अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 5, अंक : 05-12, जनवरी-अगस्त 2016
।। व्यंग्य वाण ।।
सामग्री : इस अंक में डॉ.सुरेन्द्र वर्मा का व्यंग्यालेख- 'जुगाड़ से जुडि़ये' एवं ओमप्रकाश मंजुल का व्यंग्यालेख- 'काश! मैंने भी सम्मान हथिया ही लिया होता' ।
डॉ. सुरेन्द्र वर्मा
जुगाड़ से जुडि़ये
हम भारतवासी जुगाड़ के लिए मशहूर हैं. हर समय कोई न कोई जुगाड़ बैठाते रहते हैं कि कामयाबी मिल सके। अपने से ज्यादह हमें जुगाड़ में विश्वास है। जब कोई सफल हो जाता है हम यह मान बैठते हैं कि उसने कोई न कोई जुगाड़ ज़रूर लगाया होगा तभी कामयाब हो पाया।
कहते हैं कि एक विदेशी जब भारत आया तो उसे यहाँ कई कठिनाइयों का सामना करना पडा। जब भी कोई कठिनाई वह यहाँ बतलाता उसे कहा जाता घबराइए नहीं, कोई न कोई जुगाड़ लगाते हैं और सचमुच कुछ ऐसा जुगाड़ बैठाया जाता कि उसकी समस्या हल हो जाती। वह इस जुगाड़ को और इसके बैठाए जाने को स्वयं देख नहीं पाता लेकिन उसकी कठिनाई तो बेशक हल हो ही जाती थी। वापस जाने पर उसने अपने देशवासियों से कहा कि हिन्दुस्तानियों के पास न जाने कौन सा एक ऐसा अदृश्य संयंत्र है कि जिसे जुगाड़ कहते हैं और जिसे लगाकर-बैठाकर वे कैसी भी समस्या हो, हल कर लेते हैं।
भारत में दो प्रकार के लोग होते हैं, कुछ जुगाड़ी होते हैं, कुछ अनाड़ी होते हैं। जो अपनी कामयाबी के लिए जुगाड़ नहीं बैठा पाता, अनाड़ी है। उसे चाहिए कि जुगाड़ की कला और विज्ञान दोनों को आत्मसात करें।
लन्दन से खबर आई है कि भारतीय मूल के तीन लेखकों द्वारा लिखी गई एक किताब में इस जुगाड़ की जमकर तारीफ़ की गई है। किताब में पश्चिमी देशों की कंपनियों को सुझाया गया है कि वे गला-काट प्रतिस्पर्धा के इस दौर में कामयाबी पाने के लिए नए तरीके, नए सूत्र ईजाद करें। जुगाड़ की वकालत करने वाली और इसे व्याख्यायित करने वाली किताब का नाम, काफी लंबा-चौड़ा है- ‘जुगाड़ इन्नोवेशन दृ थिंक फ्रूगल, बी फ्लेक्सिबल, जेनरेट ब्रेकथ्रू ग्रोथ’। जुगाड़ के महत्वपूर्ण सूत्र पुस्तक के नाम में ही स्पष्ट कर दिए गए हैं। सोच में मितव्ययता, आचरण में लचीलापन अच्छी उपज के लिए कुछ नया कर गुज़रना ही वस्तुतः जुगाड़ का मर्म है। लेखकों का कहना है कि भारत में यह नुस्खा बरसों पुराना और कम खर्चीला है।
जुगाड़ संबंधी इस पुस्तक पर उत्साहजनक प्रतिक्रियाएं आईं हैं। कुछ अन्य सूत्र सिद्धांत भी स्पष्ट किए गए हैं। जैसे (1) प्रतिकूल स्थिति में भी मौकों की खोज (2) कम मेहनत में ज्यादह लाभ कमाना (3) सोच समझ कर काम करना (4) मुस्कान बरकरार रखना और (5) अपने दिल की बात सुनना।
तो मित्रो, जुगाड़ कोई हलके में लेने की चीज़ नहीं है। इसमें कई सूत्र-सिद्धांत काम करते हैं, कई तरकीबों से मिलकर यह बना है। यह एक युक्ति-संघात है, कई उपायों का समुच्चय है। इसे बैठाने में दिल और दिमाग दोनों की ज़रुरत होती है। यह कला भी है और विज्ञान भी है। हर कोई जुगाड़ नहीं बैठा सकता। बड़ी कलाकारी की ज़रुरत है। न जाने कहाँ कहाँ से बिखरी हुई आवश्यक सामग्री इकट्ठा की जाती है ताकि उसका इस्तेमाल अपने हित में किया जा सके। थोड़ा-थोड़ा सामग्री का जोड़ना, इकट्ठा करना और उसे संभालना- इन सभी कामों में वैज्ञानिक वृत्ति निहित है।
जुगाड़ अब केवल अटकल नहीं रहा। विद्वानों ने जुगाड़ का क्या रहस्य है, इसे अंततः जुगाड़ ही लिया है। क्या आप इस बात से सहमत नहीं हैं कि इन दिनों बड़ी-बड़ी संस्थाओं में, व्यापार प्रबंधन के भारी भरकम पाठ्य-क्रमों के जरिए, छात्रों को जुगाड़ ही की शिक्षा तो दी जा रही है! सच्ची बात यही है।
- 10, एच.आई.जी.; 1-सर्कुलर रोड, इलाहाबाद (उ.प्र.)/ मोबाइल : 09621222778
ओमप्रकाश मंजुल
काश! मैंने भी सम्मान हथिया ही लिया होता
आयी माया को टटिया लगा कर रोकने वाले हम जैसे बेबकूफ और अभागे ही होते हैं। (यहाँ ‘माया’ का मतलब किसी कुमारी या ब्याही माया नामक लेडी से नहीं, धन की देवी, लक्ष्मी से है।) सम्मान न लेने का मुझे आजीवन मलाल रहेगा। पर, अब पछताना तो ऐसा ही है, जैसे बाप की बात जवानी के जोश में बेटा नहीं मानता और आगे बुढापे में पछताता है। सुदूर पूर्व में एक सरकारी संस्था ने अपुन को भी सादर सानुरोध एक असरकारी सम्मान देने की पेशकश की थी। पर, मैं सम्मान को न लेने के लिए ऐसे मना कर बैठा, जैसे बिहार में महागठबंधन में शामिल न होने के लिए मुलायम सिंह ने मना किया था। मुलायम यादव राजनीतिक नहीं तो पारिवारिक या जाति-बिरादरी के नाते ही लालू यादव की बात मान लिये होते, तो आज महाफायदे में रहते। ऐसे ही मैं भी उस समय सम्मान को उठा लाता, तो आज डबलफायदे में रहता। प्राप्त पुरस्कार राशि से अधिक तो आज उस पर ब्याज मिल गया होता। सम्मान्यों की लाईन में लगने के लिए मैं जिन लोग-लुगाइयों के चरण कमलों पर पड़ा था, आज मैं उनके सर माथे पर होता। सबसे बड़ा बेनीफिट यह होता कि सम्मान लौटाने वाले कलमकारों, कलाकारों, कलावन्तों और विज्ञानविदों के रैला में पड़ कर मुझ जैसे बथुआ को भी गेहूँ के साथ पानी लग गया होता। पर, ‘अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुंग गईं खेत।’
बिहार में भाजपा को हराने वाले शत्रु की तरह मेरी पीठ में छुरा भोंकने वाला शत्रु भी कोई दूसरा न होकर मेरा एक दिखावे का मित्र था। वह स्वार्थी तो था ही ऊपर से दूसरी लाईन का नेता भी था। इसी ने ईर्ष्यावश मुझे उल्टी पट्टी पढ़ाकर सम्मान लेने से रोक दिया था। मुझे क्या पता था वह कि जैसा चेहरे से लगता है वैसा ही दिल से भी फिल्मी विलेन निकलेगा? एक पंच और भी फंस गया था, जिस कारण मैंने सम्मान नहीं लिया। यह आपको ही अपना समझकर बता रहा हूँ। आशा है आप केजरीवाल जैसी गम्भीरता नहीं दिखायेंगे और मैटर को अपने तक ही सीमित रखेंगे। असल में मेरे, ‘दूर-दूर की कौड़ी : चालाकी से जोड़ी’ नामक जिस कविता संग्रह पर पुरस्कार प्रस्तावित हुआ था, उसका कच्चा माल मैंने दूर-दूर छपी पुस्तिकाओं व पत्रिकाओं से उड़ाया था। ठीक इसी वक्त एक चर्चित राज्य के चर्चित कानून मंत्री की फर्जी डिग्रियों का भंडाफोड हो गया। फर्जी संग्रह को लेकर कहीं मेरी भी फजीहत न हो जाये, इस भय से अपुन ने सम्मान को ग्रहण न करना ही मुनासिब समझा। पर, लोगों के बड़े-बड़े फर्जीबाड़ों को याद करता हूँ, तो सम्मान न लेने के लिए मेरे दिल में रह-रहकर हूक उठती है। मिस्त्री से वरिष्ठ अधिशासी अभियन्ता बनने वाले यादव नामधारी महाशय और एक विशेष छवि के खोल से निकलकर एक उत्तम प्रदेश के राज्य लोक सेवा आयोग जैसे महत्वपूर्ण संगठन के सर्वोच्च पद को सुशोभित करने वाले महापुरुष की फर्जीली मनोहर कहानियाँ नेताओं की फोरजरीली सत्यकथाओं के सामने कहीं नहीं ठहरती। न मालूम कितने विधायक और सांसद फर्जी डिग्रियों की बैसाखियों पर सम्मानीय बन चुके हैं। सुनने में आया है कि देश के एक उत्तम प्रदेश में भी फर्जी डिग्री वाले मंत्री बने हैं। जिस देश में शिक्षामंत्री तथा कानूनमंत्री की और कानून परीक्षा डिग्रियां ही संदिग्ध हों, वहाँ सम्मान की रेवड़ियाँ लुटाने और लौटाने की बहस ही अर्थहीन है। ऐसी स्थिति में मुझ जैसे नाचीज ने भी यदि सम्मान हथिया लिया होता, तो न मेरी नैतिक्ता में कोई कमी आ जाती, न देश के सम्मान में ही बट्टा लगता।
- कामायनी, कायस्थान, पूरनपुर-262122, जिला पीलीभीत, (उत्तर प्रदेश)/मो. 09457822961
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