उनके नाम एक सप्ताह में हमें सूचित करें अन्यथा निगम को मजबूर होकर एक तरफा कार्यवाही करनी पड़ेगी। इसे सूचना जाने।’’
आदमी का कद और थाना
एक थानेदार ने थाने के एकदम सामने एक ऐसा आईना लगाया, जिसमें थाने में घुसते ही आदमी का कद छोटा दीखता था, अच्छा-खासा लंबा-चौड़ा आदमी ‘‘बौना-सा’’ दीखता था, आधा दिखता था। पूछा- ‘‘आपने ऐसा आईना क्योंकर लगाया?’’ बोले-
‘‘थाने में घुसते ही आदमी का कद आधा हो जाता है, जो यह बात एक बार में समझ जाता है, वह फिर कभी थाने नहीं आता है। जो इसे नहीं समझ पाता, वही बार-बार आता है, जाता है।’’
सत्य शुचि
कुछ नया
घर में शादी थी। घर की हर चीज़ साफ-सुथरी दिखती रहनी चाहिए। यही मंशा थी मम्मी-पापा की। और शीलू के लिए भी!
‘‘....हाँ, अभी लौटी ही है, शीलू!’’ पत्नी ने जानकारी परोसी।
‘‘हाँ-हाँ...., जरूरी है शरीर के अंगों की साफ-सफाई भी!’’ पति ने दोहराया।
‘‘ब्यूटी पार्लर से वह आ चुकी है और इस समय बाथ-रूम में.....’’
‘‘ठीक है....अब!’’ उसने संतुष्टि भरी नजर से पत्नी को निहारा था।
।।कथा प्रवाह।।
सुरेश शर्मा
{वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुरेश शर्मा जी की लघुकथाओं का संग्रह ‘‘अंधे बहरे लोग’’ जिसमें उनकी 82 लघुकथाएं शामिल हैं। पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से मनुष्य की संवेदनहीनता को दर्शाती दो लघुकथाएं।}
भला आदमी
ट्रेन चलने में अभी समय था। तभी देखा अपेक्षाकृत कुछ अधिक उम्र के दो व्यक्तियों ने एक क्षीणकाय वृद्धा को सहारा देकर जैसे-तैसे डिब्बे में चढ़ाया। शयनयान के उस डिब्बे में सामने की सीट पर युवक को बैठा देख आस भरी नजरों से उन्होंने पूछा- ‘‘आप कहाँ तक जा रहे हैं?’’
‘‘दिल्ली तक।’’ युवक ने जवाब देकर, सवाल किया- ‘‘और आप?’’
‘‘हम भी दिल्ली ही जा रहे हैं, हमें सभी बर्थ ऊपर की मिली हैं। हम दोनों भाई तो चढ़ जाएँगे, समस्या हमारी माताजी की है। छियासी की उम्र है। किसी नीचे की बर्थ वाले यात्री से सीट बदलने को कहेंगे तो माँ की उम्र और हालत देखकर कोई भी भला आदमी मान जाएगा।’’ उन्होंने अपनी समस्या रखते हुए अपना कथन जारी रखा, ‘‘भले आदमियों की कमी तो नहीं है दुनिया में।’’
‘‘ठीक कहते हैं आप। ट्रेन चलने वाली है। कोशिश करेंगे तो जरूर कोई भला यात्री आपको मिल जाएगा।’’ युवक ने कहा और चादर तानकर सो गया।
मर गया साला
एक ‘बियर बार’ के सामने अपनी कार पार्क करने के लिए वो उतरे ही थे, तभी एक क्षीणकाय लड़का ‘‘साब कुछ दे दो। दो-तीन रोज से कुछ नहीं खाया।’’
उस फटेहाल लड़के को देखकर उनमें से एक ने नफरत से मुँह बनाते हुए कहा- ‘‘चल भाग, साले को दारू
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
‘‘नहीं साब, सचमुच मैं बहुम भूखा हूँ। मुझे होटल से रोटी ही दिला दीजिए साब।’’ उसने उसके दूसरे साथी से याचना की।
‘‘चल फूट बे। बेकार में मूड खराब न कर!’’
‘‘उन्होंने एक अट्ठहास किया और ‘‘बार’’ में जा घुसे।
लगभग दो घंटे बाद नशे में धुत होकर लड़खड़ाते कदमों से वे बाहर आए तो देखा सामने सड़क पर भीड़ जमा थी।
भीड़ में से झाँककर उन्होंने देखा कि वही लड़का सड़क पर अचेत पड़ा था। पुलिस पंचनामा बना रही थी। ‘‘क्या हो गया है, इसे?’’ साले ने ज्यादा पी ली क्या?’’ उनमें से एक ने पूछा।
‘‘नहीं साहब, यह तो मर गया है...शायद भूख से।’’ पुलिस वाले ने जवाब दिया- ‘‘हम पंचनामा बना रहे हैं।’’
कार में बैठते हुए वे बड़बड़ा रहे थे, ‘‘मर गया साला, कल से बोर नहीं करेगा।’’
- 41, काउन्टी पार्क, महालक्ष्मीनगर कालोनी के पास, इन्दौर-452010 (म.प्र.)
डा. तारिक असलम ‘तस्नीम’
छू लें आसमान
अभी साढ़े दस बजे थे और वह चेम्बर में आकर बैठा ही था। वह एक नाटे कद के बेहद साधारण से युवक के साथ कमरे में दाखिल होते हुए बोली थी- ‘‘सर! मेरी हेल्प कीजिए....समय बहुत कम है और मुझे अपने क्लासेज के लिए पटना भी लौटना है।.... ‘‘मगर काम क्या है, यह तो बताएं.....?’’
‘‘सॉरी सर! मैं तो यह बताना ही भूल गई। सर, मुझे ओबीसी जाति का प्रमाण-पत्र की आवश्यकता है और मुझे यह आज ही चाहिए। यह मेरा आवेदन पत्र है सर!’’ यह कहते हुए उसने कागजों का पुलिंदा सर की ओर बढ़ाया।
‘‘क्या किसी ने आपको नहीं बताया, अंग्रेजी फारमेट में ओबीसी के लिए अंचल से जाति निर्गत होना जरूरी है। इसके बगैर एसडीएम आफिस से प्रमाण-पत्र निर्गत हो ही नहीं सकता। इसलिए पहले अंचल से सही फारमेट में जाति निर्गत करायें, फिर मिलें।’’
‘‘सर! क्या ऐसा हो सकता है? मुझे इंटरव्यू की तैयारी के लिए क्लासेज भी करने हैं और मैं घर आकर इसी चक्कर में उलझकर रह गई हूं।’’
‘‘अब उसने आवेदन को ध्यान से देखा। सबीहा नाज लिखा था। पते के स्थान पर समीप के ही एक छोटी सी बस्ती का नाम दर्ज था।
सर ने उसको ध्यान से देखा। बेहद साधारण से कपड़ों में अति साधारण सी दिख रही, वह युवती उत्साह
छाया चित्र : हिना फिरदोस |
अचानक वह बोली- ‘‘सर! मेरी बस्ती में दौलतमंद मुसलमान भी हैं, मगर बच्चियां पढ़ाई नहीं करतीं। अगर मैं इस एक्जाम में सफल हो जाती हूं तो अपने पड़ोसियों के लिए एक मिसाल बनूंगी। तब जाकर हो सकता है कि दो-चार लड़कियां स्कूल-कॉलेज जाने के बारे में सोचें और घरवाले भी उनके लिए फिक्र करें।’’ यह कहते हुए उसके चेहरे पर गजब की रौनक थी।
‘‘चलिए! आपको यह एहसास है कि तालीम हासिल करना जरूरी है, मगर जिस परिवार के बच्चे पैदा होते ही गैराज, साइकिल, होटल, बस खलासी और सड़क किनारे अंडा बेचने का काम संभालने लगें, उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है! हां, जब सरकार को गरियाना होता है तब सब यही कहते हैं कि सरकार अल्पसंख्यकों की उपेक्षा बरत रही है। जबकि सच तो यह है कि देश के आम मुसलमानों को उर्दू जबान भी नहीं आती। एक मदरसे का मौलवी दो लाइन उर्दू नहीं लिख सकता। ऐसों को भला सरकार कौन सी नौकरी देगी? यह जाने कब समझेंगे ये।’’
यह सुनकर सबीहा गहरी सोच में डूब सी गई।
- राजभाषा विभाग (अनुवादक), अनुमंडल कार्यालय, जामताड़ा-815351, झारखंड
उषा अग्रवाल ‘पारस’
लक्ष्मी
दिन डूब रहा था, पक्षी भी थक-हार कर अपने बसेरों की ओर लौट रहे थे। एक दिनचर्या खत्म कर, भोर होते ही दूसरी दिनचर्या शुरू करने हेतु रात की विश्रांति पाने।
रामदास की ड्यूटी का समय भी समाप्त हो चला था। चौकीदारी के काम से महीने की तनखाह के अलावा फ्लैट में रहने वालों के छोटे-मोटे काम भी वो कर दिया करता था, जिससे अलग से कुछ पैसे मिल जाया करते थे।
रेखा चित्र : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
तभी उनकी कार आती दिखाई दी और वह खुश हो गया। थोड़ी देर बाद ऊपर जाकर उसने फ्लैट की कॉलबेल बजाई और कहा कि, ‘‘पचास रुपये दे दो’’ तो मालकिन ने पूरा दरवाजा खोले बिना ही वहीं खड़े-खड़े जवाब दिया कि ‘‘दिया-बत्ती के समय तो लक्ष्मी आने का समय होता है, देने का नहीं, कल ले लेना।’’
रामदास सोच रहा था, मेरी ड्यूटी खत्म होने का समय ही शाम को होता है। अगर पहले माँगता तो कहते- ‘जाते समय ले लेना’। मैंने तो अपनी मेहनत के पैसे माँगे थे। क्या गरीब आदमी और अमीर आदमी की लक्ष्मी अलग होती है? गरीब आदमी को उसके श्रम की कीमत सही समय पर मिल जाए, वही उसकी लक्ष्मी होती है। पर क्या अमीर आदमी ‘दिया-बत्ती’ के समय बिना श्रम किये भी लक्ष्मी का इंतजार करता है....।
- मृणमयी अपार्टमेन्ट, 108 बी/1, खरे टाउन, धरमपेठ, नागपुर-440010
जितेन्द्र ‘जौहर’
गंतव्य
सरकारी बस के उस कंडक्टर का यह खेल मैं काफी देर से देख रहा था; जो भी लोकल सवारियाँ चढ़तीं, बिना टिकट लिये आधा-अधूरा किराया देकर अपनी मंज़िल आने पर बस से उतर जाती थीं।
छाया चित्र : किशोर श्रीवास्तव |
इस बाबत मेरे मस्तिश्क में तरह-तरह के विचार कौंध रहे थे कि तभी सहसा वह बस अपने एक पड़ाव पर रुकी। नीचे से एक सज्जन ने अचानक मेरी खिड़की थपथपाते हुए पूछा- ‘भाई साब …. ये बस कहाँ जा रही है.…. ?’
मैंने कहा- ‘घाटे में.…!’
- आई आर-13/6, रेणुसागर, सोनभद्र-231218 (उप्र)
ललितनारायण उपाध्याय
{व्यंग्यकार-लघुकथाकार ललितनारायण उपाध्याय की व्यंग्यात्मक लघुकथाओं एवं व्यंग्यालेखों का संग्रह ‘‘एक गधे का प्रमोशन’’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है, जिसमें उनकी अनेक व्यंग्यात्मक लघुकथाएं एवं कुछ व्यंग्यालेख शामिल हैं। पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं इसी संग्रह से प्रशासनिक व्यवस्था की चुटकी लेती दो लघुकथाएं।}
एक तरफा कानूनी कार्यवाही
रेखा चित्र : राजेन्द्र परदेसी |
‘‘हमारे मोहल्ले में कुछ लोग गंदगी फैला रहे हैं, उनके खिलाफ कार्यवाही करने की कृपा करेंगे ताकि मोहल्ले को साफ-सुथरा रखा जा सके।’’
आठवें दिन मुझे नोटिस मिला- ‘‘नगर निगम के ध्यान में लाया गया है कि आपके मोहल्ले में कुछ लोग गंदगी फैला रहे हैं। इससे जन-स्वास्थ्य को खतरा बढ़ता है। आप उनके नाम एक सप्ताह में हमें सूचित करें अन्यथा निगम को मजबूर होकर एक तरफा कार्यवाही करनी पड़ेगी। इसे सूचना जाने।’’
आदमी का कद और थाना
एक थानेदार ने थाने के एकदम सामने एक ऐसा आईना लगाया, जिसमें थाने में घुसते ही आदमी का कद छोटा दीखता था, अच्छा-खासा लंबा-चौड़ा आदमी ‘‘बौना-सा’’ दीखता था, आधा दिखता था। पूछा- ‘‘आपने ऐसा आईना क्योंकर लगाया?’’ बोले-
‘‘थाने में घुसते ही आदमी का कद आधा हो जाता है, जो यह बात एक बार में समझ जाता है, वह फिर कभी थाने नहीं आता है। जो इसे नहीं समझ पाता, वही बार-बार आता है, जाता है।’’
- ईश कृपा सदन, 96, आनंदनगर, खण्डवा म.प्र.
सत्य शुचि
रेखा चित्र : बी मोहन नेगी |
कुछ नया
घर में शादी थी। घर की हर चीज़ साफ-सुथरी दिखती रहनी चाहिए। यही मंशा थी मम्मी-पापा की। और शीलू के लिए भी!
‘‘....हाँ, अभी लौटी ही है, शीलू!’’ पत्नी ने जानकारी परोसी।
‘‘हाँ-हाँ...., जरूरी है शरीर के अंगों की साफ-सफाई भी!’’ पति ने दोहराया।
‘‘ब्यूटी पार्लर से वह आ चुकी है और इस समय बाथ-रूम में.....’’
‘‘ठीक है....अब!’’ उसने संतुष्टि भरी नजर से पत्नी को निहारा था।
- साकेत नगर, ब्यावर-305901 (राजस्थान)
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