अविराम का ब्लॉग : वर्ष : १, अंक : ०४, दिसंबर २०११
।।कथा प्रवाह।।
सामग्री : डॉ. सतीश दुबे, युगल, राजेन्द्र परदेशी, दिनेश चन्द्र दुबे, सन्तोष सुपेकर, गोवर्धन यादव, अंकु श्री, सीताराम गुप्ता, अनिल द्विवेदी ‘तपन’ एवं शिव प्रसाद ‘कमल’की लघुकथाएं।
डॉ. सतीश दुबे
{लघुकथा पर डॉ. सतीश दुबे साहब की वृहत पुस्तक ‘बूँद से समुद्र तक’ इसी वर्ष प्रकाशित हुई है। इस पुस्तक में उनकी विगत तीन वर्षों के दौरान लिखी गई 104 लघुकथाओं के साथ 1974 में प्रकाशित उनके लघुकथा संग्रह ‘सिसकता उजास’ से 18 लघुकथाएँ श्री सूर्यकान्त नागर की समीक्षात्मक टिप्पणी सहित एवं 1965-66 में प्रकाशित 12 लघुकथाएँ साथ ही लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर प्रश्न संवाद सहित लघुकथा के दस समकालीन समालोचकों-सृजनधर्मियों द्वारा उनके रचनात्मक अवदान को रेखांकित करते आलेख संग्रहीत हैं। इस महत्वपूर्ण पुस्तक से प्रस्तुत है उनकी एक लघुकथा- ‘रिश्ताई नेहबंध’}
रिश्ताई नेहबंध
एक विस्तृत परिसर में उसने कार खड़ी कर दी। पत्नी अपनी मनमर्जी से खरीद-फरोख्त के लिए दुकानों की ओर निकल गई तथा वह बाहर की ओर पैर फैलाकर आसपास का नजारा देखने लगा। अचानक उसकी निगाह बन्दर के सर्कसी करतब दिखाते हुए मदारी की ओर स्थिर हो गई।
रेखांकन : हिना |
‘‘बड़े साब यह तो बहुत ज्यादा हैं।’’
‘‘रख लो, दस तुम्हारे दस बंदर के।....सोचा भी नहीं था कि यह खेल इस जमाने में देखने को मिलेगा...।’’
‘‘बड़े साब, यह खेल रामजी के टेम से चला आ रहा है। बालक राम जी के दर्शन कराने बालक हनुमानजी को शंकरजी मदारी बनकर ले गये थे और दोनों ने मदारी-बंदर का खेल बताकर रामजी के दर्शन किए। पिताजी से सीखे इस खेल से पेले घर चलता था अब मजदूरी के बाद शाम को इसको लेकर निकल जाते हैं, कुछ मिले तो ठीक नी मिले तो ठीक।’’
‘‘इस वनवासी को फिर छोड़ क्यों नहीं देते...?’’
‘‘साब इसके गले का यह रस्सा फंदा नहीं, प्रेम की डोर है। एक बार जादा खटपट होने पर बेटे और इसको घर से निकाल दिया। क्या बताऊँ आपको चार दिन बाद खटखट सुनकर दरवाजा खोला तो देखा ये मारुति आया बैठा है।’’ कहते-कहते मदारी जोरों से हंसा और हंसते-हंसते ‘‘बड़े साब निकाला गया बेटा तो घर नहीं आया पर ये आ गया।’’ कहते हुए उसकी आँखें नम हो गई।
इसी बीच एकाएक ‘‘खिक्ख....खिक्ख’’ आवाज सुन मदारी ने बंदर की ओर हंसकर देखा और कहा- ’’नाराज मत हो, नहीं कहता बस...साब ये कह रहा है कि घर की बातें दुनिया के सामने क्यों कर रहे हैं? चलूं साब नहीं तो ये लबूरने लगेगा।’’ मदारी ने मुस्कुराते हुए उसकी ओर देखा तथा बंदर के गले की नेह डोर थामकर डुगडुगी बजाता हुआ सामने की ओर निकल गया।
- 766, सुदामा नगर, इन्दौर-452009 (म.प्र.)
युगल
{अभी हाल में युगल जी का सन् 2005 में प्रकाशित लघुकथा संग्रह ‘गर्म रेत’ पढ़ने का सुअवसर मिला। इस संग्रह में तीन खण्डों- जलते पांव, मरुधार एवं काक-वाक में विभक्त उनकी ९९ लघुकथाएं संग्रहीत हैं। प्रस्तुत है इसी संग्रह से उनकी एक लघुकथा- ‘ईमान’}
ईमान
टैक्सी स्टैण्ड पर टैक्सी रोककर टैक्सी वाले ने बताया- ‘अट्ठारह-अट्ठारह रुपये हुए बाबू जी!’
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
मेरे पाँव लौटे। एक टैक्सी वहाँ खड़ी थी। टैक्सी ड्राइवर को देखकर मेरे मन ने पूछा- क्या यह वही टैक्सी ड्राइवर है? टैक्सी तो इसी रंग की थी- नीचे काली, ऊपर पीली। मैं पिछली सीट पर बैठा था। ड्राइवर को बहुत गौर से नहीं देखा था। हो सकता है, यह वही ड्राइवर हो। मैंने पूछा- ‘अभी रर्जारी से पाँच सवारियों को लेकर तुम्हीं आये थे?’
‘क्यों? क्या बात है?’
‘गलती से मुझे तीस रुपये ज्यादा दे दिये गये थे।’
‘हाँ साहब, उजलत में मुझसे अक्सर ऐसा हो जाता है आये दिन। साहब, आप-जैसों को देखकर कहना पड़ता है कि सतयुग का कोई एक पाँव अब भी इस धरती पर जरूर अड़ा है!’
ड्राइवर के बढ़े हाथ पर मैंने तीस रुपये रख दिये।
मैं अगले मोड़ पर मुड़ा, तो एक खड़ी टैक्सी के ड्राइवर को देखकर लगा- अरे! असल में तो यही चेहरा था। मैंने पूछा- ‘‘अभी पन्द्रह मिनट पहले रजौरी से तुम्हीं आये थे?’
‘जी हाँ, पाँच पैसेंजरों को लेकर। क्यों?...गाड़ी में तो कुछ नहीं था साहब! होता, तो मैं पुकार कर दे देता!’ ड्राइवर बोला।
‘बात यह है कि...’ मैं पूरा बोल नहीं सका। सोचता रहा, अब वह टैक्सी वाला कहाँ मिलेगा?
- मोहीउद्दीन नगर, समस्तीपुर-848501 (बिहार)
राजेन्द्र परदेशी
जंगलीपन
बहुत दिनो बाद गाँव जाना हुआ था, वापसी में गाँव के पास स्थित रेलवे स्टेशन पर बचपन के एक मित्र से भेंट हो गई। पुरानी यादें ताजा हो उठीं, गले लगकर कुछ पलों के लिए वह एक-दूसरे में खो गये। फिर व्यक्तिगत चर्चा होने लगी- बहुत दिनों बाद दिखाई पड़े, कहाँ रह रहे हो?
‘दिल्ली में एक कम्पनी में काम करता हूँ...छुट्टी मिलती नहीं...कहीं आना-जाना नहीं हो पाता।’
‘फिर कैसे आये?’
‘बापू को ले जाने के लिए, उन्हें डाक्टर को दिखाना है।’
‘उन्हें क्या हो गया है?’
‘पैरों में सूजन, चलने-फिरने में परेशानी।’
‘अब कैसे हैं?’
रेखांकन : राजेंद्र परदेशी |
‘बापू हैं कहाँ?’
‘वहाँ- सामने किसी से बतिया रहे हैं।’
‘इन्हें अपने पास क्यों नहीं रखते...खेती तो अब इनसे होती नहीं....वहीं तुम्हारे साथ आराम से रहें।’
‘कई बार ले जा चुका हूँ...लेकिन यह रहते कहाँ हैं। दो-चार दिन बीते नहीं कि गाँव लौटने की जिद्द करने लगते हैं।’
‘इन्हें तुम्हारे पास अच्छा नहीं लगता होगा।’
‘इनके लिए लिए रंगीन टी.वी. लगवा दिया हूँ। कमरे में ए.सी. भी लगा है, फिर भी मन नहीं लगता इनका वहाँ।’
‘फिर क्या बात है?’
‘कहते हैं दम घुटता है। अपनी जमीन से जुड़कर मन बाग में घूमने को और चौपाल पर बैठकर बतियाने को करता है। कुएँ से चार बाल्टी पानी खींचने का अलग ही आनंद है....सुख-सुविधा छोड़ यदि उन्हें यही जंगलीपन पसंद है तो मैं क्या करूँ?’
शहरी मानसिकता की आवाज सुन मित्र आवाक रह गया।
- भारतीय पब्लिक अकादमी, चांदन रोड, फरीदी नगर, लखनऊ-226015 (उ.प्र.)
दिनेश चन्द्र दुबे
ग्रीटिंग्स
आखिरी ग्रीटिंग कार्ड उठाकर जब पिता उस पर नाम-पता लिखने लगे तो बेटी एकदम अड़ गई। ‘नहीं पापा, यह अंतिम कार्ड बचा है। इसे मैं भैया को भेजूँगी। वह इतनी दूर पदस्थ है कि उसे देखने का तरस जाती हूँ।
इस बार उसके द्वारा जबरन कार्ड, पिता के हाथ से खींचने लगने पर वे झल्ला गये।
द्रश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी |
और बेटी को पोस्टकार्ड पकड़ा कर वे खूबसूरत और कीमती ग्रीटिंग कार्ड पर टिकिट चिपका कर जिलाधिकारी का नाम-पता रंगीन पैन से लिखने में व्यस्त हो गये।
बेटी हक्की-बकी सी रिश्तों की हकीकत पर पिता को देखती रही थी।
- 68, विनय नगर-1, ग्वालियर-12 (म.प्र.)
सन्तोष सुपेकर
आत्मग्लानि
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
स्कूटर स्टार्ट हो गया और मैं तेजी से मुहल्ले से निकल गया। ‘‘बाल-बाल बचे...... और उससे भी बड़ी बात, आज की छुट्टी बची, शाम को चला जाऊँगा, बैठने......।’’ बड़बड़ाते हुए मैं जब दफ्तर के लिये निकल रहा था तो सड़क के उस पार मुहल्ले के बुजुर्ग दुकानदार, बाबूजी को चार-छः लोग रिक्शे में डालकर अस्पताल ले जा रहे थे। बाबूजी की आँखें बन्द थीं, चेहरा सफेद पड़ चुका था और परिवार के लोग बुक्का फाड़कर रो रहे थे........।
रात को देरी से जब मैं बाबूजी के यहाँ ‘‘बैठने’’ पहुँचा तो देखकर चौंक गया.....बाबूजी दुकान पर ही बिस्तर लगाकर लेटे हुए थे, ‘‘आओ बेटा’’ मुझे देखकर वे उठ बैठे, ‘‘तुम जैसे लोगों के समय पर अस्पताल ले जाने की वजह से ही मेरी जान बच गई। सचमुच मुझे तो सारा मुहल्ला मेरा परिवार ही लगता है.......।’’
अचकचाकर मैं पीछे हटा तो दुकान पर रखा एक खाली ड्रम लुढ़क गया। ‘‘क्या गिरा?’’ बाबूजी ने पूछा। ‘‘मैं गिरा’’ जैसे मैंने अपने आपसे कहा, ‘‘और वह भी, पहाड़ की चोटी से.....।’’
- 31, सुदामानगर, उज्जैन-456001 (म.प्र.)
गोवर्धन यादव
दस्तूर
रेखांकन : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा |
एक ज्योतिषी ने अपना पोथा खोलते हुए बतलाया कि पुराने जमाने में राजा-महाराजा किसान बन कर हल चलाया करते थे, तब जाकर वर्षा का योग बनता था। अब राजा महाराजाओं का जमाना तो रहा नहीं, यदि कोई शीर्षस्थ नेता हल चला कर यह दस्तूर करे तो निःसन्देह बरिश हो सकती है।
एक नियत समय पर एक नेता को हल चलाकर दस्तूर करना था। खेत के चारों ओर लोग खड़े होकर अपने नेता को हल चलते हुए देखना चाहते थे। जयघोष के साथ नेताजी का प्रवेश हुआ और उन्होंने आगे बढ़कर हल की मूठ पकड़कर बैलों को आगे बढ्ने का इशारा किया। हल की फ़ाल जैसे ही जमीन में दबी पड़ी हड्डी से टकराई, एक आवाज आयी- ‘कौन है कम्बखत, जो हमें मरने के बाद भी चौन से सोने नहीं दे रहा है।’
- 103, कावेरी नगर, छिन्दवाड़ा-480001 (म.प्र.)
अंकु श्री
लाभ
‘‘पहले तो तुम जनेऊ नहीं पहना करते थे? यह कबसे पहनने लगे?’’
‘‘हाँ! इधर पहनने लगा हूँ।’’
‘‘लेकिन क्यो?’’
‘‘इससे मुझे बहुत लाभ हुआ है।’’
‘‘नहीं; इससे मुझे सामाजिक और आर्थिक लाभ हुआ है।’’
‘‘वह कैसे?’’
‘‘जबसे मैं जनेऊ पहनने लगा हूँ, लोग मुझ पर अधिक विश्वास करने लगे हैं।’’
‘‘अच्छा!’’
‘‘हां! लोगों का विश्वास प्राप्त करने से मुझे अपने व्यवसाय में विशेष लाभ हुआ है।’’
सामने बस स्टैण्ड की ओर से आ रहे एक यात्री को देखकर दोनों चुप हो गये। यात्री जब कुछ आगे बढ़ गया तो एक ने कहा, ‘‘लगता है, मोटा आसामी है?’’
‘‘हां, लगता तो है!’’
‘‘इससे तुम्हीं निपट लो, तुम्हारा जनेऊ शायद यहां भी कारगर हो जाये। मैं दूसरा यात्री तलाशता हूँ।’’
दोनों अलग-अलग दिशाओं में चले गये।
- सी/204, लोअर हिनू, रांची-834002
सीताराम गुप्ता
मिज़ाजपुर्सी
मैं जैसे ही घर पहुँचा तो पता चला कि मेरे पीछे से माँ की तबियत बहुत ख़राब हो गई थी। आज ही कुछ ठीक हुई है। मैं एक हफ्ते के लिए बाहर गया था। छत्तीसगढ़ के दूर-दराज़ एक गाँव में सम्पर्क का कोई साधन नहीं था, जिससे मुझे माँ की बीमारी के बारे में पता चल जाता, वो भी आज से पन्द्रह साल पहले। आज तो गाँवों में भी घर-घर टेलीफोन लग गए हैं। यदि उस दूर जंगल के एक गाँव में सूचना मिल भी जाए तो वहाँ बैठा आदमी कर भी क्या सकता है। दिल्ली तक पहुँचने में दो दिन का समय लग जाता है और तब तक कुछ भी हो सकता है। ख़ैर! माँ को ठीक-ठाक देखकर तसल्ली हुई।
द्रश्य छाया चित्र : रामेश्वर कम्बोज हिमांशु |
‘‘नहीं तेरे पीछे तो नहीं आया। सोचा तू छत्तीसगढ़ से आ जायेगा, तभी आऊँगा। तुझसे भी मिल लूँगा। रोज़-रोज़ आना सम्भव नहीं होता। तीन-चार दिन की ही तो बात थी। मुझे पता चल गया था कि तेरी गाड़ी आज बारह बजे पहुँचने वाली है, इसीलिए अब चार बजे आया हूँ।’’ इतना कहकर मामा जी ने अत्यन्त आत्मविश्वास के साथ मेरी ओर देखते हुए पूछा, ‘‘अच्छा बता बिल्कुल सही समय पर आया हूँ न?’’ फिर जैसे उन्हें एकाएक कुछ याद आ गया हो इस अन्दाज में पूछने लगे, ‘‘अब तेरी माँ की तबियत कैसी है?’’ डॉक्टर ने क्या कहा है?’’
‘‘मैं आया हूँ, जब से माँ सो रही हैं। अभी उठेंगी तो पूछकर बताता हूँ कि तबियत कैसी है?’’ इतना कहकर मैं माँ को देखने पुनः उनके कमरे की ओर चल दिया।
- ए.डी.-106-सी, पीतमपुरा, दिल्ली-110034
अनिल द्विवेदी ‘तपन’
सॉरी मम्मी
सुशील बंटे! यहाँ बैठे क्या कर रहे हो?
पाठ याद कर रहा हूँ, मम्मी...!
कौन सा पाठ याद कर रहे हो, मैं भी जानूँ...! रागिनी ने बड़े प्यार से पूछा।
वही आपने जो कल बताया था! सुशील ने भोलेपन से उत्तर दिया।
रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव |
यही कि पापा से मत बोलो.... बाबा को खाना मत दो.... दादी को धक्के मारकर घर से निकाल दो...।
‘बदतमीज कहीं का...’ कहते हुए रागिनी ने सुशील के मुँह पर तमाचा जड़ दिया और तमक कर बोली-‘...जुबान काट लूँगी... अगर किसी से कहा तो...! जल्दी बोल- सॉरी!
बड़े-बड़े आँसू टपकाते हुए सुशील ने कहा- सॉरी मम्मी!
- ‘दुलारे निकुंज’, 46-सिपाही ठाकुर, कन्नौज-209725 (उ.प्र.)
शिव प्रसाद ‘कमल’
सिर और पांव का फर्क
कस्बे के बस स्टाप के निकट फुटपाथ पर रामू जूते गांठता था। वहीं बगल में उसका पड़ौसी बिरजू लोगों के दाढ़ी-बाल काटता! आज शाम को एक ग्राहक बिरजू के यहां शेव कराने आया। दाढ़ी बन गयी तो वह ग्राहक की मूँछे ठीक करने लगा। जरा-सी असावधानी हुई तो उसकी एक तरफ की मूँछें कुछ ज्यादा कट गयीं।
ग्राहक ने शीशा देखा तो नाराज हो गया। उसने बिरजू को पीट दिया। रामू ने बिरजू की ओर से ग्राहक के पांव पकड़कर माफी मांगी। मामला रफा-दफा हुआ। उसके चले जाने पर दोनों अपना सामान समेट कर घर लौटने लगे। रास्ते में क्षुब्ध बिरजू ने पूछा- ‘‘रामू भाई! तुम अपना काम चुपचाप शांति से कैसे कर लेते हो,’’
द्रश्य छाया चित्र : उमेश महादोषी |
बिरजू की समझ में बात आ गयी। वह तनावमुक्त हो गया।
- कल्पना मन्दिर, चुनार, जिला- मिर्जापुर (उ.प्र.)
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