अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 08, अंक : 01-02, सितम्बर-अक्टूबर 2018
।।कविता अनवरत।।
सविता मिश्रा
वर्दी
‘‘मम्मी, पापा को, दादा जी अपनी तरह फौजी बनाना चाहते थे न?’’
‘‘हाँ! क्यों?’’
‘‘क्योंकि पापा मुझ पर अब फौजी बनने का प्रेशर डाल रहे है। मैं पापा की तरह पुलिस अफसर बनना चाहता हूँ।’’ पापा की फोटो देखते हुए बेटे ने कहा।
माँ कुछ कहती उससे पहले पापा ने माँ-बेटे के वार्तालाप को सुन लिया, अपनी तस्वीर के ऊपर टँगी दादाजी की तस्वीर देखते हुए पापा बोले-
‘‘बेटा मैं 16 से 18 घंटे ड्यूटी करता हूँ। कभी-कभी दो-तीन दिन बस झपकी लेकर गुजार देता हूँ। घर परिवार सबसे दूर रहना मज़बूरी है मेरी। छुट्टी साल में चार भी मिल जाये तो गनीमत समझो। क्या करेगा मुझ-सा बनकर? क्या मिलेगा बता तो तिज़ारत के सिवा??’’
‘‘पर पापा फौजी बनकर भी क्या मिलेगा? खाकी वर्दी फौज की पहनूँ या पुलिस की!’’
‘‘फौजी बन इज्जत मिलेगी! हर चीज की सहूलियत मिलेगी। उस खाकी में नीला रंग भी होगा सुकून और ताज़गी के लिए। यह खाकी मटमैली होती। जिसके कारण किसी को हमारा काम नहीं दिखता। बस दिखती है तो धूलधूसरित हमारी छवि। तेरे दादाजी की बात ना मानकर बहुत पछता रहा हूँ। फौज की वर्दी पहनकर इतना काम करता तो कुछ और मुक़ाम होता मेरा।’’
‘‘पापा, ठीक है सोचने का वक्त दीजिये थोड़ा।’’
‘‘अब तू मेरी बात मान या न मान पर इतना जरूर समझ ले, क्रोध में निर्णय और अतिशीघ्र निर्णय नहीं लेना, मतलब दोनों ही वर्दी की साख में बट्टा लगाना है!’’ पापा अपनी वर्दी पर दो स्टार लगाते हुए बोले।
‘‘सर कट जाने की बड़ाई नहीं है सर गर्व से ऊँचा रखने में भी मान ही है।’’ यही वाक्य कहकर मैंने अपने पिता यानी तेरे दादा से विरोध किया था। दोस्त के पिता का थाने में जलवा देखकर भ्रमित हो गया था मैं। चमकते चिराग के नीचे का अँधेरा कहाँ देख पाया था। अपनी जिद में वो रास्ता छोड़ आया, जिस पर तेरे दादा ने मेरे लिये फूल बिछा रक्खे थे!’’
‘‘पापा, मुझे भी काँटों भरा रास्ता स्वयं से ही तय करने दीजिये न!’’
पापा ने देखा बेटा सयाना हो गया है।
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