अविराम का ब्लॉग : वर्ष : १, अंक : ०४, दिसंबर २०११
{अविराम के ब्लाग के इस स्तम्भ में अब तक हमने क्रमश: 'असिक्नी', 'प्रेरणा (समकालीन लेखन के लिए)', कथा संसार, संकेत, समकालीन अभिव्यक्ति, हम सब साथ साथ, आरोह अवरोह तथा लघुकथा अभिव्यक्ति साहित्यिक पत्रिकाओं का परिचय करवाया था। इस अंक में हम दो और पत्रिकाओं पर अपनी परिचयात्मक टिप्पणी दे रहे हैं। जैसे-जैसे सम्भव होगा हम अन्य लघु-पत्रिकाओं, जिनके कम से कम दो अंक हमें पढ़ने को मिल चुके होंगे, का परिचय पाठकों से करवायेंगे। पाठकों से अनुरोध है इन पत्रिकाओं को मंगवाकर पढें और पारस्परिक सहयोग करें। पत्रिकाओं को स्तरीय रचनाएँ ही भेजें, इससे पत्रिकाओं का स्तर तो बढ़ता ही है, रचनाकारों के रूप में आपका अपना सकारात्मक प्रभाव भी पाठकों पर पड़ता है।}
हरिगन्धा का ऐतिहासिक लघुकथा विशेषांक
हरिगन्धा एक महत्वपूर्ण व चर्चित साहित्यिक पत्रिका है। महत्वपूर्ण साहित्य को सामने लाने के साथ ही हरियाणा के बहुत से रचनाकारों को एक मंच प्रदान करने एवं उन्हें पहचान दिलाने में भी हरियाणा साहित्य अकादमी की इस पत्रिका की भूमिका रही है। हरियाणा के सामाजिक एवं लोक जीवन के यथार्थ के साथ उसके सांस्कृतिक पक्ष को उजागर करने का काम भी हरिगन्धा बखूबी कर रही है। हरियाणा सिर्फ जाटों-किसानों की ही नहीं साहित्यकारों की भी ज़मीन है, इसे इस प्रदेश की साहित्यिक-सांस्कृतिक सुगन्ध की वाहिका बनकर राष्ट्रीय स्तर पर साहित्यिक क्षेत्र में हरिगन्धा की उड़ान में भी महसूस किया जा सकता है। इस बात का पुख्ता प्रमाण बनकर आया है गत दिसम्बर 2010-जनवरी 2011 में प्रकाशित इस पत्रिका का लघुकथा विशेषांक। लघुकथा पर इस वृहत विशेषांक के लिए अकादमी और हरिगन्धा की टीम प्रशंसा की पात्र है।
सबसे पहले तो इस विशेषांक के लिए अकादमी ने दो सामान्य अंको का स्थान उपलब्ध करवाकर लघुकथा के विस्तार को समझने की कोशिश की है। दूसरी बात इसके सम्पादन का दायित्व अतिथि सम्पादक के रूप में अग्रणी लघुकथाकार एवं लघुकथा समालोचक-दिशावाहक डॉ. अशोक भाटिया को सौंपकर लघुकथा की गम्भीरता एवं बारीकियों के प्रति जिम्मेदारी का अहसास भी अकादमी ने प्रदर्शित किया है। इसमें कोई दो राय नहीं कि डॉ. भाटिया के समान ही अग्रणी एवं महत्वपूर्ण कुछ और भी लघुकथाकार हरियाणा की जमीन ने दिये हैं, पर शायद कुछेक चीजें इस विशेषांक में ऐसी हैं, जिनका श्रेय डॉ. भाटिया जी को दिया जा सकता हैे। उन्होंने अपने पूर्व के लघुकथा सम्बन्धी विशिष्ट कार्यों और अनुभवों का उपयोग करते हुए ‘लघुकथा के आलोक स्तम्भ’ के अन्तर्गत विश्व की विभिन्न भाषाओं के सुप्रसिद्ध साहित्यकारों की कथा रचनाओं में लघुकथा की जड़ें खोजने एवं ‘लघुकथा: हिन्दी की विरासत’ के माध्यम से हिन्दी के महान कथाकारों के साहित्य में लघुकथा की उपस्थिति को सामने लाकर लघुकथा को कथा साहित्य की महान विरासत से सम्बद्ध करने की कोशिश की है। यद्यपि समय-समय पर इस तरह के कार्य होते रहे हैं, पर भाटिया जी ने इस कार्य को सुनियोजित व समेकित रूप से एवं यथोचित तरजीह दी है। इसके पीछे लघुकथा के बारे में भ्रान्तियों के निराकरण का उददे्श्य हो सकता है। शार्टकट, भाग-दौड़ की जिन्दगी का परिणाम, फिलर वगैरह जैसी धारणायें कहीं न कहीं लघुकथा की स्वाभाविक विधा के रूप में उत्पत्ति एवं विकास को प्रश्नांकित करती रही हैं। मुझे लगता है कि कृत्रिम चीजें साहित्य और संस्कृति में बहुत बड़ा मुकाम हासिल नहीं कर सकती और जो चीजें बड़ा मुकाम हासिल कर लें, उनकी उत्पत्ति और विकास के पीछे कहीं कोई स्वाभाविकता नहीं होगी, ऐसा मानना सर्वथा अनुचित होगा। काल और काल-जनित परिस्थितियों का प्रभाव साहित्य पर पड़ता है, पर उसका सम्बन्ध लोगों की रुचियों (यहाँ रूचि से तात्पर्य पाठकीय रूचि से नहीं, जीवन की जरूरतों और जीने के तौर-तरीकों से है) और जीवन में आये यथार्थपरक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों से होता है। समय नहीं है इसलिए लोग कहानी या उपन्यास न पढ़कर लघुकथा पढ़ेंगे, इसलिए लघुकथा लिखी जा रही है, ऐसी धारणाएँ भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं हैं। जिनके पास समय नहीं है, वे लघुकथा भी क्यों पढ़ेंगे? अविराम में लघुकथाएँ पढ़कर एक परिचित (सामान्य पाठक) की प्रतिक्रिया थी- ‘भाई साहब आप बड़ी कहानी क्यों नहीं छापते? ये छोटी-छोटी कहानियाँ (लघुकथाओं के लिए उनका सम्बोधन) भी अच्छी हैं, पर हमें तो बड़ी कहानी पढ़ना ज्यादा अच्छा लगता है।’ आज लघुकथा जिस रूप में सामने खड़ी है, वह जीवन में आये यथार्थपरक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों के कारण खड़ी है। लघुकथा ने कहीं से भी कहानी और उपन्यास को प्रतिस्थापित नहीं किया है, बल्कि उनकी पूरक बनकर सामने आई है। लघुकथा वह काम कर रही है, जो कहानी और उपन्यास से छूट गया है। संयोगवश ऐसे कार्य का आज जीवन में आये यथार्थपरक एवं सामाजिक-सांस्कृतिक बदलावों के कारण विस्तार होता जा रहा है और लघुकथा आगे बढ़ रही है। इसलिए लघुकथा की जड़ें और उसकी उपस्थिति हमें अपने बड़ों के कथा-कर्म में भी दिखाई दे रही है (और उसे हमारे लघुकथा के ध्वजवाहक पहचान रहे हैं) तो यह लघुकथा के स्वाभाविक विकास को दर्शाती है। मेरा मानना है कि साहित्य इसलिए पढ़ा जाता है कि वह जीवन के उद्देश्यों को हासिल करने के लिए लिखा जा रहा है, वह जीवन का मर्म लेकर सामने आ रहा है; इसलिए नहीं लिखा जाता कि किसी को उसे पढ़ना है।
इस विशेषांक के आलेख खण्ड में कई वरिष्ठ कई महत्वपूर्ण आलेखों के मध्य बलराम अग्रवाल का समकालीन लघुकथा का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एवं डॉ. पुरुषोत्तम दुबे का महत्वपूर्ण बारीकियों से भरा लघुकथा में शिल्प प्रयोंगों का विश्लेषण लघुकथा लेखन में, विशेषतः नए लेखकों को गुणवत्ता का दृष्टि से मार्गदर्शन करेगा।
विशेषांक के लिए अधिकांश लेखकों ने अच्छी लघुकथाएँ उपलब्ध करवाई हैं और अतिथि सम्पादक ने यथाशक्ति सावधान होकर चयन किया है। अधिकांशतः बेहद प्रभावशाली लघुकथाएँ हैं। फिर भी कहीं कोई छोटी-मोटी चूक दिखाई देती है, तो बड़े आयोजन में इसे स्वाभाविक रूप से लेना ही ठीक रहेगा। कोई कार्य हमेशा सम्पूर्णता प्राप्त नहीं कर पाता। महत्वपूर्ण यह होता है कि सम्पूर्णता तक जाने की कोशिश दिखाई दे, जो हरिगंधा में दिखती है। हरियाणा साहित्य अकादमी, पत्रिका की प्रधान सम्पादक डॉ. मुक्ता, सम्पादक नीलम सिंगला और उनकी टीम के साथ डॉ. अशोक भाटिया इस महत्वपूर्ण कार्य के लिए बधाई के पात्र हैं ही, हरिगन्धा हरियाणा की साहित्यिक-सांस्कृतिक सुगन्ध की वाहिका बनी रहे, शुभकामनाएँ।
हरिगंधा : साहित्यिक मासिकी। प्र. सम्पादक : डॉ. मुक्ता/सम्पादक : नीलम सिंगला/लघुकथा विशेषांक के अतिथि संपादक : डॉ. अशोक भाटिया। प्रकाशक एवं सम्पर्क : हरियाणा साहित्य अकादमी, अकादमी भवन, पी-16, सेक्टर-14, पंचकुला-134113(हरियाणा) दूरभाष : ०१७२-२५६५५२१ / २५८१८०७। वार्षिक चन्दा : रु. 150/-, संयुक्तांक/विशेषांक का मूल : रु. 30/-
मोमदीप : एक सम्भावनापूर्ण लघु पत्रिका
मोमदीप में कुछ वरिष्ठों के साथ अधिकांशतः नए रचनाकारों को स्थान मिल रहा है। पिछले जिन तीन अंकों को हमने देखा है, उनमें कई प्रभावशाली रचनाएँ भी हैं पर अधिकांश रचनाओं को देखकर ऐसा लगता है साहित्य के प्रवेश द्वार पर आये लोगों का स्वागत कर रही है यह लघु पत्रिका। यह बात अच्छी भी है, नए लोग जुड़ेंगे, तभी साहित्य आगे बढ़ेगा। अधिकाधिक लोगों को साहित्य से जोड़ने की मुहिम में मोमदीप का शामिल होना शुभ है। इसी के साथ नए लोगों का साहित्यिक स्तर की दृष्टि से मार्गदर्शन भी जरूरी है। मोमदीप के सम्पादन से वरिष्ठ लोग जुड़े हैं, जो नए रचनाकारों का सम्पादकीय हस्तक्षेप से मार्गदर्शन कर सकते हैं। यह कार्य किया जाना चाहिए। नए लागों में कई मित्र लेखनेतर गतिविधियों में पर्याप्त सक्रियता के चलते प्रसिद्धि पा जाते हैं, पर लेखन के स्तर की दृष्टि से इन मित्रों को जिस परिश्रम की जरूरत होती है, उसे भी समझना चाहिए (आज के रचनाकार के लिए लेखनेतर साहित्यिक गतिविधियों में सक्रियता और लेखन व उसके स्तर के मध्य संतुलन बेहद जरूरी है)। रचनाओं की प्रस्तुति और चयन में थोड़ा सा ध्यान देने पर पत्रिका का आकर्षण काफी अधिक बढ़ जायेगा। रचनाकारों को भी अपनी रचनाएँ मोमदीप सहित तमाम लघु पत्रिकाओं को भेजने से पूर्व उनकी स्वयं समीक्षा भी करनी चाहिए। दूसरी ओर चर्चित एवं वरिष्ठ रचनाकारों को कुछ अच्छी रचनाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करवाकर पत्रिका की उपस्थिति को साहित्य के लिए उपयोगी बनाने में योगदान करना चाहिए। कुछ वरिष्ठ रचनाकारों ने अच्छी रचनाएँ दी भी हैं। संतुलन बनाकर ही सही दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। 60 जमा 4 यानी 64 पृष्ठ के साथ एक साहित्यिक लघु पत्रिका का नियमित प्रकाशन साहित्यिक संसाधन की उपलब्धता की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण घटना होती है, इस बात को सभी लोगों को समझने की जरूरत है।
विधागत दृष्टि से मोमदीप में दोहा एवं ग़ज़ल रचनाएँ ही प्रभाव छोड़ पा रही हैं। फिलहाल मोमदीप के गीत एवं लघुकथाएँ अपेक्षानुरूप नहीं लगतीं। नई कविता एवं क्षणिका जैसी समकालीन विधाओं को स्थान ही नहीं दिया गया है, कम से कम इन तीन अंकों में। शिक्षा, भ्रष्टाचार एवं जन सेवकों पर प्रहार करते सम्पादकीय आलेखों में डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ जी की चिन्ताएँ हम सबकी हैं। आचार्य भगवत दुबे जी ने समीक्षाएँ अच्छी लिखी हैं। प्रूफ की गलतियाँ, खासकर आठवें अंक में काफी ज्यादा हैं। मोमदीप एक सम्भावनापूर्ण लघु पत्रिका है, उम्मीद है आने वाले समय में साहित्य के प्रचार-प्रसार में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी।
मोमदीप : साहित्य-शिक्षा-संस्कृति को समर्पित हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका। सम्पादक : डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’/प्रबन्ध सम्पादक : आचार्य भगवत दुबे। सम्पर्क : 1436-बी, सरस्वती कॉलोनी, चेरीताल, जबलपुर-482002 (म.प्र.) दूरभाष: 2340036/मोबाइल: 09425899232। मूल्य: एक प्रति: रु. 10/-, वार्षिक: रु. 40/- एवं आजीवन: रु. 500/- मात्र।
मोमदीप में कुछ वरिष्ठों के साथ अधिकांशतः नए रचनाकारों को स्थान मिल रहा है। पिछले जिन तीन अंकों को हमने देखा है, उनमें कई प्रभावशाली रचनाएँ भी हैं पर अधिकांश रचनाओं को देखकर ऐसा लगता है साहित्य के प्रवेश द्वार पर आये लोगों का स्वागत कर रही है यह लघु पत्रिका। यह बात अच्छी भी है, नए लोग जुड़ेंगे, तभी साहित्य आगे बढ़ेगा। अधिकाधिक लोगों को साहित्य से जोड़ने की मुहिम में मोमदीप का शामिल होना शुभ है। इसी के साथ नए लोगों का साहित्यिक स्तर की दृष्टि से मार्गदर्शन भी जरूरी है। मोमदीप के सम्पादन से वरिष्ठ लोग जुड़े हैं, जो नए रचनाकारों का सम्पादकीय हस्तक्षेप से मार्गदर्शन कर सकते हैं। यह कार्य किया जाना चाहिए। नए लागों में कई मित्र लेखनेतर गतिविधियों में पर्याप्त सक्रियता के चलते प्रसिद्धि पा जाते हैं, पर लेखन के स्तर की दृष्टि से इन मित्रों को जिस परिश्रम की जरूरत होती है, उसे भी समझना चाहिए (आज के रचनाकार के लिए लेखनेतर साहित्यिक गतिविधियों में सक्रियता और लेखन व उसके स्तर के मध्य संतुलन बेहद जरूरी है)। रचनाओं की प्रस्तुति और चयन में थोड़ा सा ध्यान देने पर पत्रिका का आकर्षण काफी अधिक बढ़ जायेगा। रचनाकारों को भी अपनी रचनाएँ मोमदीप सहित तमाम लघु पत्रिकाओं को भेजने से पूर्व उनकी स्वयं समीक्षा भी करनी चाहिए। दूसरी ओर चर्चित एवं वरिष्ठ रचनाकारों को कुछ अच्छी रचनाएँ पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध करवाकर पत्रिका की उपस्थिति को साहित्य के लिए उपयोगी बनाने में योगदान करना चाहिए। कुछ वरिष्ठ रचनाकारों ने अच्छी रचनाएँ दी भी हैं। संतुलन बनाकर ही सही दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है। 60 जमा 4 यानी 64 पृष्ठ के साथ एक साहित्यिक लघु पत्रिका का नियमित प्रकाशन साहित्यिक संसाधन की उपलब्धता की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण घटना होती है, इस बात को सभी लोगों को समझने की जरूरत है।
विधागत दृष्टि से मोमदीप में दोहा एवं ग़ज़ल रचनाएँ ही प्रभाव छोड़ पा रही हैं। फिलहाल मोमदीप के गीत एवं लघुकथाएँ अपेक्षानुरूप नहीं लगतीं। नई कविता एवं क्षणिका जैसी समकालीन विधाओं को स्थान ही नहीं दिया गया है, कम से कम इन तीन अंकों में। शिक्षा, भ्रष्टाचार एवं जन सेवकों पर प्रहार करते सम्पादकीय आलेखों में डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’ जी की चिन्ताएँ हम सबकी हैं। आचार्य भगवत दुबे जी ने समीक्षाएँ अच्छी लिखी हैं। प्रूफ की गलतियाँ, खासकर आठवें अंक में काफी ज्यादा हैं। मोमदीप एक सम्भावनापूर्ण लघु पत्रिका है, उम्मीद है आने वाले समय में साहित्य के प्रचार-प्रसार में यह महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगी।
मोमदीप : साहित्य-शिक्षा-संस्कृति को समर्पित हिन्दी त्रैमासिक पत्रिका। सम्पादक : डॉ. गार्गीशरण मिश्र ‘मराल’/प्रबन्ध सम्पादक : आचार्य भगवत दुबे। सम्पर्क : 1436-बी, सरस्वती कॉलोनी, चेरीताल, जबलपुर-482002 (म.प्र.) दूरभाष: 2340036/मोबाइल: 09425899232। मूल्य: एक प्रति: रु. 10/-, वार्षिक: रु. 40/- एवं आजीवन: रु. 500/- मात्र।
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