अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 1, अंक : 12, अगस्त 2012
सामग्री : इस अंक में सर्व श्री (डॉ.) बलराम अग्रवाल, श्री प्रताप सिंह सोढ़ी, श्री पारस दासोत, (डॉ.) पृथ्वीराज अरोड़ा, (डॉ.) अशोक भाटिया, श्री सुभाष नीरव, (डॉ.) रामनिवास ‘मानव’, श्री श्यामसुन्दर अग्रवाल, श्री सुरेश शर्मा, श्री रामयतन यादव की लघुकथाएं।
बुजुर्ग जीवन की लघुकथाएँ
{गत वर्ष वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुरेश शर्मा जी के सम्पादन में लघुकथा का महत्वपूर्ण संकलन ‘बुजुर्ग जीवन की लघुकथाएँ’ प्रकाशित हुआ था। देश भर के 77 प्रतिनिधि लघुकथाकारों की बुजुर्ग जीवन से सम्बन्धित लघुकथाएं एवं भूमिका के रूप में सुप्रसिद्ध लघुकथाकार एवं चिन्तक डॉ. बलराम अग्रवाल जी का लम्बा और महत्वपूर्ण आलेख ’समकालीन लघुकथा और बुजुर्गों की दुनियाँ’ इस संकलन में संकलित हैं, जिनमें अनेक लघुकथाएं बहुचर्चित एवं प्रभावशाली हैं। हम इस बार इसी संकलन से दस लघुकथाकारों की एक-एक लघुकथा पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। भविष्य में इस संकलन से कुछ और लघुकथाकारों की लघुकथाएँ भी किसी अंक में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। इन लघुकथाओं में सामयिक यथार्थ भी है और सकारात्मक दिशाबोद्ध भी।}
डॉ बलराम अग्रवाल
अज्ञात गमन
चौराहे के घंटाघर से दो बजने की आवाज़ घनघनाती है। बन्द कोठरी में लिहाफ़ के बीच लिपटे दिवाकर आँखें खोलकर जैसे अँधेरे में ही सब कुछ देख लेना चाहते हैं- दो जवान बेटों में से एक, बड़ा, अपनी शादी के तुरन्त बाद ही बहू को लेकर नौकरी पर चला गया था। राजी-खुशी के दो-चार पत्रों के बाद तीसरे ही महीने- ‘‘पूज्य पिताजी, बाहर रहकर इतने वेतन में निर्वाह करना कितना मुश्किल है। इस पर भी पिछले माह वेतन मिला नहीं। हो सके तो, कुछ रुपये खर्चे के लिए भेज दें। अगले कुछ महीनों में धीरे-धीरे लौटा दूँगा....’’ लिखा पत्र मिला।
रुपये तो दिवाकर क्या भेज पाते। बड़े की चतुराई भाँप उससे मदद की उम्मीद छोड़ बैठे। छोटा, उस समय कितना बिगड़ा था बड़े पर- ‘‘हद कर दी भैया ने, बीवी मिलते ही बाप को छोड़ बैठे।’’
इस घटना के बाद एकदम बदल गया था वह। एक-दो ट्यूशन के जरिए अपना जेब खर्च उसने खुद सँभाल लिया था और आवारगी छोड़ आश्चर्यजनक रूप से पढ़ाई में जुट गया था। प्रभावित होकर मकान गिरवी रखकर भी दिवाकर ने उसे उच्च शिक्षा दिलाई और सौभाग्यवश ब्रिटेन के एक कॉलेज में वह प्राध्यापक नियुक्त हो गया। वहाँ पहुँचकर वह अपनी राजी-खुशी और ऐशो-आराम की ख़बर से लेकर दिवाकर के ‘ससुर’ और फिर ‘दादाजी’ बन जाने तक की हर ख़बर भेजता रहा है। लेकिन वह, यहाँ भारत में, क्या खा-पीकर जिन्दा हैं- छोटे ने कभी नहीं पूछा।
.....कल सुबह, जब गिरवी रखे इस मकान से वह बेदख़ल कर दिए जाएँगे- घने अंधकार में डबडबाई आँखें खोले दिवाकर कठोरतापूर्वक सोचते हैं....अपने बेटों के पास दो पत्र लिखेंगे....यह कि अपने मकान से बेदखल हो जाने और उसके बाद कोई निश्चित पता-ठिकाना न होने के कारण आगे से उनके पत्रों को वह प्राप्त नहीं कर पाएँगे।
प्रताप सिंह सोढ़ी
तस्वीर बदल गई
ड्राइंग रूम में दीवार घड़ी के पास ही स्व. पिताजी की तस्वीर पिछले दस वर्षों से टंगी थी। आते-जाते घड़ी देखते समय सुदर्शन पिताजी के दर्शन भी कर लेता था।
आज उसकी पुत्रवधू ने दीवारों के जाले साफ करते समय पिताजी की फोटो फर्श पर गिरा दी। तस्वीर में लगे काँच के टुकड़े इधर-उधर बिखर गए। काँच के टुकड़े समेट फेंकने से पूर्व उसकी पुत्रवधू बोली, ‘‘सॉरी पापा।’’
सुदर्शन को लगा काँच के टुकड़े उसके भीतर धँस गए हैं। सुदर्शन ने कुछ नहीं कहा। सोचा ऑफिस से लौटने के बाद पिताजी की तस्वीर में नया काँच लगा दूँगा।
संध्या समय जब वह ऑफिस से लौटा तो ड्राइंग रूम में प्रवेश करते ही उसकी नज़र दीवार घड़ी के पास टंगी तस्वीर पर पड़ी। उसे प्रशन्नता हुई कि जो काम उसे करना था, उसे उसके पुत्र ने कर दिया। पास आकर जब गौर से उसने देखा तो स्तब्ध रह गया। पिताजी की तस्वीर की जगह उसके पुत्र एवं पुत्रवधू की तस्वीर फ्रेम में जड़ी थी। फ्रेम वही थी, लेकिन तस्वीर बदल गई थी।
पारस दासोत
एक मूवी का ‘द एण्ड’
अपने बंगले के हॉल में बैठे,....
वे दोनों पति-पत्नी एक मूवी का आनन्द ले रहे थे। पास ही बरामदे में पड़ी बीमार वृद्ध माँ- ‘‘बेटा!...ओऽऽ....बेटा!’’ पुकारती....कराह रही थी। शायद उनको हार्ट-अटैक आया था।
‘‘बस..... थोड़ी ही देर में मूवी का एण्ड होने वाला है। हम इसका एण्ड तो देख लें!’’- बेटा अपनी माँ की पुकार सुन झल्लाया। वे अभी मूवी के एण्ड की ओर बढ़ रहे थे कि माँ घसिटती-घसिटाती टी.वी. के सामने पहुँच....देवलोक को प्राप्त हो गई।
डॉ. पृथ्वीराज अरोड़ा
बुनियाद
उसे दुःख हुआ कि पढ़ी-लिखी समझदार पुत्रवधू ने झूठ बोला था। वह सोचता रहा- क्यों झूठ बोला था उसने? क्या विवशता थी, जो उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा?
उसने पुत्रवधू को कुर्सी पर बैठने के लिए इंगित किया। वह बैठ गई। उसने कहा- ‘‘तुमसे एक बात पूछनी थी?’’
‘‘पूछिए पापा।’’
‘‘झिझकना नहीं।’’
‘‘पहले कभी झिझकी हूँ। आपने मुझे पूरे अधिकार दे रखे हैं, बेटी से भी बढ़कर।’’
‘‘थोड़ी देर पहले तुमने झूठ क्यों बोला? मुझे तो अभी नाश्ता करना है। तुमने मेरे नाश्ता कर लेने की बात कैसे कही?’’ उसने बिना कोई भूमिका बाँधे पूछा।
उसका झूठ पकड़ा गया है, उसने अपना सिर झुका लिया। फिर गंभीर-सी बोली, ‘‘पापा, हम बेटियाँ झूठ बोलने के लिए अभिशप्त हैं। माएँ भी, गृहस्थी में दरार न पड़े, हमें ऐसी ही सीख देती हैं।’’ वह थोड़ी रुकी। भूत को दोहराया, ‘‘भाई के लिए नाश्ता बनाने में देर हो रही है, वह नाराज न हो, कोई बहाना बना डालो। पापा का कोई काम वक़्त पर न हो पाया हो तो झूठ का सहारा लो। आज भी ऐसा ही हुआ। नाश्ता बनाने में देर हो रही थी। इनके ऑफिस का वक़्त हो गया था। वह नाराज होने को थे कि मैंने आपको नाश्ता करवा देने की बात कह डाली। आपका जिक्र करते ही, वह चुप हो गये। और किसी कलह को नहीं होने दिया।’’ उसने निगाह उठाकर ससुर को देखा और कहा, ‘‘और क्या करती पापा?’’
ससुर मुस्कराए। उसके सिर पर हाथ फेराकर बोले- ‘‘अच्छा किया। जा, मेरे लिए नाश्ता ला। बहुत भूख लगी है।’’
वह किंचित मुस्काई, ‘‘अभी लाई।’’
पुत्रवधू नाश्ता लेने चली गई। ससुर ने एक दीर्घ उच्छ्वास लिया।
डॉ. अशोक भाटिया
अन्तिम कथा
रोज की तरह दोनों बच्चे कह रहे थे- दादाजी, इतनी देर हो गयी है। अब जल्दी कहानी सुनाओ।
दादा कहानी कहने लगे- एक राजा था- शिवि। वह बड़ा भला करने वाला था। एक दिन की बात है, वह आँगन में बैठा आराम कर रहा था। अचानक एक कबूतर तड़पता हुआ उसकी गोद में आ गिरा। पीछे-पीछे एक बाज भी आ गया। उसने कहा कि यह कबूतर मेरा शिकार है- इस पर मेरा हक है। राजा ने कहा कि- यह मेरी शरण में आया है- इसे नहीं दे सकता। तब बाज ने कहा कि- इस जितना मांस मुझे दे दो। राजा अपना मांस काटकर तौलने लगे। बहुत काटने पर भी जब मांस बराबर नहीं हुआ तो राजा खुद ही तराजू पर बैठने लगे। तभी भगवान परगट हुए और बोले....
बच्चों का मजा किरकिरा होने लगा था। एक बोला- ‘‘लेकिन दादाजी, आपके पास तो इतना मांस लगा है। क्या आपने कभी किसी कबूतर की जान नहीं बचायी?’’
दादा ने दूसरे पोते की तरफ देखा।
दूसरे ने कहा- ‘‘दादाजी, हमें तो भर-पेट रोटी भी नहीं मिलती। हमारी बाँहों पर मांस नहीं है। हम बड़े होकर किसी कबूतर की जान कैसे बचाएँगे?’’
दादा आकाश को देखने लगे थे। दोनों बच्चे उठकर जो गए तो आज तक उनसे कहानी सुनने नहीं आए।
सुभाष नीरव
सहयात्री
बस रुकी तो एक बूढ़ी बस में चढ़ी। सीट खाली न पाकर वह आगे ही खड़ी हो गयी। बस झटके के साथ चली तो वह लड़खड़ाकर गिर पड़ी। सीटों पर बैठे लोगों ने उसे गिरते हुए देखा। जब तक कोई उठकर उसे उठाता, वह उठी और पास की एक सीट को कसकर पकड़कर खड़ी हो गई।
जिस सीट के पास वह खड़ी थी, उस पर बैठे पुरुष ने उसे बस में चढ़ते, अपने पास खड़ा होते और गिरते देखा था। लेकिन अन्य बैठी सवारियों की भांति वह भी चुप्पी साधे बैठा रहा।
अब बूढ़ी मन ही मन बड़बड़ा रही थी, ‘‘कैसा जमाना आ गया है! बूढ़े लोगों पर भी लोग तरस नहीं खाते। इसे देखो, कैसे पसरकर बैठा है। शर्म नहीं आती, एक बूढ़ी-लाचार औरत पास में खड़ी है, लेकिन मजाल है कि कह दे, आओ माताजी, यहाँ बैठ जाओ....।’’
तभी, उसके मन ने कहा, ‘‘क्यों कुढ़ रही है?....क्या मालूम यह बीमार हो? अपाहिज हो? इसका सीट पर बैठना ज़रूरी हो।’’ इतना सोचते ही वह अपनी तकलीफ़ भूल गई। लेकिन, मन था कि वह कुछ देर बाद फिर कुढ़ने लगी, ‘‘क्या बस में बैठी सभी सवारियाँ बीमार-अपाहिज हैं?....दया-तरस नाम की तो कोई चीज़ रही ही नहीं।’’
इधर जब से वह बूढ़ी बस में चढ़ी थी, पास में बैठे पुरुष के अन्दर भी घमासान मचा हुआ था। बूढ़ी पर उसे दया आ रही थी। वह उसे सीट देने की सोच रहा था, पर मन था कि वहाँ से दूसरी ही आवाज निकलती, ‘‘क्यों उठ जाऊँ? सीट पाने के लिए तो वह एक स्टॉप पीछे से बस में चढ़ा है। सफ़र भी कोई छोटा नहीं है। पूरा सफ़र खड़े होकर यात्रा करना कितना कष्टप्रद है। और फिर, दूसरे भी तो देख रहे हैं, वे क्यों नहीं इस बूढ़ी को सीट दे देते?’’
इधर, बूढ़ी की कुढ़न जारी थी और उधर पुरुष के भीतर का द्वन्द्व। उसके लिए सीट पर बैठना कठिन हो रहा था। ‘‘क्या पता बेचारी बीमार हो?...शरीर में तो जान ही दिखाई नहीं देती। हड्डियों का पिंजर। न जाने कहाँ तक जाना है बेचारी को! तो क्या हुआ?...न, न! तुझे सीट से उठने की कोई ज़रूरत नहीं।’’
‘‘माताजी, आप बैठो।’’ आखिर वह उठ ही खड़ा हुआ। बूढ़ी ने पहले कुछ सोचा, फिर सीट पर सिकुड़कर बैठते हुए बोली, ‘‘तू भी आ जा पुत्तर, बैठ जा मेरे संग। थक जाएगा खड़े-खड़े।’’
डॉ. रामनिवास ‘मानव’
दर्द-बोध
मन में उनकी बुजुर्गी के प्रति पूरा सम्मान और सहानुभूति होने के बावजूद, अन्य परिजनों की भाँति, मैं भी उनसे तंग आ गया हूँ। वह सुबह-शाम ही हमारे घर आएँ तो कोई बात नहीं, लेकिन वह तो टी.वी. पर फ़िल्म या चित्रहार शुरू होता है, तो भी आ बैठते हैं। उनकी इन कार्यक्रमों में कोई रुचि नहीं है, अतः इधर-उधर की चर्चा शुरू कर देते हैं। व्यवधान के कारण हमारा खीझ और झुंझलाहट से भर उठना स्वाभाविक है। अतः मैंने मन-ही-मन निर्णय कर लिया कि आज वह आएँगे, तो तरीके से उन्हें ऐसे मौकों पर आने से मना कर दूँगा।
आज सुबह भी वह नियमित रूप से, निश्चित समय पर आए, लेकिन हमेशा के विपरीत उदास थे। अतः मेरे मन का भाव होठों तक आते-आते शिष्टाचार में बदल गया- ‘‘आज तो आप कुछ परेशान-से दिख रहे हैं। घर-परिवार में सब ठीक तो है?‘‘
‘‘रिटायरमेन्ट के बाद आदमी का जीवन भी कुछ नहीं है डॉ. शर्मा!’’ उनके दिल का दर्द छलक उठा था- ‘‘घर में रहो, ते बहू-बच्चों को परेशानी होती है और किसी के यहाँ जाओ, तो उन्हें। व्यर्थ में सारा दिन सड़कों पर भी घूमा नहीं जाता।’’
‘‘बात तो ठीक है आपकी, लेकिन दूसरों की भी अपनी रुचियाँ और मज़बूरियाँ होती हैं।’’ मैंने कहा।
‘‘इसीलिए सबके पास नहीं जाया जाता। दूसरे के दर्द को सब कहाँ समझ पाते हैं। एक आप से दिल से बातें कर लेता हूँ, सो चला आता हूँ। वरना आप भी बहुत व्यस्त आदमी हैं, आपको भी क्यों डिस्टर्ब किया जाए।’’
‘‘नहीं-नहीं, ऐसा क्यों सोचते हैं आप!’’ मैं पूर्व निर्णय का स्मरण आते ही, अपराध-बोध से भर गया था।- ‘‘यह आपका ही घर है, जब दिल करे, आ जाया करें, हमें कोई तकलीफ़ नहीं है।’’
श्यामसुन्दर अग्रवाल
बेटी का हिस्सा
उनके दोनों बेटों को ज़मीन-ज़ायदाद का बँटवारा करने में अधिक समय नहीं लगा। लेकिन वृद्ध माता-पिता का बँटवारा नहीं हो पा रहा था। कोई भी बेटा दोनों को अपने पास रखने को तैयार न था। दोनों बेटे चाहते थे कि एक भाई माँ को रखे, दूसरा पिता को। पिता का स्वास्थ्य अभी कुछ ठीक था, इसलिए उसे पास रखने को दोनों तैयार थे। बीमार माँ को कोई भी नहीं रखना चाहता था। पाँच-छः सौ रुपये महीने का तो उसकी दवा का खर्च ही था। बड़ा उसे इस शर्त पर रखने को तैयार था कि बदले में छोटा उसे पचास हजार रुपये दे।
दो दिन तक कोई फैसला नहीं हो पाया। माता-पिता भी बुढ़ापे में एक-दूसरे से अलग नहीं होना चाहते थे। तीसरे दिन उनकी विधवा बेटी आई। बहन को आई देख दोनों भाई स्तब्ध रह गए।
‘‘आज अचानक कैसे आना हुआ बहन?’’ बड़े ने पूछा।
‘‘अपना हिस्सा लेने आई हूँ।’’
‘‘तेरे लिए तो जीजा जी इतना छोड़ गए हैं कि सात जन्म....’’ छोटा बोला।
‘‘वही कुछ लेने आई हूँ जो तुम्हारे जीजा जी नहीं छोड़ गए।’’
और विधवा बेटी अपने हिस्से के रूप में वृद्ध माता-पिता को अपने साथ ले गई।
सुरेश शर्मा
पित्र-प्रेम
बेटे ने उनको साबुन से नहलाया। कपड़े बदले। पुत्र-बधू ने नाश्ते में हलुआ-दूध दिया, तो उनकी समझ में आ गया कि आज पेंशन मिलने का दिन है। हृष्ट-पुष्ट युवा पुत्र उनको गोद में उठाकर पेंशन खिड़की तक ले गया। पत्रक पर उनके नाम के सामने काँपता हाथ पकड़कर अँगूठा-निशान लगवाया। फिर नोट गिनकर प्रसन्न मुद्रा में जेब में रखते हुए पुत्र ने रिक्शे वाले से कहा, ‘‘पिताजी को आराम से घर छोड़ देना।’’
‘‘सुखी रहो बेटा! आज के जमाने में कौन बेटा, बूढ़े बाप का इतना ख्याल रखता है।’’ बढ़े ने आशीर्वाद दिया और बेटे ने काँपता शरीर रिक्शे में पटक दिया।
रामयतन यादव
चिट्ठी
बेटे-बहू के आगमन से माँ-बाप की आँखों में एक अजीब किस्म की खुशी चमकने लगी थी। आँखों में चमक पैदा होने की ठोस वजह थी, काफ़ी इन्तज़ार कराने के बाद बेटा अपनी पत्नी को साथ लेकर आज अचानक घर आया था। लेकिन यह क्या कि सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने जैसी स्थ्तिि पैदा हो गई। बेटा अभी तनिक सुस्ताया भी नहीं और खुशी से फूले न समा रही माँ के ऊपर ओले की तरह बरस पड़ा।
बोला, ‘‘माँ बुढ़ापे में पिताजी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है क्या?’’ बूढ़ी माँ को काटो तो खून नहीं। उसने घोर अचरज से बेटे-बहू को देखा, फिर बोली, ‘‘क्या बात हुई बेटा....अभी तो तू आया है, थोड़ा आराम कर ले....।’’
‘‘वो....वो तो ठीक है माँ....लेकिन पिताजी को पत्र लिखने की क्या जरूरत थी....मैं मरा तो नहीं जा रहा था।’’
‘‘माँ की आँखों में बादलों की तरह तैरता आश्चर्य और गहरा उठा। बोली, ‘‘क्या एक बाप अपने बेटे को चिट्ठी नहीं लिख सकता...!’’
‘‘लिख सकता है माँ, लेकिन....!’’
‘‘इसमें लेकिन-वेकिन क्या बेटा....?’’
‘‘माँ तुम नहीं समझोगी....वो चिट्ठी मेरे साहब के हाथ पड़ गई।’’
‘‘तो क्या हुआ?’’ माँ बोली- ‘‘क्या तेरे साहब को उनके पिता याद नहीं करते होंगे?’’
‘‘दरअसल बात यह है माँ....’’ बेटा झुंझलाया, ‘‘तुम नहीं समझोगी कि उस चिट्ठी की वजह से ऑफिस में मेरी कितनी फ़जीहत हुई।’’
माँ की आँखों में आश्चर्य के भाव कुछ और गहरा गए। उसने उत्सुकता से बेटे और बहू को देखा। तब बहू ने स्थिति स्पष्ट की- ‘‘माँ जी, बात यह है कि पिछले वर्ष गरमी में पिताजी की मृत्यु के बहाने हम लोगों ने एक महीने की छुट्टी ली थी और नैनीताल घूमने चले गए थे।’’
‘‘लेकिन पिताजी की चिट्ठी पढ़कर साहब ने मुझे बुरी तरह लताड़ा और एक महीने की पगार भी काट लिया।’’ बेटे ने अपनी बात पूरी की और सहानुभूति पाने के लिए माँ की आँखों में झाँका।
लेकिन माँ की वीरान और पथराई आँखें शून्य में टंगी थीं।
।।कथा प्रवाह।।
सामग्री : इस अंक में सर्व श्री (डॉ.) बलराम अग्रवाल, श्री प्रताप सिंह सोढ़ी, श्री पारस दासोत, (डॉ.) पृथ्वीराज अरोड़ा, (डॉ.) अशोक भाटिया, श्री सुभाष नीरव, (डॉ.) रामनिवास ‘मानव’, श्री श्यामसुन्दर अग्रवाल, श्री सुरेश शर्मा, श्री रामयतन यादव की लघुकथाएं।
बुजुर्ग जीवन की लघुकथाएँ
{गत वर्ष वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सुरेश शर्मा जी के सम्पादन में लघुकथा का महत्वपूर्ण संकलन ‘बुजुर्ग जीवन की लघुकथाएँ’ प्रकाशित हुआ था। देश भर के 77 प्रतिनिधि लघुकथाकारों की बुजुर्ग जीवन से सम्बन्धित लघुकथाएं एवं भूमिका के रूप में सुप्रसिद्ध लघुकथाकार एवं चिन्तक डॉ. बलराम अग्रवाल जी का लम्बा और महत्वपूर्ण आलेख ’समकालीन लघुकथा और बुजुर्गों की दुनियाँ’ इस संकलन में संकलित हैं, जिनमें अनेक लघुकथाएं बहुचर्चित एवं प्रभावशाली हैं। हम इस बार इसी संकलन से दस लघुकथाकारों की एक-एक लघुकथा पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहे हैं। भविष्य में इस संकलन से कुछ और लघुकथाकारों की लघुकथाएँ भी किसी अंक में प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। इन लघुकथाओं में सामयिक यथार्थ भी है और सकारात्मक दिशाबोद्ध भी।}
डॉ बलराम अग्रवाल
अज्ञात गमन
चौराहे के घंटाघर से दो बजने की आवाज़ घनघनाती है। बन्द कोठरी में लिहाफ़ के बीच लिपटे दिवाकर आँखें खोलकर जैसे अँधेरे में ही सब कुछ देख लेना चाहते हैं- दो जवान बेटों में से एक, बड़ा, अपनी शादी के तुरन्त बाद ही बहू को लेकर नौकरी पर चला गया था। राजी-खुशी के दो-चार पत्रों के बाद तीसरे ही महीने- ‘‘पूज्य पिताजी, बाहर रहकर इतने वेतन में निर्वाह करना कितना मुश्किल है। इस पर भी पिछले माह वेतन मिला नहीं। हो सके तो, कुछ रुपये खर्चे के लिए भेज दें। अगले कुछ महीनों में धीरे-धीरे लौटा दूँगा....’’ लिखा पत्र मिला।
रुपये तो दिवाकर क्या भेज पाते। बड़े की चतुराई भाँप उससे मदद की उम्मीद छोड़ बैठे। छोटा, उस समय कितना बिगड़ा था बड़े पर- ‘‘हद कर दी भैया ने, बीवी मिलते ही बाप को छोड़ बैठे।’’
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
.....कल सुबह, जब गिरवी रखे इस मकान से वह बेदख़ल कर दिए जाएँगे- घने अंधकार में डबडबाई आँखें खोले दिवाकर कठोरतापूर्वक सोचते हैं....अपने बेटों के पास दो पत्र लिखेंगे....यह कि अपने मकान से बेदखल हो जाने और उसके बाद कोई निश्चित पता-ठिकाना न होने के कारण आगे से उनके पत्रों को वह प्राप्त नहीं कर पाएँगे।
- एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली
प्रताप सिंह सोढ़ी
तस्वीर बदल गई
ड्राइंग रूम में दीवार घड़ी के पास ही स्व. पिताजी की तस्वीर पिछले दस वर्षों से टंगी थी। आते-जाते घड़ी देखते समय सुदर्शन पिताजी के दर्शन भी कर लेता था।
आज उसकी पुत्रवधू ने दीवारों के जाले साफ करते समय पिताजी की फोटो फर्श पर गिरा दी। तस्वीर में लगे काँच के टुकड़े इधर-उधर बिखर गए। काँच के टुकड़े समेट फेंकने से पूर्व उसकी पुत्रवधू बोली, ‘‘सॉरी पापा।’’
रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव |
संध्या समय जब वह ऑफिस से लौटा तो ड्राइंग रूम में प्रवेश करते ही उसकी नज़र दीवार घड़ी के पास टंगी तस्वीर पर पड़ी। उसे प्रशन्नता हुई कि जो काम उसे करना था, उसे उसके पुत्र ने कर दिया। पास आकर जब गौर से उसने देखा तो स्तब्ध रह गया। पिताजी की तस्वीर की जगह उसके पुत्र एवं पुत्रवधू की तस्वीर फ्रेम में जड़ी थी। फ्रेम वही थी, लेकिन तस्वीर बदल गई थी।
- 5, सुख-शान्ति नगर, बिचौली हप्सी रोड, इन्दौर-452016 (म.प्र.)
पारस दासोत
एक मूवी का ‘द एण्ड’
अपने बंगले के हॉल में बैठे,....
वे दोनों पति-पत्नी एक मूवी का आनन्द ले रहे थे। पास ही बरामदे में पड़ी बीमार वृद्ध माँ- ‘‘बेटा!...ओऽऽ....बेटा!’’ पुकारती....कराह रही थी। शायद उनको हार्ट-अटैक आया था।
‘‘बस..... थोड़ी ही देर में मूवी का एण्ड होने वाला है। हम इसका एण्ड तो देख लें!’’- बेटा अपनी माँ की पुकार सुन झल्लाया। वे अभी मूवी के एण्ड की ओर बढ़ रहे थे कि माँ घसिटती-घसिटाती टी.वी. के सामने पहुँच....देवलोक को प्राप्त हो गई।
- प्लाट नं.129, गली नं.9 (बी), मोती नगर, क्वींस रोड, वैशाली, जयपुर-21
डॉ. पृथ्वीराज अरोड़ा
बुनियाद
उसे दुःख हुआ कि पढ़ी-लिखी समझदार पुत्रवधू ने झूठ बोला था। वह सोचता रहा- क्यों झूठ बोला था उसने? क्या विवशता थी, जो उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा?
उसने पुत्रवधू को कुर्सी पर बैठने के लिए इंगित किया। वह बैठ गई। उसने कहा- ‘‘तुमसे एक बात पूछनी थी?’’
‘‘पूछिए पापा।’’
‘‘झिझकना नहीं।’’
‘‘पहले कभी झिझकी हूँ। आपने मुझे पूरे अधिकार दे रखे हैं, बेटी से भी बढ़कर।’’
‘‘थोड़ी देर पहले तुमने झूठ क्यों बोला? मुझे तो अभी नाश्ता करना है। तुमने मेरे नाश्ता कर लेने की बात कैसे कही?’’ उसने बिना कोई भूमिका बाँधे पूछा।
रेखांकन : किशोर श्रीवास्तव |
ससुर मुस्कराए। उसके सिर पर हाथ फेराकर बोले- ‘‘अच्छा किया। जा, मेरे लिए नाश्ता ला। बहुत भूख लगी है।’’
वह किंचित मुस्काई, ‘‘अभी लाई।’’
पुत्रवधू नाश्ता लेने चली गई। ससुर ने एक दीर्घ उच्छ्वास लिया।
- 1587, सेक्टर-7, करनाल (हरियाणा)
डॉ. अशोक भाटिया
अन्तिम कथा
रोज की तरह दोनों बच्चे कह रहे थे- दादाजी, इतनी देर हो गयी है। अब जल्दी कहानी सुनाओ।
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
बच्चों का मजा किरकिरा होने लगा था। एक बोला- ‘‘लेकिन दादाजी, आपके पास तो इतना मांस लगा है। क्या आपने कभी किसी कबूतर की जान नहीं बचायी?’’
दादा ने दूसरे पोते की तरफ देखा।
दूसरे ने कहा- ‘‘दादाजी, हमें तो भर-पेट रोटी भी नहीं मिलती। हमारी बाँहों पर मांस नहीं है। हम बड़े होकर किसी कबूतर की जान कैसे बचाएँगे?’’
दादा आकाश को देखने लगे थे। दोनों बच्चे उठकर जो गए तो आज तक उनसे कहानी सुनने नहीं आए।
- 1882, सेक्टर-13, अरबन स्टेट, करनाल-132001 (हरियाणा)
सुभाष नीरव
सहयात्री
बस रुकी तो एक बूढ़ी बस में चढ़ी। सीट खाली न पाकर वह आगे ही खड़ी हो गयी। बस झटके के साथ चली तो वह लड़खड़ाकर गिर पड़ी। सीटों पर बैठे लोगों ने उसे गिरते हुए देखा। जब तक कोई उठकर उसे उठाता, वह उठी और पास की एक सीट को कसकर पकड़कर खड़ी हो गई।
जिस सीट के पास वह खड़ी थी, उस पर बैठे पुरुष ने उसे बस में चढ़ते, अपने पास खड़ा होते और गिरते देखा था। लेकिन अन्य बैठी सवारियों की भांति वह भी चुप्पी साधे बैठा रहा।
अब बूढ़ी मन ही मन बड़बड़ा रही थी, ‘‘कैसा जमाना आ गया है! बूढ़े लोगों पर भी लोग तरस नहीं खाते। इसे देखो, कैसे पसरकर बैठा है। शर्म नहीं आती, एक बूढ़ी-लाचार औरत पास में खड़ी है, लेकिन मजाल है कि कह दे, आओ माताजी, यहाँ बैठ जाओ....।’’
तभी, उसके मन ने कहा, ‘‘क्यों कुढ़ रही है?....क्या मालूम यह बीमार हो? अपाहिज हो? इसका सीट पर बैठना ज़रूरी हो।’’ इतना सोचते ही वह अपनी तकलीफ़ भूल गई। लेकिन, मन था कि वह कुछ देर बाद फिर कुढ़ने लगी, ‘‘क्या बस में बैठी सभी सवारियाँ बीमार-अपाहिज हैं?....दया-तरस नाम की तो कोई चीज़ रही ही नहीं।’’
इधर जब से वह बूढ़ी बस में चढ़ी थी, पास में बैठे पुरुष के अन्दर भी घमासान मचा हुआ था। बूढ़ी पर उसे दया आ रही थी। वह उसे सीट देने की सोच रहा था, पर मन था कि वहाँ से दूसरी ही आवाज निकलती, ‘‘क्यों उठ जाऊँ? सीट पाने के लिए तो वह एक स्टॉप पीछे से बस में चढ़ा है। सफ़र भी कोई छोटा नहीं है। पूरा सफ़र खड़े होकर यात्रा करना कितना कष्टप्रद है। और फिर, दूसरे भी तो देख रहे हैं, वे क्यों नहीं इस बूढ़ी को सीट दे देते?’’
इधर, बूढ़ी की कुढ़न जारी थी और उधर पुरुष के भीतर का द्वन्द्व। उसके लिए सीट पर बैठना कठिन हो रहा था। ‘‘क्या पता बेचारी बीमार हो?...शरीर में तो जान ही दिखाई नहीं देती। हड्डियों का पिंजर। न जाने कहाँ तक जाना है बेचारी को! तो क्या हुआ?...न, न! तुझे सीट से उठने की कोई ज़रूरत नहीं।’’
‘‘माताजी, आप बैठो।’’ आखिर वह उठ ही खड़ा हुआ। बूढ़ी ने पहले कुछ सोचा, फिर सीट पर सिकुड़कर बैठते हुए बोली, ‘‘तू भी आ जा पुत्तर, बैठ जा मेरे संग। थक जाएगा खड़े-खड़े।’’
- 372, टाइप-4, लक्ष्मीबाई नगर, नई दिल्ली-110023
डॉ. रामनिवास ‘मानव’
दर्द-बोध
मन में उनकी बुजुर्गी के प्रति पूरा सम्मान और सहानुभूति होने के बावजूद, अन्य परिजनों की भाँति, मैं भी उनसे तंग आ गया हूँ। वह सुबह-शाम ही हमारे घर आएँ तो कोई बात नहीं, लेकिन वह तो टी.वी. पर फ़िल्म या चित्रहार शुरू होता है, तो भी आ बैठते हैं। उनकी इन कार्यक्रमों में कोई रुचि नहीं है, अतः इधर-उधर की चर्चा शुरू कर देते हैं। व्यवधान के कारण हमारा खीझ और झुंझलाहट से भर उठना स्वाभाविक है। अतः मैंने मन-ही-मन निर्णय कर लिया कि आज वह आएँगे, तो तरीके से उन्हें ऐसे मौकों पर आने से मना कर दूँगा।
आज सुबह भी वह नियमित रूप से, निश्चित समय पर आए, लेकिन हमेशा के विपरीत उदास थे। अतः मेरे मन का भाव होठों तक आते-आते शिष्टाचार में बदल गया- ‘‘आज तो आप कुछ परेशान-से दिख रहे हैं। घर-परिवार में सब ठीक तो है?‘‘
‘‘रिटायरमेन्ट के बाद आदमी का जीवन भी कुछ नहीं है डॉ. शर्मा!’’ उनके दिल का दर्द छलक उठा था- ‘‘घर में रहो, ते बहू-बच्चों को परेशानी होती है और किसी के यहाँ जाओ, तो उन्हें। व्यर्थ में सारा दिन सड़कों पर भी घूमा नहीं जाता।’’
‘‘बात तो ठीक है आपकी, लेकिन दूसरों की भी अपनी रुचियाँ और मज़बूरियाँ होती हैं।’’ मैंने कहा।
‘‘इसीलिए सबके पास नहीं जाया जाता। दूसरे के दर्द को सब कहाँ समझ पाते हैं। एक आप से दिल से बातें कर लेता हूँ, सो चला आता हूँ। वरना आप भी बहुत व्यस्त आदमी हैं, आपको भी क्यों डिस्टर्ब किया जाए।’’
‘‘नहीं-नहीं, ऐसा क्यों सोचते हैं आप!’’ मैं पूर्व निर्णय का स्मरण आते ही, अपराध-बोध से भर गया था।- ‘‘यह आपका ही घर है, जब दिल करे, आ जाया करें, हमें कोई तकलीफ़ नहीं है।’’
- 706, सेक्टर-13, हिसार-125005 (हरियाणा)
श्यामसुन्दर अग्रवाल
बेटी का हिस्सा
उनके दोनों बेटों को ज़मीन-ज़ायदाद का बँटवारा करने में अधिक समय नहीं लगा। लेकिन वृद्ध माता-पिता का बँटवारा नहीं हो पा रहा था। कोई भी बेटा दोनों को अपने पास रखने को तैयार न था। दोनों बेटे चाहते थे कि एक भाई माँ को रखे, दूसरा पिता को। पिता का स्वास्थ्य अभी कुछ ठीक था, इसलिए उसे पास रखने को दोनों तैयार थे। बीमार माँ को कोई भी नहीं रखना चाहता था। पाँच-छः सौ रुपये महीने का तो उसकी दवा का खर्च ही था। बड़ा उसे इस शर्त पर रखने को तैयार था कि बदले में छोटा उसे पचास हजार रुपये दे।
दो दिन तक कोई फैसला नहीं हो पाया। माता-पिता भी बुढ़ापे में एक-दूसरे से अलग नहीं होना चाहते थे। तीसरे दिन उनकी विधवा बेटी आई। बहन को आई देख दोनों भाई स्तब्ध रह गए।
‘‘आज अचानक कैसे आना हुआ बहन?’’ बड़े ने पूछा।
‘‘अपना हिस्सा लेने आई हूँ।’’
‘‘तेरे लिए तो जीजा जी इतना छोड़ गए हैं कि सात जन्म....’’ छोटा बोला।
‘‘वही कुछ लेने आई हूँ जो तुम्हारे जीजा जी नहीं छोड़ गए।’’
और विधवा बेटी अपने हिस्से के रूप में वृद्ध माता-पिता को अपने साथ ले गई।
- 575, गली नं.5, प्रतापनगर, पो.बा. नं. 44, कोटकपूरा-151204, पंजाब
सुरेश शर्मा
पित्र-प्रेम
बेटे ने उनको साबुन से नहलाया। कपड़े बदले। पुत्र-बधू ने नाश्ते में हलुआ-दूध दिया, तो उनकी समझ में आ गया कि आज पेंशन मिलने का दिन है। हृष्ट-पुष्ट युवा पुत्र उनको गोद में उठाकर पेंशन खिड़की तक ले गया। पत्रक पर उनके नाम के सामने काँपता हाथ पकड़कर अँगूठा-निशान लगवाया। फिर नोट गिनकर प्रसन्न मुद्रा में जेब में रखते हुए पुत्र ने रिक्शे वाले से कहा, ‘‘पिताजी को आराम से घर छोड़ देना।’’
‘‘सुखी रहो बेटा! आज के जमाने में कौन बेटा, बूढ़े बाप का इतना ख्याल रखता है।’’ बढ़े ने आशीर्वाद दिया और बेटे ने काँपता शरीर रिक्शे में पटक दिया।
- 235, क्लर्क कॉलोनी, इन्दौर-452011, म.प्र.
रामयतन यादव
चिट्ठी
बेटे-बहू के आगमन से माँ-बाप की आँखों में एक अजीब किस्म की खुशी चमकने लगी थी। आँखों में चमक पैदा होने की ठोस वजह थी, काफ़ी इन्तज़ार कराने के बाद बेटा अपनी पत्नी को साथ लेकर आज अचानक घर आया था। लेकिन यह क्या कि सिर मुंड़ाते ही ओले पड़ने जैसी स्थ्तिि पैदा हो गई। बेटा अभी तनिक सुस्ताया भी नहीं और खुशी से फूले न समा रही माँ के ऊपर ओले की तरह बरस पड़ा।
बोला, ‘‘माँ बुढ़ापे में पिताजी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है क्या?’’ बूढ़ी माँ को काटो तो खून नहीं। उसने घोर अचरज से बेटे-बहू को देखा, फिर बोली, ‘‘क्या बात हुई बेटा....अभी तो तू आया है, थोड़ा आराम कर ले....।’’
‘‘वो....वो तो ठीक है माँ....लेकिन पिताजी को पत्र लिखने की क्या जरूरत थी....मैं मरा तो नहीं जा रहा था।’’
‘‘माँ की आँखों में बादलों की तरह तैरता आश्चर्य और गहरा उठा। बोली, ‘‘क्या एक बाप अपने बेटे को चिट्ठी नहीं लिख सकता...!’’
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
‘‘इसमें लेकिन-वेकिन क्या बेटा....?’’
‘‘माँ तुम नहीं समझोगी....वो चिट्ठी मेरे साहब के हाथ पड़ गई।’’
‘‘तो क्या हुआ?’’ माँ बोली- ‘‘क्या तेरे साहब को उनके पिता याद नहीं करते होंगे?’’
‘‘दरअसल बात यह है माँ....’’ बेटा झुंझलाया, ‘‘तुम नहीं समझोगी कि उस चिट्ठी की वजह से ऑफिस में मेरी कितनी फ़जीहत हुई।’’
माँ की आँखों में आश्चर्य के भाव कुछ और गहरा गए। उसने उत्सुकता से बेटे और बहू को देखा। तब बहू ने स्थिति स्पष्ट की- ‘‘माँ जी, बात यह है कि पिछले वर्ष गरमी में पिताजी की मृत्यु के बहाने हम लोगों ने एक महीने की छुट्टी ली थी और नैनीताल घूमने चले गए थे।’’
‘‘लेकिन पिताजी की चिट्ठी पढ़कर साहब ने मुझे बुरी तरह लताड़ा और एक महीने की पगार भी काट लिया।’’ बेटे ने अपनी बात पूरी की और सहानुभूति पाने के लिए माँ की आँखों में झाँका।
लेकिन माँ की वीरान और पथराई आँखें शून्य में टंगी थीं।
- ग्राम-मकसूदपुर, पोस्ट-फतुहा, जिला-पटना- 803201 (बिहार)
Bujurg jivan ki sabhi L.k. achchi hai .Agyat gaman (balram agrawal)Beti ka hissa(shyam sundar agrawal)Chitthi (yadav) aur Buniyad (prithvi raj)ki L.k. vishesh roop se achchi lagi .badhai.
जवाब देंहटाएंBujurg jivan ki sabhi L.k. achchi hai .Agyat gaman (balram agrawal)Beti ka hissa(shyam sundar agrawal)Chitthi (yadav) aur Buniyad (prithvi raj)ki L.k. vishesh roop se achchi lagi .badhai.
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