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शनिवार, 27 अगस्त 2016

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  5,   अंक  :  05-12,  जनवरी-अगस्त  2016

 {लेखकों/प्रकाशकों से अनुरोध है कृपया समीक्षा भेजने के साथ पुस्तक की एक प्रति (एक से अधिक नहीं) हमारे अवलोकनार्थ डा. उमेश महादोषी, 121, इन्द्रापुरम, निकट बी.डी.ए. कालौनी, बदायूं रोड, बरेली, उ.प्र. के पते पर भेजें। समीक्षाएँ ई मेल द्वारा कृतिदेव 010 या यूनिकोड मंगल फॉन्ट में वर्ड या पेजमेकर फ़ाइल के रूप में ही भेजें।स्कैन करके या पीडीएफ में भेजी रचनाओं का उपयोग सम्भव नहीं होगा }


।।किताबें।।

सामग्री :  
इस अंक में ‘‘गौशाला : वैष्णवधर्मी जीवन पद्धति’’/कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’ के गीत-काव्य की श्यामसुंदर निगम द्वारा तथा "श्वेत श्यामपट : लम्बी काव्य यात्रा का सुफल"/श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी के काव्य-संग्रह, "डॉ. मिथिलेश दीक्षित का क्षणिका-साहित्य : एक  परिचयात्मक नोट"/ डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर' द्वारा सम्पादित विमर्श, "टूटे हुए तार : क्षणिका में अहसासों की अनुभूतियाँ"/डॉ. बेचैन कण्डियाल के क्षणिका- संग्रह , "केनवास पर शब्द  :  रेखाओं के मध्य कविताएँ"/संदीप राशिनकर के ग़ज़ल-संग्रह, "मैं जहाँ हूँ : मानवीय अहसासों की ग़ज़लें"/विज्ञान व्रतके ग़ज़ल-संग्रह, "अँगूठा दिखाते समीकरण : सहजता-सरलता के साथ व्यंय में उभरती क्षणिका"/चक्रधर शुक्ल के क्षणिका- संग्रह, "दूरी मिट गयी :  कुछ लघु कविताओं के साथ उत्कृष्ट क्षणिकाएँ"/केशव शरण के क्षणिका संग्रह की डॉ. उमेश महादोषी द्वारा परिचयात्मक समीक्षाएँ। 


श्यामसुंदर निगम



गौशाला : वैष्णवधर्मी जीवन पद्धति

‘महामंथन’ द्वारा सागर से ‘रत्न’ निकालने की स्थापना हम सब पढ़ते और मानते आ रहे हैं। उस ‘महामंथन’ की सी प्रक्रिया का सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रारूप एक सृजनधर्मी साहित्यकार के अन्तस में भी निरन्तर घूर्णित होता रहता है। हम सब संवेदन के स्तर पर समानुपातिक रूप से इसकी जद में बने रहते हैं। ऐसी ही घुमड़न को सोते-जागते जीते रहते एक वरिष्ठ रचनाकार श्री कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’ अपने प्रणम्य रूप में हम सब के बीच हैं। ‘‘हमें/बालू के कण जोड़कर/बनाना है शिलाएं/शिलाएं जोड़कर/बनाना है दुर्ग/जहां-/विज्ञान पहरा देगा/साहित्य जागेगा/मानवता गायेगी/सम्पन्नता मुस्करायेगी।’’
    पहरा देना, जागना, गाना, मुस्कराना आदि के क्रियानुक्रम के माध्यम से कवि उस जीवन पद्धति को
परिभाषित कर गया है, जिसमें उसकी अगली कृति ‘गौशाला’ की पृष्ठभूमि का निर्माण शुरू हो चुका था। आधार- गौशाला, गाय, पंच गव्य...। हाँ, अब मैं भी गौशाला’ का ही उल्लेख करना चाहता हूँ।
    कवि ने भूमिका ‘रचना क्यों’ में लिखा है कि उसका दृष्टिकोंण पूर्णतया मानवीय, सामाजिक और राष्ट्रवादी रहा है। मैं भी सहमत हूँ जहां तक कि- ‘‘वीर पुरुष यश गाकर कहते, जयति हमारी गौशाला।’’
    सच है कि गौशाला सिंह बनाती है, शक्ति बढ़ाती है, यौवन रक्षती है, सदाचरण का पाठ सिखाती है, शिष्ट बनाती है, बुद्धि बढ़ाती है। ऐसी ही अनेक अवधारणायें कवि ने इस कृति के माध्यम से अपने पाठकों तक सम्प्रेषित की हैं। मनुष्य के देह धारण करने से लेकर इसे छोड़ने तक के सुमंगल कल्याण-साधन गाय, गंगा, दूध, दही, घृत, शहद, सुपावन- जल गंगा मैया वाला; मिलकर पंचामृत बन जाते, पाप-दोष हरने वाला। सात्विक खान-पान, संस्कारवान आचार-विचार कवि का अभिप्रेत है, पशु-वध का निषेध है, तप, सत्य, अहिंसा, इन्द्रिय-निग्रह का विधान प्रत्यक्ष रूप से संकेतिक है। इसके चलते ही मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि कवि ‘गौशाला’ की डोर पकड़कर ‘वैष्णव जीवन-पद्धति-भागवत धर्म की पैरोकारी करता है। कवि की शुभाकांक्षा फलीभूत होगी तो निश्चय ही एक स्वस्थ भारतीय परम्परा की दृष्टि से संस्कारवान समाज का निर्माण होगा। नहीं होंगे मधुशाला के कुसंस्कार।
    मेरी सीमित समझ के अनुसार यह पूरी कृति गाय और गौशाला पर एक सम्पूर्ण ठोस पद्यात्मक-निबन्ध है- प्रस्तावना से उपसंहार तक। उपपत्ति से इति सिद्धम तक। हर्ज क्या है कि हम अपनी धार्मिक मान्यताओं की प्राण-प्रतिष्ठा करते हैं, आस्था को, श्रद्धा को मुकुठ पहनाते हैं। हम भूल जायें क्या कि ऋग्वेद में विष्णु को अजेय गोपः, अदाम्यः कहा गया है। उनके परम पदों में भूरिश्रंगा चंचल गायों का निवास है उनका। सर्वोच्च लोक ‘गोलोक’ कहलाता है।
    मैं ‘सलिल’ जी की रचनाधर्मिता को प्रणाम करता हूँ कि इस कृति में निश्चित रूप से बहुत कुछ ऐसा बन पड़ा है जो अपने मानक स्वयं तय करेगा। उदाहरण के लिए प्रेम की अद्भुत उदात्तता इस कृति की अर्थवत्ता को बहु-गुणित करती है जहाँ कृतिकार लिखता है कि ‘‘तीनों लोकों के स्वामी को, चोर बनाती गौशाला’’ और ‘‘माँ, जब पूछे, ‘चोरी की है’? ‘ना ना करते’ गोपाला/मुख पर मक्खन, हाथ छिपाये, शपथ उठाते, नन्दलाला’’। कृतिकार ने दार्शनिकता से दूर रहने की सुरक्षित आत्मरक्षात्मक अभिव्यक्ति की है, पर इसे क्या कहेंगे- ‘‘घृत से, जीवन शक्ति बढ़ाती, घृत से, काया भस्म करे,/स्वर्गद्वार तक पहुँचा देती, वैतरिणी से, गौशाला’’।
    सामाजिक समरसता पर ‘मधुशाला’ की पंक्ति ‘‘मंदिर मस्जिद बैर कराते, मेल कराती मधुशाला’’ से आगे बढ़कर ‘सलिल’ जी ने प्रस्तुत की है कि जिस गाय और गोमांस को लेकर क्या-क्या बखेड़े नहीं खड़े किये जाते, उसी गाय का ही तो दूध है- ‘‘बना दूध से, मधुर सेवइयाँ, ईद सजाती गौशाला’’। खुशियां भरती है, जीवन में उत्सव और उत्साह लाती है।
    ‘गौशाला’ स्वयं इतनी पुष्ट कृति है कि कृतिकार का आत्मरक्षा का भाव कतई अनपेक्षित है। सर्वथा सचेतन कवि-धर्म निभाया है कि मुझे लगता है कृति स्वयं में अपना पक्ष प्रस्तुत करने में समर्थ है। ‘सलिल’ जी हम सबको दिशा दिखला रहे हैं, बधाई।
गौशाला : गीति-काव्य : कन्हैयालाल गुप्त ‘सलिल’। प्रका. : ‘वाणी’ साहित्यिक संस्था एवं प्रकाशन संस्थान, 860-सी, पोस्ट आफिस लेन, श्यामनगर, कानपुर। मूल्य: रु. 60/- मात्र। संस्क.: 2015। 


  • 1415,’पूर्णिमा’. रतनलाल नगर, कानपुर-208022, उ.प्र./मोबा. 09415517469


डॉ. उमेश महादोषी



श्वेत श्यामपट : लम्बी काव्य यात्रा का सुफल

‘‘तुमने ही मेरे जीवन में मधु घोला था,/तुमने ही उसको विषाक्त कर डाला प्रियवर!!’’ श्रीकृष्ण त्रिवेदी जी की 1962 में सृजित पहली कविता की पहली दो पंक्तियाँ ही नहीं हैं ये अपितु उनकी सम्पूर्ण साहित्यिक यात्रा का प्रतिबिम्ब हैं। और शायद उनके व्यक्तित्व का भी। डॉ. ओउम् प्रकाश अवस्थी जी ने परिवेश में फैलती विषाक्तता और प्रदूषण से व्यथित कवि-हृदय में कल्याण की स्थापना के लिए तड़प और विषाक्तता व प्रदूषण को न रोक पाने (शक्ति-सामर्थ्य के अभाव में) के तनाव को त्रिवेदी जी की कविता की दो मूल धुरियाँ माना है। साथ ही उन्होंने त्रिवेदी जी के भाषा संस्कार पर लिखा है कि उनकी भाषा का सारस्वत रूप कहीं भी स्खलित नहीं होने पाया है। ये दोनों ही प्रेक्षण त्रिवेदी जी की उक्त पहली कविता के बारे में उतने ही सत्य हैं, जितने कि उनके सद्यः प्रकाशित काव्य संग्रह ‘श्वेत श्यामपट’ की 2012 में सृजित आखिरी कविता ‘हिमनद’ के बारे में। 1964 से 2012 तक के लम्बे कालखण्ड में सृजित इन
कविताओं में  प्रामाणिक जीवन मूल्यों के प्रति उनकी आस्था को भी समझा जा सकता है। 
      आस्था के साथ यथार्थ का सामना करते हुए इस छोटी सी रचना में उनके काव्य की दोनों धुरियाँ एक साथ आकर खड़ी हो जाती हैं- ‘‘निमंत्रण तुम्हारा,/अस्वीकार तो नहीं कर सकता,/पर/देहरी के बाहर/पाँव रखते झिझकता हूँ/निर्वस्त्र जो हूँ!!’’ उनकी चिंता समकाल के उस चेहरे के प्रति भी है, जो अपने पक्ष में भूत की गठरी सिर पर रखे घूमता दिख जाता है। मूल्यों में उनकी आस्था परिवर्द्धन की प्रक्रिया के साथ ही सम्पूर्णता प्राप्त करती है। 1967 की हैं ये पंक्तियाँ- ‘‘तुम्हें न शायद भाये चूनर,/दाग लगा है, कौन धरे कर!/शापग्रस्त हो गयी अहिल्या,/तरसाओ मत, दो रजकण भर।/गौतम त्याग गये पर मन की/चिरसंगिन छोड़ू मैं कैसे??’’ कवि जब वास्तविकता के धरातल पर अपनी सीमाओं पर विचार करता है, तो निराश होने लगता है। ‘‘जिस तिनके से कुछ कहता हूँ/वह निराकार बन जाता है।/जिस महाकाश को छूता हूँ/वह छूते ही तन जाता है।/भावों में जीना चाहा, लेकिन जी पाया कुछ भी क्या?’’ 
     त्रिवेदी जी ने अपनी रचनात्मक यात्रा में काल के कई खण्डों में कदम रखे हैं। कविता के शिल्प और चरित्र में आये बदलावों से उनका सामना हुआ है। नव्यता को सहज भाव से जितना ग्रहण किया जाना चाहिए, उन्होंने किया है। गीत के साथ नई कविता को  अपनाया और नई कविता के साथ नवगीत को भी। उनकी यह सहजता इसलिए रेखांकित करने योग्य है कि इन शिल्प-परिवर्तनों की प्रक्रिया में चले तीर-तमंचों को किसी प्रकार का प्रश्रय देने की बजाय उन्होंने अपनी ऊर्जा को अपने सृजन धर्म के निर्वाह में ही निवेश किया। ऐसे समय में बड़ी बेबाकी से उन्होंने अपनी क्षमताओं को प्रस्तुत किया। ‘‘पेड़ जो तुमने उगाए,/आँधियों से लड़ न पाए,/दंभ की महफिल सजी तो/भट्ठियों के काम आए।/कौन परिचय दे, किसे, यह/गुमशुदा पूरा शहर है।।’’ उनकी कविताओं में जयप्रकाश नारायण की मृत्यु पर लिखी ‘कब गंगावतरण होगा!!’, ‘आत्महत्या के बाद’, ‘दिग्विजय का स्वप्न’, ‘ये बस्तियाँ फिर से बसेंगी’, ‘सियार और लाउडस्पीकर’ जैसी कई सार्थक और साहसिक रचनाएँ शामिल हैं। 
      निसन्देह त्रिवेदी साहब ने अपनी आस्था के केन्द्रबिन्दु बने मूल्यों पर कोई समझौता किए बिना अपनी रचनात्मक यात्रा के हिस्से आये सभी कालखण्डों की जरूरतों को समझते हुए काव्य सृजन किया है। ‘श्वेत श्यामपट’ एक लम्बी काव्य यात्रा का सुफल है।
श्वेत श्यामपट : काव्य संग्रह : श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी। प्रकाशक : श्री शारदा साहित्य सदन, रायगढ़ (छ.गढ़)। मूल्य : रु. 200/-। संस्करण : 2015।



डॉ. मिथिलेश दीक्षित का क्षणिका-साहित्य : 

एक परिचयात्मक नोट


हिन्दी कविता में संभवतः ‘क्षणिका’ एक मात्र ऐसी विधा है, जो अपने सुस्पष्ट व विशिष्ट साम्प्रतिक स्वरूप, पाठक
मन को प्रभावित करने वाले तत्वों को धारण करने, साहित्य में स्वयंसिद्ध सार्थकता, संवेदना के गहनतम उभार और समकाल की नकारात्मकता के प्रति सर्वाधिक मारक क्षमता आदि के बावजूद अपनी विधागत पहचान के लिए सबसे अधिक उपेक्षित रही है। आश्चर्यजनक है कि साहित्य में विद्यमान तमाम सूक्ष्मताओं की समझ का दावा करने वाले समीक्षक-समालोचक, यहाँ तक कि स्वयं सृजनधर्मी भी क्षणिका के साम्प्रतिक स्वरूप को पहचान नहीं सके। कादम्बिनी में क्षणिकाओं के अलग स्तम्भ और 1987 से 1992 के मध्य हुए थोड़े से काम को छोड़ दिया जाये तो एक लम्बी उपेक्षा के बाद अब इक्कीसवीं सदी में क्षणिका की हलचल को थोड़ी सी ऊष्मा और ऊर्जा का मिलना आरम्भ हुआ है। कुछ लघु पत्रिकाओं ने ध्यान दिया है, कई रचनाकारों ने अपने सृजन को समेकित किया। इनमें डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी भी शामिल हैं। इस कालखण्ड में उनके कई क्षणिका संग्रह प्रकाश में आये हैं। उन्होंने क्षणिका के प्रति स्वयं को समर्पित किया है। सम्पादकीय, 14 आलेखों और सम्पादक द्वारा डॉ. मिथिलेश दीक्षित के साथ लम्बी बातचीत के माध्यम से क्षणिका में उनकी रचनाधर्मिता व समर्पण को रेखांकित करने का सफल प्रयास किया गया है डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ द्वारा सम्पादित ‘डॉ. मिथिलेश दीक्षित का क्षणिका-साहित्य’ पुस्तक में। 
      डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी की रचनात्मकता को रेखांकित करते हुए पुस्तक में शामिल सभी लेखकों ने सकारात्मक टिप्पणियाँ की हैं। डॉ. शिवनन्दन सिंह यादव ने लिखा है, ‘‘जीवन यथार्थ आदर्श की ओर अभिमुख होकर, उनकी रचनाओं में, मानवता की स्वस्थ पीठिका का निर्माण करता है। बिना रुके, बिना झुके, चलते जाना ही उनका उद्देश्य है।’’ डॉ. रमाकान्त श्रीवास्तव जी के शब्दों में ‘‘उनका यह स्वरण प्रभामयी प्रभावी क्षणिकाओं का रूप लेकर प्रकट हुआ है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं माना जाना चाहिए कि डॉ. मिथिलेश दीक्षित ने क्षणिकाओं की निर्मिति का अविस्मरणीय और अपराजेय कीर्तिमान स्थापित किया है।’’ डॉ. रामनिवास ‘मानव’ मानते हैं कि ‘‘युगीन परिप्रेक्ष्य में डॉ. दीक्षित की क्षणिकाएँ आधुनिकता की कसौटी पर सर्वथा खरी उतरती हैं।’’ डॉ. शरद नारायण खरे के अनुसार, ‘‘उनका सामाजिक पर्यवेक्षण न केवल व्यापक है, बल्कि अत्यन्त सूक्ष्म, पैना तथा गहरा भी है। यही कारण है कि उनका क्षणिका-लेखन का कैनवास बहुत विस्तृत है।’’ डॉ. सुषमा सिंह के शब्दों में ‘‘उनकी क्षणिकाएँ जीवन के विविध रंगों, विविध स्थितियों, मानव-मन की विविध दशाओं, हृदय की विभिन्न संवेदनाओं को परिभाषित करती हैं, चित्र उपस्थित करती हैं, समाधान सम्मुख रखती हैं, व्यक्तित्व की सूक्ष्म से सूक्ष्म रूप-रेखाओं को प्रस्तुत करती हैं, जीवन के सत्य का उद्घाटन करती हैं साथ ही सामयिक परिस्थितियों और विरूपताओं की ओर भी संकेत करती हैं।’’ प्रशान्त उपाध्याय का मानना है ‘‘डॉ. मिथिलेश दीक्षित की क्षणिकाओं में सम्पूर्ण जीवन के विविध पक्षों के बहुआयामी राग-रंग भी हैं और वर्तमान के चाल-चलन और ढंग भी।... उनकी अभिव्यक्ति में समय और नियति द्वारा प्रदत्त घाव हैं तो मानवीय मूल्यों की जागृति और जीवन्तता के सार्थक और शाश्वत भाव भी। चक्रधर शुक्ल मानते हैं कि ‘‘डॉ. मिथिलेश दीक्षित की क्षणिकाएँ भीड़ से अलग हैं।’’
     साक्षात्कार में डॉ. मिथिलेश जी ने अपनी रचनाधर्मिता पर काफी विस्तार से बोला है। उनका मानना है कि ‘‘क्षणिका और हाइकु मेरे लिए छोटी कविताएँ नहीं हैं।...अपनी क्षणिका की जीवन्तता का मैं स्वयं प्रमाण हूँ और मेरे अस्तित्व की सार्थकता का मेरी क्षणिका प्रमाण है। एक अन्य प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा है, ‘‘वर्तमान में शाश्वत मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था जगाना भी मेरी दृष्टि में साहित्यकार का एक प्रमुख दायित्व है। मैंने अपनी क्षणिकाओं के माध्यम से इन मूल्यों की बात की है।’’ नारी विमर्श से जुड़े अपने लेखन के सन्दर्भ में उन्होंने बहुत सार्थक बात कही है- ‘‘मैं नारी हूँ, परन्तु नारीवादी नहीं हूँ।... वैयक्तिक स्तर से भी और साहित्यिक दृष्टि से भी, नारी और पुरुष का यह बँटवारा मेरी दृष्टि में उचित नहीं है। स्त्री और पुरुष के अपने-अपने सहज-स्वाभाविक गुण हैं, उनमें वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक और मानवीय दायित्व अलग-अलग हो सकते हैं, लेकिन हैं तो दोनों मनुष्य ही।’’ अपनी क्षणिकाओं के शिल्प आदि से जुड़े प्रश्नों पर उनका कहना है, ‘‘इन क्षणिकाओं का शिल्प विन्यास, आकार, तेवर सब अलग-अलग है। मेरी सभी क्षणिकाएँ एक जैसी नहीं हैं, उनकी प्रस्तुति और शैली अलग-अलग है। 
      स्पष्ट है कि विमर्श में शामिल समीक्षकों और मिथिलेश जी के स्वयं के विचार क्षणिका में उनकी रचनात्मकता के सन्दर्भ में एक ही दिशा की ओर संकेत करते हैं। निसन्देह इस पुस्तक के माध्यम से डॉ. मिथिलेश दीक्षित जी के क्षणिका संसार को समझना संभव होगा। ऐसे माध्यमों से क्षणिका की विधागत पहचान के लिए हो रहे प्रयासों को भी बल मिलता है।

डॉ. मिथिलेश दीक्षित का क्षणिका-साहित्य : रचनात्मक विमर्श। सम्पादक : डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’। प्रकाशक : सभ्या प्रकाशन, डब्ल्यू एच-44, इंडस्ट्रीयल एरिया, फेज-1, मायापुरी, नई दिल्ली-110064। मूल्य : रु. 300/-। संस्करण : 2014।


टूटे हुए तार : क्षणिका में अहसासों की अनुभूतियाँ 

       पिछली सदी में एक-दो पुस्तकों और कादम्बिनी व दो-चार लघु पत्रिकाओं की बात छोड़ दें तो सामान्यतः
क्षणिकाओं का सृजन लघु कविता के तौर पर होता रहा है। पुस्तकों- संग्रहों-संकलनों में भी नई कविता के साथ ही उन्हें शामिल किया जाता रहा है। बहुतायत में क्षणिका के नाम पर प्रकाशित रचनाएँ वस्तुतः व्यंग्योक्तियाँ और हास्योक्तियाँ ही थीं। इस सबके मध्य कुछ रचनाकार अँधेरी कन्दराओं में बैठकर क्षणिका सृजन करते रहे, अपना सृजन वे प्रकाश में नहीं ला सके। वर्ष 2010 के बाद उनमें से कई ने अपने क्षणिका संग्रह प्रकाशित कराने की ओर ध्यान दिया है। डॉ. बेचैन कण्डियाल जी इन्हीं रचनाकारों में शामिल हैं। 
      साहित्य के साथ कण्डियाल जी का कार्यक्षेत्र राजनीति रहा है, जहाँ आपको थैलों में भरा उत्साह मिलता है तो निराशा भी बोरियों में भरकर मिलती है। यह चीज कुछ लोगों को बहुत अधिक प्रतिक्रियावादी मुखरित व्यक्तित्व प्रदान करती है तो कुछ लोगों को चीजों को आत्मसात करने का माद्दा भी देती है। कण्डियाल जी की रचनाओं को पढ़कर और उनसे मिलकर भी इस बात को समझा जा सकता है कि वह किस तरह चीजों को आत्मसात करके अपने अन्तर्मन में स्थापित कायान्तरण के कारखाने के हवाले करके अपनी दिनचर्या में व्यस्त हो जाते हैं। चूंकि उनका व्यक्तित्व मूलतः प्रेम और संवेदना के धागों से बुना हुआ है, इसलिए उनकी कायान्तरित अनुभूतियाँ जिन अहसासों को जन्म देती हैं, वे इन्हीं धागों की बुनावट में अभिव्यक्ति पाते हैं और उन्हें कविता के समीप ले जाते हैं। और कविता....? कविता अहसासों के साथ कर्मक्षेत्र में खड़े रहने की ताकत देती है। अन्यथा सामाजिक और राजनीति, दोनों ही ऐसे कर्मक्षेत्र हैं, जहाँ लक्षित समूह का एक ही व्यक्ति एक ही समय आपको दो विपरीत तराजुओं में रखकर तौल सकता है, आपको आपसे ही तौल सकता है। यही तो प्रतिबिम्बित होता है इस साधारणीकृत अभिव्यक्ति में- ‘‘मैं एक दिन में/कई बार चढ़ जाता हूँ/ताँवाखाणी की/चोटी पर,/और कई बार गिर जाता हूँ/कान्टीनेन्टल की खाई में।’’ यह भी अनुभव जन्य सत्य है कि यदि आप कविता की छड़ी पकड़कर राजनीति या सामाजिक क्षेत्र में खड़े हैं तो आपके समक्ष प्रस्तुत होने वाला साधारण से साधारण व्यक्ति भी ‘ताँवाखाणी की चोटी पर’ और ‘कान्टीनेन्टल की खाई’ दोनों को एक साथ अपनी जेबों में रखकर आता है। ‘टूटे हुए तार’ में शामिल डॉ. बेचैन कण्डियाल जी की तमाम रचनाएँ ऐसे ही अहसासों के फलक पर डेरा जमाये मिलेंगी, जहाँ आपको कवि की निस्पृहता भी देखने को मिलेगी। ‘‘अँधेरों का भरोसा है/कि ये/साथ रहेंगे उम्र भर,/उजालों का क्या है/कब/साँझ ढल जाये’’। प्रतिकूल स्थितियों में भी प्रेम-पगे रिश्ते को टूटने से बचाने का भावपूर्ण कौशल देखिए- ‘‘तुमने निकल जाने को/ कहा तो मैं/हर्गिज निकल जाता,/शायद कल से/न आऊँ,/इसीलिये/आज ठहर गया।’’ 
    संग्रह की कुछ रचनाएँ जो मुक्तक या शे’र के अधिक निकट हैं, वे भी प्रभावशाली हैं। इन रचनाओं में प्रतीकों एवं बिम्बों के ऊपर व्यंजना को प्राथमिकता देकर सपाटबयानी को काव्य- धारा में बदलने की चतुराई दिखाई देती है। क्षणिका में कण्डियाल जी का योगदान स्तुत्य है।

टूटे हुए तार : क्षणिका संग्रह : डॉ. बेचैन कण्डियाल। प्रकाशक : शिखर साहित्य, जिला पंचायत प्रेस परिसर, पौड़ी गढ़वाल (उत्तराखण्ड)। मूल्य : रु. 125/-। संस्करण : जून 2011।


केनवास पर शब्द  :  रेखाओं के मध्य कविताएँ

        कला और साहित्य का गहरा रिश्ता रहा है। चित्रकार प्रायः साहित्यिक रचनाओं पर चित्र बनाते रहे हैं। संदीप
राशिनकर एक लब्ध-प्रतिष्ठित चित्रकार हैं। लेकिन कैनवास पर उनकी रेखाओं के उभार शब्दों में बदलकर बोलने लगे तो उनका कवि उनके चित्रकार से आगे निकलने को बेचैन होने लगा। विगत दिनों आये उनके दो कविता संग्रह इस बात का प्रमाण हैं। ‘कैनवास पर शब्द’ उनका पहला काव्य संग्रह हैं। उन्होंने एक ही कैनवास पर अपनी अनुभूतियों को रेखाओं और शब्दों- दोनों में एक साथ उकेरा है, इसलिए संग्रह मात्र काव्य रचनाओं का ही नहीं, रेखाचित्रों का भी है। इन कविताओं के प्रकाशन से कविता के पाठक जान सकेंगे कि समकाल की प्रवृत्तियाँ और प्रेम की अनुभूतियाँ शब्दों के सानुरूप कैनवास पर किस तरह उभार पाती हैं!
     हाँ, उनकी कविताओं में समकाल की कई प्रवृत्तियों और प्रेम की कुछ अनुभूतियों ने बेहद मुखरित रूप में स्थान पाया है। अपने समय का आकलन करने का अर्थ स्वयं का भी आकलन करना होता है। इस दृष्टि से देखें तो कुछ चीजों को बदलने के सिवा हम क्या कर पाये हैं! जहाँ से चले थे, वहीं आकर खड़े हो गये हैं, बन्दर से थोड़ा और ज्यादा बन्दर हो गये है। ‘‘इन्सान बनने, सभ्य होने/की प्रक्रिया में/लगता है,/यकायक लौटकर/हम/हो गए बंदर!/किंतु इस बार/उस्तरा नहीं,/हाथ में/आण्विक हथियार लेकर!’’ अपने समय के बारे में सोचते संदीप जी बेचैन से हो जाते हैं- ‘‘पता नहीं/इन दिनों क्या हुआ है/न बची है/आब/न बह रही है हवा।’’ उनकी इस बेचैनी के पीछे सबूत की फीकी पड़ती चमक, संवाद के मौन में सिमटने की विवशता, मनुष्यता के रसायन का गणित के क्लोन में बदलना, सत्ता के धरातल से बीरबल के गायब हो जाने जैसी अनेक चीजे हैं। लेकिन संदीप जी यह भी जानते हैं कि ‘‘कितना भी हो/विध्वंस/कितना भी हाहाकार/जीवित रहती है/जिजीविषा/अकुलाता है सृजन/ और फूट ही पड़ती है/कोई कोपल/ठूंठ के गर्भ से’’। शायद इसीलिए समय के साथ समय की प्रतीक्षा करते हुए वह बच्चे पर कविता लिखते हैं, प्रेम में पगकर धरती से बिछुड़े बादल के आँसुओं में भीगते हैं, अपनी बिडम्बनाओं का कन्फेस करते हैं। चिंतन और विचार के स्तर पर समकाल के गहरे निशान उनकी ग़ज़लों में भी देखे जा सकते हैं। भले शिल्प के स्तर उनकी बहुत अच्छी ग़ज़लों की प्रतीक्षा शेष हो लेकिन भाव और विचारों की ताकत उन्होंने यथार्थ की अभिव्यक्ति में दिखाई है। ‘‘पर लग जाने से क्या होगा/उड़ने को आकाश चाहिए।’’ लगभग आधी सदी के बराबर का पिछला कालखण्ड जिस तरह की चीजों का प्रत्यक्षदर्शी बना है, उससे हमारा समूचा वातावरण आज संदिग्ध होता चला गया है। ‘‘सहमे सहमे शहर में अपने गिद्धों का डेरा है/अंधियारा आज़ाद यहाँ पर कैद सवेरा है।’’ फिर भी एक खूबसूरत समय की कल्पना एक सृजक का अधिकार भी है और दायित्व भी। संदीप जी इस बात को अच्छे से समझते हैं। ‘‘यारो अब कुछ ऐसा कर दो/चेहरों को खुशबू से भर दो।’’
     राशिनकर जी ने रेखाओं को शब्दों में पिरोया हो या शब्दों के चेहरों पर रेखाओं को उभारा हो, पर उनकी कविताएँ भी उतनी ही प्रभावशाली और आकर्षक हैं, जितने उनके चित्र। 

केनवास पर शब्द : कविताओं व रेखाचित्रों का संग्रह : संदीप राशिनकर। प्रका. : अन्सारी पब्लिकेशन, प्रसार कुंज, सेक्टर पाई, ग्रेटर नोएडा, उ.प्र.। मूल्य : रु. 250/-। संस्काण : 2013।


मैं जहाँ हूँ : मानवीय अहसासों की ग़ज़लें

        कलम से कला और कविता दोनों की एक साथ साधना कर रहे हैं विज्ञान व्रत जी। उनकी कला और कविता
दोनों बहुत स्पष्ट और सरलतापूर्वक सम्प्रेषणीय होते हैं। यद्यपि विज्ञान जी की कला (रेखांकनों) और कविता (ग़ज़ल) के मध्य एक विरोधाभास जैसी चीज भी दिखती है, रेखांकनों में कलम अधिक चलती है, ग़ज़ल में कम। एक ओर रेखाएँ अधिक, दूसरी ओर शब्द कम से कम। लेकिन रेखाएँ भी छोटी, पंक्तियाँ भी छोटी। सम्भवतः यही साम्य उत्तर है उनके विरोधाभास का! भावुक लोगों के व्यक्तित्व की अपनी भाषा होती है, शायद विज्ञान जी के व्यक्तित्व की भाषा हैं ये छोटी-छोटी रेखाएँ और छोटी-छोटी पंक्तियाँ! इन्हीं से वे सामाजिक दायरों के बीच भी अपने रास्ते और अपने पड़ाव बना लेते हैं, जैसे ग़ज़ल के बीच अपनी ग़ज़ल। ग़ज़ल के प्रत्येक शेर के छः (प्रत्येक मिसरे के तीन) हिस्से माने जाते हैं। इसका अर्थ हुआ कि हर मिसरे में कम से कम तीन शब्द तो होने ही चाहिए। लेकिन इसे क्या कहेंगे- ‘‘चाँद - सितारे/नाम तुम्हारे’’। विज्ञान जी की जिस ग़ज़ल का यह मतला है, उसे क्या ग़ज़ल से खारिज करेंगे? समझा जा सकता है कि वह कैसे अपनी चीजें बनाते हैं ‘घर के अन्दर घर’ की तरह। छोटी चीजों से नई और बड़ी चीजें बनाने की कला है यह। मुझे लगता है कि यह चीज उन्हें ‘छोटी बहर के बड़े शायर’ से भी आगे ले जाती है। ‘मैं जहाँ हूँ’ उनकी छोटी बहर की 72 ग़ज़लों का संग्रह है। इन ग़ज़लों में उनका सामान्यीकृत ‘मैं’ पाठकों को प्रमुखतः ‘मनुष्य को मनुष्य से मिले अहसासों’ से रूबरू कराता है। ‘‘उसका यह अहसान रहा/वो मेरा मेहमान रहा’’। अक्सर राही और मंजिल के बीच ये अहसास रास्तों को रोक देते हैं- ‘‘मंजिल मेरे आगे थी/पर आगे रस्ता न हुआ’’। लेकिन इन्हीं अहसासों के बीच से उनकी तीव्र यथार्थमयी संवेदना भी निकलकर आती है- ‘‘घर वाले जब सोये थे/ख़तरों को दरबान जिया’’। 
      अहसासों को आत्मसात करते हुए विज्ञान जी स्वंय से बात करते हैं, अपने प्रतिबिम्ब से बात करते हैं, अपने परिवेश में उभरती-गुमती छायाओं से बात करते हैं। उनकी ये बातें जिस स्रोत से निकलकर आती हैं, वह वही है जिसे हर साहित्यिक के अन्दर होना चाहिए। इसी के रास्ते वह अपने समय से भी जुड़ते हैं। समय, जहाँ जीवन का बिखराव और समकाल का खुरदरा धरातल है, जहाँ इन्सानियत के घुटने छिल जाते हैं। ‘‘मैं जब खुद को समझा और/मुझ में निकला कोई और’ से लेकर ‘रोज़ नयी इक चाल सियासी/प्रश्न हुआ रोटी का बासी’ में यही तो है! लेकिन इस खुरदरे धरातल पर जीवन के बदलते ढर्रे को पकड़े ऐंठकर खड़े इन्सान की ठोड़ी किस तरह ढीली पड़ रही है, इसे विज्ञान जी बखूबी जानते हैं- ‘‘ख़ुद को चिट्ठी लिखकर नीचे/मेरा नाम लिखा करता था’’। उनका यह शे‘र अनायास ही डॉ. अशोक भाटिया की लघुकथा ‘रंग’ का स्मरण करा देता है। इन ग़ज़लों की रचनात्मकता अपने चरम पर पहुँचती है, जब वह कहते हैं- ‘‘बस्ती एक बसाने में/खोया हूँ वीराने में’’। 
     निःसन्देह मानवीय अहसासों से पूर्ण ये ग़ज़लें पाठक-मन से तारतम्य बनाती हुईं विज्ञान जी की ग़ज़ल यात्रा को उस मुकाम पर ले जा रही हैं, जिसे हासिल करना हर किसी के लिए संभव नहीं होता। वह कलाव्रती ग़ज़लगो हैं।
मैं जहाँ हूँ : ग़ज़ल संग्रह : विज्ञान व्रत। प्रकाशक : अयन प्रकाशन, 1/20, महरौली, नई दिल्ली-30। मूल्य : रु. 200/- मात्र। संस्करण : 2015।



अँगूठा दिखाते समीकरण : 

सहजता-सरलता के साथ व्यंय में उभरती क्षणिका

        चक्रधर शुक्ल बेहद सहज और सरल व्यक्ति हैं, उतनी ही सहज-सरल उनकी कविता होती है। अपनी बात को
कहने के लिए सामान्यतः वह काव्यात्मक लघु व्यंग्य को माध्यम बनाते हैं। इसी के माध्यम से उन्होंने कवि संम्मेलनों के मंच के साथ प्रकाशन की दुनियां में भी अपना स्थान बनाया है। उनकी ऐसी ही रचनाओं का संग्रह है ‘अँगूठा दिखाते समीकरण’। संग्रह की व्यंग्योक्तियों के माध्यम से उन्होंने सामाजिक विसंगतियों को उभारने एवं उनकी ओर आम पाठक का ध्यान आकर्षित करने में सफलता पाई है। कहीं गुदगुदी तो कहीं सुई जैसी चुभन उनके व्यंग्य धर्म को आरम्भ से अन्त तक पूरी सावधानी और सटीकता के साथ निभाती है। एक अच्छी बात यह है कि उनकी इन रचनाओं में से अनेक का व्यंग्य क्षणिका की मूल प्रवृत्तियों के साथ भी अपनी यात्रा तय करता है, इसलिए इनमें से अनेक व्यंग्योक्तियाँ क्षणिका की श्रेणी में शामिल हो जाती हैं। भाव प्रवणता और घनीभूत अनुभूतियों का तीव्र सम्प्रेषण व्यंग्य के साथ चक्रधर जी की सहजता और सरलता को आत्मसात करता है, तो क्षणिका अतिरिक्त ताकत प्राप्त करती है। दो रचनाएँ देखें- 1. ‘‘बासठ वर्षीय नेताजी का/निःशब्द हो जाना/इस बात को बताता है/‘प्यार’/सारी सीमाएँ पार कर जाता है!’’ 2. ‘‘पेपर आउट होने पर/प्रधानाचार्य ने/बस, इतना कहा-/अब चाभियों पर/विश्वास नहीं रहा!’’ ऐसी बहुत सारी व्यंग्यात्मक क्षणिकाएँ आपको संग्रह में मिलेंगी।
      यद्यपि चक्रधर जी सपाटबयानी का रास्ता ही चुनते हैं अपनी बात को सम्प्रेषित करने के लिए, तदापि कहीं-कहीं बिम्ब का उपयोग भी बखूबी करते हैं- ‘‘बरसात में नदियां/उफान में रहीं/ताल-तलैयों ने/उनके विषय में/जाने कितनी बातें कहीं!’’ चक्रधर जी जैसे सरल व्यक्ति की कविता में दार्शनिकता भी उतनी ही सरलता से प्रवेश करती है- ‘‘नीलगगन में उड़कर/वो/अपना विस्तार देखता रहा/परिंदा होकर/जीवन सार देखता रहा!’’
      संग्रह में केवल व्यंग्य रचनाएँ ही नहीं हैं, क्षणिका के साम्प्रतिक स्वरूप को उन्होंने संवेदना एवं चिंतन पूर्ण रचनाओं के माध्यम से भी प्रस्तुत किया है। कुछ उदाहरण दृष्टव्य हैं- 1. ‘‘इन्तजार करते-करते/जब बहुत दिनों के बाद/गुलाब की कलम से/अंकुर फूटा/मन प्रसन्नता से भर गया/सृजन अनूठा!’’ 2. ‘‘बच्चों की मस्ती देखकर/जाड़ा भी/उछलकूद करने लगा/बच्चों से/दोस्ती करने लगा!’’
     सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक विसंगतियों के साथ प्रकृति में मानवीय हस्तक्षेप जैसे विषय व्यंग्यकार की ताकत होते हैं। समकाल के इस चेहरे पर चक्रधर जी ने भी खूब निशाना साधा है। कुछ उदाहरण देखें- 1. ‘‘हिंसक जीव/डरा है/सघन वन/विरल हो रहा है!’’ 2. ‘‘कंकरीट के घरों में/गौरैया/आने से घबराती/थोड़ी ही देर में/उसे, घबराहट हो जाती!’’ 3. ‘‘भावी पीढ़ी/अन्तर्जाल में/हल खोज रही है/ज़िंदगी यहां है/वह उसे कहां ढूंढ़ रही है!’’ 
      निसन्देह ‘अंगूठा दिखाते समीकरण’ समकाल के चेहरे की क्लोज रीडिंग ही नहीं उसका रेखांकन भी प्रस्तुत करता है और सहजता-सरलता की धारा के मध्य क्षणिका की पहचान को व्यापक बनाता है। 

अँगूठा दिखाते समीकरण : क्षणिका संग्रह : चक्रधर शुक्ल। प्रकाशक : उत्तरा बुक्स, बी-4/310 सी, केशवपुरम, दिल्ली-110035। मूल्य : 120/-। संस्करण : 2015।



दूरी मिट गयी :  

कुछ लघु कविताओं के साथ उत्कृष्ट  क्षणिकाएँ

        केशव शरण ने लघ्वाकारीय काव्य विधाओं, विशेषतः क्षणिका एवं हाइकु में पर्याप्त सृजन किया है। घोषित
रूप से उनकी लघु कविताओं के संग्रह ‘दूरी मिट गयी’ में अधिकांश रचनाएँ क्षणिका की मान्यता की माँग करती हैं। केशव जी स्वयं यह मान्यता देते हैं या नहीं, लेकिन मुझे उन्हें क्षणिका कहने में कोई संकोच नहीं है। इन क्षणिकाओं में सपाटबयानी और बिम्ब- दोनों का ही उपयोग हुआ है। अन्य चीजों के साथ क्षणिका में भावप्रवणता और सम्प्रेषण की तीव्रता निहायत जरूरी चीजें होती हैं, इनके बिना रचना में क्षणिका का प्रभाव और सौन्दर्य दोनों ही नहीं आ पाते हैं। केशव शरण प्रायः इन दोनों का निर्वाह कुशलतापूर्वक करते हैं। ‘‘कांटे, कंकड़ न चुभें/इस डर से जूता पहना/ /अब जूता काटता है/ /क्या कोई और रास्ता है’’। केशव जी की क्षणिकाएँ समकाल की अनेक प्रवृत्तियों पर केन्द्रित होती है। मानवीय चरित्र पर टिप्पणियाँ, विद्रूपताओं पर तंज और यथार्थ की परतों के अनावरण पर उन्होंने पर्याप्त ऊर्जा का निवेश किया है। कुछेक उदाहरण दृष्टव्य हैं- 1. ‘‘एक आदमी/बयान देता है/और सब देने लगते हैं बयान/ /एक आदमी/बलिदान देता है/और चुप हो जाते हैं सब’’। 2. ‘‘छाता ताने/मैं अपने को/साफ़ पानी से बचा रहा हूँ/और गंदे पानी में चल रहा हूँ/संभल-संभलकर/ /जाने मैं पागल कि जोकर/कि सयाना’’। 3. ‘‘गुल जानता था/बाग़ है, मौसम है/तितलियाँ हैं/गुल को क्या पता था/गुलचीं भी है/गुलशन में’’। 
      पाठकों को प्रेम की कुछ अनुभूतियों के चित्र भी मिलेंगे इस संग्रह की क्षणिकाओं में, जिनमें थोड़ी-सी ठिठुरन है तो कुछ ऊष्मा भी है। ये दो उदाहरण देखें- 1. ‘‘मेरा दिल/खिलता है बाग़ में/और उसका/बाजार में/ /हर बार मैं/उसका दिल रखता हूँ/और उसकी खुशी में/होता हूँ बाग़-बाग़’’। 2. ‘‘झील-सी उन आँखों में/यों तैरती है मुहब्बतों की मस्ती/जैसे खुले पालों वाली कश्ती/कोई आ रही हो/कोई जा रही हो’’। क्षणिका में किसी दृश्य के वर्णनात्मक शब्द चित्र में प्रभावोत्पादकता लाना मुश्किल काम होता है। इस दृष्टि से केशव जी की यह क्षणिका जरूर पढ़नी चाहिए- ‘‘पत्थर को/चोंच निकल आयी है/पत्थर को पंख/अब उसे उड़ते है जाना/कलाकाश में/चोंच में दबाये/पत्थर का दाना’’। बिम्ब के रूप में लिया जाये तो इस रचना में व्यंजना को भी तलाशा जा सकता है। समकाल की रचनाधर्मिता में सत्य और सम्भावनाएँ छत-विछत ही दिखाई देती हैं। संघर्षशीलता के बावजूद जीवन संकटों से घिरा होता है। ऐसे में आशा और विश्वास का बचा-खुचा जज्बा भी पाठक मन को सुकून देता है। ‘‘प्रतीक्षा करूँगा/ऐ शाख से झरती पत्ती/लौटना तुम/बहारें लेकर’’। चर्चा के लिए उदाहरण तो अनेक हैं लेकिन रचनाकार और पाठकों के मध्य छोटे से सेतु को बहुत समझा जा सकता है। व्याकरण के कुछ चिन्ह अच्छरों और शब्दों की भाषा बोलते हैं, कम से कम ऐसे चिन्हों के यथा आवश्यक उपयोग से परहेज नहीं करना चाहिए था। 

दूरी मिट गयी : लघु कविताओं का संग्रह : केशव शरण। प्रकाशक : अभिधा प्रकाशन, रामदयालु नगर, मुजफ्फरपुर-842002। मूल्य : रु.150/-। संस्करण : 2014।
  • 121, इन्द्रापुरम, निकट बीडीए कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-243001, उ.प्र./मो. 09458929004

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