अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 08, अंक : 01-02, सितम्बर-अक्टूबर 2018
।।कविता अनवरत।।
रमेश गौतम
देह
विवाह का पहला वर्ष आकाश में उड़ते हुए ही बीत गया, कभी देश कभी विदेश। सफल बिजनेस मैन की पत्नी बनना भी तब लॉटरी खुल जाने से कम न लगा था नीरजा के माता-पिता को।
सुन्दर और सुशिक्षित नीरजा को अपने बारे में सोचने का अवसर भी न मिला था कि विवाह हो गया। एक वर्ष का वैवाहिक जीवन उसकी देह के ऊपर से गुजर गया।
पहला एबार्सन सिर्फ इसलिए कि उसकी ‘फिगर’ में कहीं ढीलापन न आ जाए, देह-सौष्ठव के प्रति इतनी चिंता! कितना संघर्ष किया था अपनी ही देह के अस्तित्व से उसने।
काश... सुकुमार देह के अतिरिक्त भी जान पाता नारी को, व्यापार की दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि ने उसे कितना स्वार्थी और व्यक्तिवादी बना दिया है। कहीं कोई संवेदनशीलता नहीं। आज पाँच महीने से बिल्कुल अशक्त है। दूसरे एबार्सन ने उसे बिस्तर पकड़ा ही दिया।
सुकुमार ही उसे विवश कर उस दिन भी पार्टी में ले गया था, अपने किसी बिजनेस कान्ट्रैक्ट का हवाला देकर।
रात भर चली पार्टी और नाच ने एक बार फिर उसकी ममता का गला घोंट दिया। तब से नारी के अभिशाप को जी रही है वह।
कार आने की आवाज से उसकी तन्द्रा टूटी।
‘‘हैलो डार्लिंग, हाउ आर यू? दवाइयाँ टाइम से लीं... और हाँ कल तुम्हें डॉ. कपूर चैक करने आ रहे हैं, जरूरत समझो तो ऑफिस फोन कर लेना। अच्छा, गुडनाइट, मुझे आज रात भी बहुत सारा काम निपटाना है।’’
छत को देखती नीरजा की आँखें एक बारगी सुकुमार की ओर मुड़ी और फिर अपनी कमजोर होती देह का मतलब समझकर वापस छत पर लौट गई, जहाँ अब भी एक बच्चे की तस्वीर धुँधला रही है।
बगल के आफिस कम बैडरूम में रोज की तरह आज भी सुकुमार अपनी स्टेनो को डिक्टेशन दे रहा है।
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