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शनिवार, 27 अगस्त 2016

किताबें

अविराम  ब्लॉग संकलन,  वर्ष  :  6,   अंक  :  01-04,  सितम्बर-दिसम्बर 2016





ग्यारसी लाल सेन

देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध : ध्वनि
कवि रामस्वरूप मूंदड़ा की कृति ‘ध्वनि’ जापानी से हिन्दी में आई विधा ‘हाइकु’ रचनाओं का संग्रह है। मूंदड़ा जी जाने-माने गीत व ग़ज़लकार तथा कई सम्मानों से विभूषित कवि हैं। पुलिस महकमें में सेवारत रहकर इन्होंने दीर्घ समय से साहित्य सृजन से सम्बन्ध रखा, यह अद्भुत है।
     भारतीय दृष्टिकोंण हमेशा से ही समन्वयात्मक रहा है। धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक हो या साहित्यिक, कोई भी क्षेत्र क्यों न हो, जहाँ से जो भी उत्तम मिला, जिसमें मानव कल्याण की चिन्ता हो, लोक मंगलकारी हो, हमारे देश ने उसे ग्रहण किया है। इस प्रकार हमारी संस्कृति को अनेक संस्कृतियों का संगम होने का गौरव प्राप्त है। सभी के सम्मिलित प्रयास से ही यह महिमा हमें प्राप्त हो सकी है। और यही भारतीय संस्कृति कहाती है। 
    हाइकु जापानी विधा है, जिसमें 5,7,5 अक्षरों की तीन पंक्तियाँ हैं। मूंदड़ा जी के इस संग्रह के 114 पृष्ठों में कुल 755 हाइकु संग्रहीत हैं। जापानी मूल की होने के कारण इस विधा को भले आयातित विधा कहा जाये पर साहित्यकार के समक्ष सृजन के साथ ‘बहुजन हिताय’ और ‘बहुजन सुखाय’ का उद्देश्य ही प्रमुख होता है। ये गुण इस संग्रह की रचनाओं में हैं। इन रचनाओं में जन मानस की सत्ता के साथ-साथ आध्यात्म, प्रकृति, राजनीति, पशु-पक्षी, हमारे देश की आबो-हवा एवं माटी की सौंधी गंध की गहन अनुभूति भी है।
     हमारे देश की संस्कृति आध्यात्म आधारित है, जहाँ आत्मा, परमात्मा, जन्म, मृत्यु व पुनर्जन्म, लोक-परलोक आदि सिद्धान्तों पर आये दिन चर्चा होती रहती है। ईश्वर तत्व, जीवात्मा तत्व, प्रकृति तत्व, बह्माण्डीय सृष्टि आदि पर हमारे धर्मग्रन्थों में विस्तार से चर्चा है। इस संग्रह में कविता का प्रारंभ भी ऐसी ही गूढ़ चर्चा से किया गया है- 1. ‘‘मरती नहीं/वेश बदलती है/सच में आत्मा’’। 2. ‘‘छोड़ जाएंगे/एक एक करके/साथ श्वासें भी’’।
     आज के रचनाकारों को प्रकृति से जुड़ाव नहीं रह गया है, उनके काव्य में राजनीति, आर्थिक एवं सामाजिक समस्याओं की ही चिंताएं अधिक होने लगी हैं। यदि कुछ रचनाकार ऐसी रचनाएं करते भी हैं तो उनमें न तो प्रकृति प्रेम की अभिव्यक्ति मिलती है, न भव्य वर्णन, न ही पद्यों की रमणीयता, न स्वर सौष्ठव ही। आइए, मूंदड़ा जी के इन हाइकु की बानगी देखें- 1. ‘‘मन हरखा/भर गई बरखा/ताल-तलैया’’। 2. ‘‘हँस रही जो/बादलों की ओट में/सौदामिनि है’’। 3. ‘‘नीली ओढ़नी/पहनती है रात/सितारों वाली‘‘।
    रूमानी स्मृतियों में रची बसी अनुभूतियों से भी बेखबर नहीं है कवि। देखिये इन हाइकु में उनके स्वर- 1. ‘‘प्यार में चोट/दर्द में डूबे गीत/यही सामान‘‘। 2. ‘‘तुम्हारी लगे/हर एक आहट/नयन थके‘‘।
     कवि ने जीवन के विभिन्न पक्षों को सामने लाते हुए हमारे समाज पर कटाक्ष ही नहीं कठोर व्यंग्य भी किये हैं- 1. ‘‘लुच्चे लफंगे/सियासत में चंगे/आये थे नंगे’’। 2. ‘‘सुलगा रहे/नफरत की आग/जलेंगे हम’’। 3. ‘‘चाँद सूरज/गरीब को रोटी में/नजर आये‘‘।
     संग्रह के एक-एक हाइकु की गहनता और व्यापकता में जाना संभव नहीं है पर इतना अवश्य कहा जा सकता है कि मूंदड़ा जी की यह कृति ‘ध्वनि’ उनकी प्रतिभा से परिचय कराती है और जापानी एवं भारतीय काव्य साहित्य के मध्य सेतु का भी उद्देश्य पूर्ण करती है। ये कविताएँ देश-प्रान्त की सीमाओं को लाँघकर विश्व साहित्य का हिस्सा बनती हैं। संग्रह का आवरण सुन्दर व आकर्षक है। भूमिका हाइकु के विद्वान डॉ. भगवतशरण अग्रवाल जी ने लिखी है। 
ध्वनि : हाइकु संग्रह : रामस्परूप मूँदड़ा। प्रकाशक : युगबोध प्रकाशन, 6/489, रजत कॉलोनी, बून्दी, राज.। मूल्य : रु.150/-मात्र।  पृष्ठ : 115। संस्करण : 2012।

  • मंगलपुरा, झालावाड़-326001, राज./मोबाइल: 9166696587

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