अविराम साहित्यिकी
(समग्र साहित्य की समकालीन त्रैमासिक पत्रिका)
खंड (वर्ष) : 1/ अंक : 2 / जुलाई-सितम्बर 2012
इस अंक में तांका पर सामग्री के विशेष संपादक : श्री रामेश्वर कम्बोज 'हिमांशु'
अंक सम्पादक : डा. उमेश महादोषी
सम्पादन परामर्श : सुरेश सपन
मुद्रण सहयोगी : पवन कुमार
अविराम का यह मुद्रित अंक रचनाकारों व सभी सम्बंधित मित्रों-पाठकों को 25 अगस्त 2012 तक भेजा जा चुका है। कृपया अंक प्राप्त होने की प्रतीक्षा 10 सितम्बर 2012 तक करने के बाद ही न मिलने पर पुन: प्रति भेजने का आग्रह करें। अपरिहार्य कारणों से इस अंक को अंक-दो घोषित करना पड़ा है। पत्रिका पूरी तरह अव्यवसायिक है, किसी भी प्रकाशित रचना एवं अन्य सामग्री पर पारिश्रमिक नहीं दिया जाता है। इस मुद्रित अंक में शामिल रचना सामग्री और रचनाकारों का विवरण निम्न प्रकार है-
।।सामग्री।।
प्रस्तुति : प्र. संपादिका मध्यमा गुप्ता का पन्ना (आवरण 2)।
लघुकथा के स्तम्भ : डॉ. कमल चोपड़ा (3), डॉ. सतीश राज पुष्करणा (6) व डॉ. रामकुमार घोटड़ (9)।
अनवरत-1 : राजाराम भादू (11),लाखन सिंह भदौरिया ‘सौमित्र’ व डॉ. श्याम सखा ‘श्याम’ (12), जितेन्द्र जौहर (13), महेश चंद्र पुनेठा (14), किशन कबीरा व डॉ0 ब्रह्मजीत गौतम (15) शशिभूषण बड़ोनीे व प्रो. मृत्युंजय उपाध्याय (16), अवनीश सिंह चौहान व संतोष सुपेकर (17), प्रो. विनोद अश्क व डॉ.डी.एम.मिश्र (18) एवं केशव शरण व अंकिता पंवार (19) की काव्य रचनाएँ।
कथा-कहानी : मनीष कुमार सिंह की कहानी ‘मेरे शहर के परिचित’ (20)।
कविता के हस्ताक्षर : अमरेन्द्र सुमन (26) एवं गणेश भारद्वाज ग़नी (28)।
विमर्श : भगवान अटलानी का आलेख- ‘छोटे कद का बड़ा आदमी कमलेश्वर’ (30)/ चित्रकार बी. मोहन नेगी जी के साथ शशि भूषण बड़ोनी की बातचीत- ‘प्रकृति ही मेरी कला की प्रेरक है: बी. मोहन नेगी’ (32) एवं सूर्यकान्त श्रीवास्तव का आलेख- ‘त्रिदल अभिव्यक्ति: एक सार्थक अभिव्यक्ति’ (35)।
आहट : डॉ. सुरेन्द्र वर्मा, शिव डोयले एवं चक्रधर शुक्ल की क्षणिकाएँ (37)।
व्यंग्य-वाण : डॉ. गोपाल बाबू शर्मा का व्यंग्यालेख (38)।
जनक छन्द : डॉ. ओम्प्रकाश भाटिया ‘अराज’ के जनक छन्द (39)।
कथा प्रवाह : डॉ. सतीश दुबे (40), पारस दासोत व अंकु श्री (41), सत्य शुचि (42), दिलीप भटिया व पंकज शर्मा (43), बालकृष्ण गुप्ता ‘गुरु’ (44) एवं डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’ व आकांक्षा यादव (45) की लघुकथाएँ।
अनवरत-2 : डॉ. रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ (46), हितेश व्यास व विज्ञान व्रत (47),मधुर गंजमुरादाबादी व डॉ. सुरेश सपन (48), ज्ञानेन्द्र साज व विनय सागर (49) एवं डॉ. मधुर नज्मी व कृष्ण स्वरूप शर्मा ‘मैथिलेन्द्र’ (50) की काव्य रचनाएँ।
किताबें : समय-सापेक्ष लघुकथाएं: डॉ. उमेश महादोषी द्वारा डॉ॰ सतीश दुबे जी की लघुकथा पुस्तक ‘बूँद से समुद्र तक’ (51) एवं बोल कि सच अभी जिन्दा है: राणा प्रताप द्वारा कपिलेश भोज के कविता संग्रह ‘यह जो वक्त है’ (53) की संक्षिप्त समीक्षाएँ।
सन्दर्भ : विशेष सम्पादक श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ द्वारा प्रस्तुत व सम्पादित ताँका पर सामग्री- एक आलेख एवं 22 कवियों के चयनित ताँका। (54-66)।
चिट्ठियाँ : अविराम के गत अंक पर प्रतिक्रियाएँ।(67)।
हमारे युवा : सोशल एक्टिविस्ट आशुतोष कुमार व नवीन कुमार नीरज (69)।
गतिविधियाँ : संक्षिप्त साहित्यिक समाचार (70)।
प्राप्ति स्वीकार : त्रैमास में प्राप्त विविध प्रकाशनों की सूचना (72)।
इस अंक की साफ्ट (पीडीऍफ़) प्रति ई मेल (umeshmahadoshi@gmail.com) अथवा (aviramsahityaki@gmail.com) से मंगायी जा सकती है।
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अविराम साहित्यिकी अंक जुलाई-सितम्बर 2012 पर प्राप्त पत्रों के अंश
जवाब देंहटाएंडॉ.सुधा गुप्ता, 120-बी/2, साकेत, मेरठ (उ.प्र.)
.....अंक बहुत ही सुरुचिपूर्ण एवे स्तरीय बना है।....आप दोनों निरन्तर कठिन परिश्रम कर के प्रत्येक अंक का सम्पादन करते हैं। मैं पत्रिका के भविष्य के प्रति पूर्णतः आश्वस्त हूँ। मध्यमा जी का सम्पादकीय ढेर-सी सूचनाओं को लिए है। ‘अविराम’ की स्थायी निधि बनाने वाला विचार अत्युत्तम है और कोई भी पत्रिका तभी जीवित (दीर्घकालीन यात्रा) रह सकती है जब आर्थिक स्थायत्व हो, अन्यथा आप देख ही रहे हैं कि लोग बड़े उत्साह से पत्रिका आरम्भ कर देते हैं किन्तु अर्थाभाव से एक-दो अंक निकाल कर चुप्पी साधनी पड़ जाती है। आप लोगों का श्रम सार्थक होगा, पत्रिका अवश्य प्रकाशित होती रहेगी। मेरी शुभकामनाएँ। इस अंक में श्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ द्वारा सम्पादित ‘ताँका’ प्रस्तुति अंक की उल्लेखनीय उपलब्धि रही। ‘किताबें’ के अन्तर्गत डॉ. महादोषी का आलेख ‘समय सापेक्ष लघुकथाएँ’ भी सारगर्भित और सूचनाप्रद है।....
भगवान अटलानी, डी-183, मालवीय नगर, जयपुर-302017 (राज.)
.....‘अविराम साहित्यिकी’ का सुसम्पादित जुलाई-सितम्बर 2012 अंक मिला।...... पत्रिका स्तरीय हो, सामग्री पठनीय हो तो लेखकीय सहयोग के लिये हृदय स्वयमेव प्रफुल्लित महसूस करता है।....
सुरेन्द्र दीप, 89/293, बॉगुड़ पार्क, रिसड़ा-712248 (प.बं.)
......अविराम का दिसम्बर 12 अंक लघुकथा पर, वह भी श्री बलराम अग्रवाल के संपादन में, केन्द्रित करने जा रही हैं, यह एक अच्छा प्रयास है। आपने अपने संपादकीय में जो चिन्ता व्यक्त की है, उससे मैं भी दो-चार हो चुका हूँ। दोष लेखकों पर भी नहीं डाला जा सकता। एक तो वह लिखते हैं, रचनाएं भेजते हैं। बदले में उन्हें क्या मिलता है? दूसरी तरफ संपादक अपने पॉकेट से पत्रिकाएं निकालते हैं, उन्हें उनका डाक-खर्च भी नहीं मिलता। दोषी समाज है जिसमें पत्रिकाएं खरीद कर पढ़ने की संस्कृति नहीं है। समाज का कहना है कि मैंने थोड़े ही आपको पत्रिका निकालने को कहा है। मुझे जो पसन्द है, वह हम पढ़ते हैं। ऐसे में क्या किया जाए? पत्रिका निकालना एक पागलपन है जो हम करने को स्वभाव से बाध्य हैं? ई मेल से रचनाएं पर संपादक उत्तर नहीं देते। ऐसा अविराम के साथ तो नहीं है?...
राजमणि राय ‘मणि’, उत्तरी धमोन पट्टी, वाया महनार, जिला समस्तीपुर (बिहार)
.....पत्रिका समय की मांग पूरी करती है। लघुकथाओं का सिलसिला एक अलग वजूद पैदा करता है। लेकिन जिन लघुआकारीय काव्य रचनाओं को संजोया गया, उनसे काव्य-साहित्य का भविष्य लड़खड़ाता सा लग रहा है। जो भी हो, पत्रिका तब भी मन और .... दोनों को कसके पकड़ती है।.....
उदय करण ‘सुमन’, सुमन सेवा सदन, रायसिंहनगर-335051, जिला श्रीगंगानगर (राज.)
.....अविराम कहीं से विराम जैसा नहीं लगा। स्वच्छ, निर्मल, निर्झर सा बहता हुआ, अविरल अविराम हो जैसे। लघु पत्रिका होने के बावजूद आपने साहित्य की सभी विधाओं से पठनीय स्तरीय रचनाएं प्रकाशित करने का स्तुत्य प्रयास किया है। सम्भव हो तो अक्षरों को थोड़ा बड़ा आकार दो।....
डॉ. सेवाराम त्रिपाठी, रजनीगंधा-6, शिल्पी उपवन, श्रीयुत्नगर, रीवा-486002 (म.प्र.)
.....पत्रिका मुझे मिल रही है। इस पत्रिका में छोटे-बड़े विषयों को केन्द्र में रखकर रचनाओं का प्रकाशन होता है। बड़ी पत्रिकाओं में बड़ी रचनायें छपती हैं। आपने लघु आकार की रचनाओं को अपने कलेवर के अनुरूप प्रकाशन की प्रतिज्ञा की है। स्तरीयता का ध्यान रखा जायेगा तो पत्रिका और विकसित होगी।.....
अशोक अंजुम, स्ट्रीट-2, चन्द्रविहार कॉलोनी (नगला डालचन्द), क्वारसी बाईपास, अलीगढ़ (उ.प्र.)
.....आप इस लघुआकार पत्रिका को सामग्री के प्रस्तुतिकरण और चयन द्वारा खासा वैराट्य दे देते हैं। अंक में तमाम रचनाएँ मर्मस्पर्शी हैं। लघु परिचय के साथ रचना को परोसना अच्छा लगता है।....
रामेश्वर प्रसाद गुप्त ‘इन्दु’, इन्दु साहित्य सदन, बड़ागाँव, झाँसी-248121 (उ.प्र.)
.....पत्रिका काफी साफपत्रिका में प्रकाशित सभी रचनायें स्तरीय, ज्ञानवर्धक व मनमोहक हैं। इस अंक में ताँका पर सामग्री रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ की पढ़ी। बेहद पसन्द आई। नये छन्द से जुड़ने का मौका मिला।....
डॉ.सेराज खान बातिश, 3-बी, बंगाली शाह वारसी लेन, दूसरा तल, फ्लैट नं.4, खिदिरपुर, कलकत्ता-700023 (प.बं.)
.....साहित्य की समस्त विधाओं को समेटे यह साहित्यिकी कभी-कभी हमें आश्चर्य में डाल देती है। लेखकों की तस्वीरें, परिचय, रचनाओं के साथ रेखांकन, भई हर अंक का यज्ञ सा लगता है। मुख्यतः लघु रचनाओं को बेहतर प्रदर्शित करने वाली यह साहित्यिक पत्रिका कथा-कहानी, और गंभीर लेखों को भी प्राथमिकता देती है। इस अंक में भी मनीष कुमार सिंह की कहानी ‘मेरे शहर के परिचित’ और कमलेश्वर पर भगवान अटलानी का लेख पठनीय है।....
महावीर रंवाल्टा, ‘संभावना’द्व महरगांव, पोस्ट मोल्टाड़ी, पुरोला, उत्तरकाशी-249185 (उ.खंड)
जवाब देंहटाएं.....पत्रिका की सामग्री आश्वस्त करती है। जुलाई-सितम्बर 2012 में श्रद्धेय बी.मोहन नेगी जी का साक्षात्कार छापकर आपने सराहनीय कार्य किया है। वे हमारे समय के बहुत बड़े चित्रकार हैं। इससे कहीं बड़ी बात वे बराबर अच्छी पत्र-पत्रिकाओं के पाठक हैं। मैं उनका स्थायी प्रशंसक हूँ। जितने बड़े कलाकार, कहीं उससे बड़े इंसान हैं नेगी जी। उनके साथ कुछ समय गुजारने का अवसर मिले तो ऐसे प्रतिभाशाली कलाकार को मेरा भी प्रणाम!....
हितेश व्यास, 1-मारुति कॉलोनी, नयापुरा, कोटा-324001 (राज.)
जवाब देंहटाएं......आप दोनों परिश्रम पूर्वक यह पत्रिका निकाल रहे हैं। दोनों साधुवाद के पात्र हैं। निशुल्क पत्रिका को सशुल्क करने के बाद आपने पृष्ठों में भी इजाफा किया है। आपका कष्ट बढ़ गया है। इससे बड़ी बात कि अधिक से अधिक सामग्री देने की आपकी चेष्टा। ये 76 पृष्ठीय सामग्री आराम से 100 पृष्ठों में पसर सकती थी। मैं अपने पत्र की शुरूआत असहमति से करना चाहता हूँ। 1916 में निराला ने जूही की कली लिखकर छन्द के बन्ध तोड़ दिये। जापान का हाइकू हिन्दी में आया। ढेर सारे संकलन निकल गए। तीन पगों से बह्माण्ड नापने वाले वामन का अवतार समझ लिया हाइकूकारों ने स्वयं को। तीन पंक्तियों के इस छन्द ने कभी आनन्दित नहीं किया, प्रभावित करना तो दूर की बात है। अब काम्बोज जापानी से ताँका लाये हैं। आठवीं सदी का छन्द, पाँच पंक्तियों का छन्द, आपने इतने पृष्ठ दे दिये हैं। काम्बोज निकालें ताँका नाम से पत्रिका और चलाएँ अपना सम्प्रदाय। डॉ. अराज फिर पीछे क्यों रहते, उन्होंने जनक छन्द का आविष्कार कर डाला। पूरा संविधान बना डाला। काम्बोज तांका का इतिहास ले आये। छन्दो की बाजीगरी हो गई। अज्ञेय को ही लीजिये, मध्य प्रदेश के 6 कवियों ने अपनी कविताएं संकलित कीं और अनुभवी जानकर अज्ञेय को (जो पंजाबी थे) संपादन दे दिया। अज्ञेय प्रयोगवाद के प्रवर्तक बन बैठे और सप्तकों की श्रंखला बना दी। पर इससे क्या हुआ? क्या वे बड़े कवि बन गये? कभी भी स्वयं को मुक्तिबोध से बड़ी रेखा नहीं बना पाए। आज तक युद्ध जारी है। अभी-अभी जनसत्ता के संपादक ओम थानवी ने अज्ञेय के 100 संस्मरणों की किताब ‘अपने-अपने अज्ञेय’ निकाली है। मैं अपने मूल विषय पर लौटता हूँ। प्रतिभा की कमी होती है तो प्रयोग होते हैं। जो है उसमें प्रतिभा दिखलाइये। जो नहीं है उसका प्रयोग मत कीजिए। इसके जवाब में आप कहेंगे कि जिसमें प्रतिभा होगी, वही तो प्रयोग करेगा। परन्तु प्रयोग में प्रतिभा तो प्रकट कीजिए। गीतिका नाम दिया, तेवरी निकली पर बची तो ग़ज़ल ही। अविराम साहित्यिकी को जनक छन्द, हाइकू, ताँका का अखाड़ा मत बनाइये। इन आयातित छन्दों को अपनी मौत मरने दीजिए। पत्रिका को बोझिल मत बनाइये।
(अंक संपादक उमेश महादोषी की टिप्पणी: आदरणीय हितेश जी, मनोबल बढ़ाने के लिए आपका धन्यवाद! आप हमारे लिए एक साहित्यिकार और एक पाठक के साथ एक अग्रज के रूप में हमेशा सम्माननीय रहे हैं और रहेंगे। पर बात साहित्यिक असहमति की है, तो अपनी बात भी आपके समक्ष रखना उतना ही औचित्यपूर्ण लग रहा है, जितना आपकी बात को सुनना। किताबों में पढ़ा है कि जब गोस्वामी तुलसीदास ने ‘रामचरित मानस’ लिखा था, तो उनका उनके समकालीनों ने इतना विरोध किया था कि मूल प्रति को ही चुराकर नष्ट करने की कोशिश की गई थी। कारण जो भी थे, पर एक बात तय है कि ‘रामचरित मानस’ के रूप में एक नया प्रयोग हुआ था, जो तब के स्थापित पिताओं को मंजूर नहीं था। पर हुआ क्या....? ‘रामचरित मानस’ आज भी जिन्दा है और न जाने कब तक रहेगा भी! आप कहते हैं कि ‘गीतिका नाम दिया, तेवरी निकली पर बची तो ग़ज़ल ही।’ कई ग़ज़लकारों को लगता है कि ‘ग़ज़ल कितनी ग़ज़ल रह गई है।’ यहाँ तक कि हर किसी के ग़ज़लकार बन जाने के ताने भी कसे जाते हैं। ग़ज़ल की तरह ‘गीतिका’ और ‘तेवरी’ भी तीन ही वर्णों की संज्ञाएँ हैं, पर बहुत सारे मित्र ग़ज़ल के तीन वर्णों के साथ ‘हिन्दी’ के दो वर्ण और जोड़कर पाँच वर्ण बोलने का कष्ट उठाना चाहते हैं तो इसमें प्रयोग के पीछे प्रतिभा की कमी नहीं, साहस की कमी है। उर्दू वाले ग़ज़ल के पैमाना (उर्दू व्याकरण) और पैमाना (माधुर्य) दिखाकर अपनी मूल पहचान प्रदर्शित करते हैं, पर हिन्दी वाले अपने अपेक्षाकृत अधिक वैज्ञानिक पैमाना (हिन्दी व्याकरण) और सामयिक पैमाना (समकालीन तेवरों) वाले अपने प्रयोग को पहचान नहीं देना चाहते तो इसमें डॉ. देवराज, डॉ. ऋषभ देव शर्मा, रमेश राज आदि का इतना ही कसूर हो सकता है कि अभी उन्हें महापुरुषों का दर्जा नही मिला है। वक्त की पुकार को बुलन्द आवाज देकर भी ये लोग समर्थन नहीं जुटा पाये तो इससे तेवरी ग़ज़ल नहीं हो जायेगी। होगा यही कि आप तेवरी को ग़ज़ल कहते रहिए और ग़ज़ल वाले उसे खारिज करते रहें। भैंस और गाय दोनों दूध देती हैं, दोनों एक-सा खाती-पीती हैं, दोनों एक से वातावरण में पाली-पोसी जाती हैं पर गाय को सफेद या भूरी भैंस या भैंस को काली गाय नहीं कहा जाता।
.............इस टिपण्णी का शेष भाग अगली टिप्पणी में
प्रो हितेश व्यास जी के पत्र पर सम्पादकीय टिपण्णी (पिछली टिपण्णी) का शेष भाग क्रमश: ......
जवाब देंहटाएंअज्ञेय और मुक्तिबोध के प्रकरण पर बात लम्बी खिंच सकती है, पर इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि दो व्यक्ति हैं तो दोनों में कुछ तो अलग होगा ही। अब कौन बड़ा और कौन छोटा, इस अखाड़ेबाजी की जरूरत क्यों आ पड़ी? क्या दोनों नई कविता और प्रयोगों के समर्थक नहीं थे? ऐसा भी नहीं है कि एक की कविता कविता है और दूसरे की कुछ और? दोनों ने ही अपनी-अपनी तरह से हिंदी साहित्य को सम्रद्ध किया है। सूरदास ने कुछ लिखा, कबीर ने कुछ और। तो क्या एक कवि है और दूसरा नहीं है? ‘प्रतिभा की कमी होती है तो प्रयोग होते हैं।’ जैसे कथन का मैं मखौल उड़ाकर आपको अपमानित नहीं करूँगा, पर प्रयोग प्रतिभा की कमी से नहीं, प्रतिभा की समृद्धि से होते हैं। प्रयोगों की सफलता-असफलता निर्भर करती है दृष्टिकोंण की प्रकृति यानी सकारात्मकता और नकारात्मकता तथा निर्णय की समयबद्धता और सटीकता पर। किसी के अन्दर कम प्रतिभा होती है, किसी के अन्दर अधिक। जैसी जिसके अन्दर प्रतिभा होती है, वह वैसे ही प्रयोग करता है। प्रयोग होते रहे हैं और हमेशा होते रहेंगे। उन्हें कोई नहीं रोक सकता। प्रयोगों का न होना वक्त का ठहर जाना होगा। अच्छी प्रतिभा हर क्षेत्र में अच्छा कर दिखाती है। कथा साहित्य में प्रतिभा सिर्फ उपन्यास में ही नहीं, कहानी और लघुकथा में भी दिखाई देती है। बल्कि कहीं-अधिक दिखाई देती है। प्रतिभा दिखाने का तरीका पाँच दिवसीय, एक दिवसीय और 20-20 ओवर क्रिकेट मैचों में अलग-अलग होता है। आनन्द भी दोनों में आता है। फर्क दृष्टिकोंण और समझ का है। आप बहती धारा का विरोध करते हैं या साहसपूर्वक उसमें तैरने-उतराने का आनन्द लेते हैं, यह आप पर निर्भर करता है। साहित्य में जो लोग युद्ध लड़ने आए हैं, वे कितने सही हैं, यह विचारणीय है, पर मेरी दृष्टि में साहित्य युद्ध भड़काता नहीं समाधान देता है।
भाई हितेश जी, काम्बोज जी अविराम में ताँका पर सामग्री मेरे अनुरोध पर लेकर आए थे। आपकी दृष्टि में ताँका पर दिए 13 पृष्ठ मेरे द्वारा संसाधनों की बरवादी जैसा हो, पर अनेक लोग हैं, जिनके लिए यह एक स्वागतेय पहल रही है। जब तक मैंने अच्छे हाइकु व ताँका नहीं पढ़े थे, तब तक मैं भी इन छन्दों को पसन्द नहीं करता था। जब अच्छी रचनाएँ पढ़ने को मिलीं तो दृष्टिकोंण बदला। हर विधा में सभी रचनाएँ अच्छी और प्रभावशाली लिखी जा रहीं हैं, ऐसा दावा कोई नहीं कर सकता। पर किसी विधा का मूल्यांकन उसमें लिखी गई अच्छी रचनाओं को पढ़ने-समझने के बाद ही किया जा सकता है। मुक्तिबोध जी की इस मान्यता से आप भी शायद ही असहमत हों। आप स्वयं कवि हैं। यदि बिना किसी पूर्वाग्रह के उन 13 में से 11 पृष्ठों पर दिए 111 ताँकाओं को एक बार फिर से पढ़ेंगे, तो आपकी तमाम अनिच्छा के बावजूद कुछ न कुछ ताँका आपके कवि के अन्तर्मन का पल्लू पकडे़ नजर आयेंगे और आप पल्लू झटककर आगे नहीं बढ़ पायेंगे। सार्थकता प्रयोगों को नकारने में नहीं, उनमें सम्भावनाएँ तलाशने में है। निःसन्देह समय के सूप में वही टिका रहेगा, जिसमें कुछ वजन होगा। 111 ताँकाओं में से यदि आपको 110 अच्छे न भी लगें तो भी उनकी बजह से जो एक अच्छा लगे, उसे न स्वीकारना क्या औचित्यपूर्ण होगा? और क्या हिमांशु जी का यह ताँका वह एक नहीं हो सकता- ‘‘चिड़िया पूछे-/कहाँ है दाना-पानी/बड़ी हैरानी/फिर मैं कैसे गाऊँ?/आकर तुम्हें जगाऊँ’’)
डॉ. शिवभजन ‘कमलेश’, 558/72, सुन्दरनगर, आलमबाग, लखनऊ-226005 (उ.प्र.)
जवाब देंहटाएं.....प्रकाशित सामग्री में विविधता तो है ही, पर्याप्त स्तरीयता भी है। छोटे प्रिंट के कारण अधिक कुछ नहीं पढ़ पाता हूँ, बढ़ती उम्र का शायद प्रभाव है। एक प्रश्न और पीड़ा मुझे प्रायः उद्विग्न करते रहते हैं, वह यह कि हम अपनी छान्दसिक विधाओं से विमुख होते जा रहे हैं और विदेशी छन्दों को इतना महत्व दे रहे हैं, जिनमें मुझे न रस आता है, न हार्दिकता दिखाई देती है। क्या वाकई अपने छन्द विधान में कोई दम नहीं है, कोई सामर्थ्य नहीं। जबकि असंख्य छन्द और विधाएं अपने भारतीय छन्द शास्त्र में उपलब्ध हैं। आचार्यों की दी हुई इस धरोहर को अक्षुण्ण बनाए रखने का दायित्व हमारा नहीं है? यह मेरी पीड़ा बहस के लिए नहीं, ईमानदारी से विचार करने की है। अन्यथा न लें।
(अंक संपादक उमेश महादोषी की टिप्पणी: आद. कमलेश जी, निःसन्देह आज हमारी जमीन पर भी विदेशी छन्दों का स्वागत हो रहा है, पर ऐसा नहीं है कि हमारे अपने छन्दों का प्रतिकार हो रहा है। भारतीय छन्दों में भी दोहा, कुण्डलियाँ आदि आज लिखे जा रहे हैं और उन्हें सम्मान भी मिल रहा है। पर समय के साथ आने वाले परिवर्तनों को नकारा नहीं जा सकता। हाइकु व ताँका यदि हिन्दी में लिखे जा रहे हैं तो भारतीय परिवेश ही उनमें स्थान पा रहा है, विदेशी नहीं। हमारे अपने समकालीन जन-मानस की बात हो रही है इन छन्दों में। ऐसे में और वैश्विक व्यापकता के युग में इस बात को हम इस तरह भी स्वीकार कर सकते हैं कि हाइकु, ताँका की मार्फत हिन्दी साहित्य और हिन्दी जन-मानस का चित्र दूसरी भाषाओं/संस्कृतियों के लोगों तक पहुँचने का मार्ग भी प्रशस्त हो रहा है। हिन्दी साहित्य हो या कोई दूसरा साहित्य, हर विधा में सभी को समान रस या आनन्द प्राप्त हो, यह जरूरी नहीं। बहुत सारे लोग हैं जो हाइकु व ताँका में भरपूर रस और हार्दिकता देखते हैं। उनके लिए क्या कहा जाए? निःसन्देह हमें अपने बड़ों की धरोहर को सम्हालकर रखना चाहिए, पर मात्र धरोहर या परम्परा के सहारे समसामयिक उन्नत जीवनमूल्यों की कल्पना नहीं की जा सकती। जीवन में दूसरी चीजें भी मायने रखती हैं। कुछ लोग आज भी घनाक्षरी जैसा छन्द लिख रहे हैं, दोहा तो बड़ी संख्या में लिखा जा रहा है, दोहा पर आधारित कई नए छन्द भी आ रहे हैं, पर कहीं न कहीं हमारे जन-मानस की पीड़ा का ऐसा महत्वपूर्ण अंश है, जो इन छन्दों और कई छान्दसिक काव्य विधाओं में पूरी तरह प्रतिबिम्बित नहीं हो पा रहा है या प्रभाव की दृष्टि से कुछ रिक्तता छोड़ रहा है। इस रिक्तता को भरने के लिए नए माध्यम तो आयेंगे ही। उन्हें शंका की दृष्टि से देखने की बजाय पूरक के रूप में देखना ही उचित होगा। समय के साथ ऐसे माध्यम अपनी उपादेयता सिद्ध करेंगे तो टिकेंगे अन्यथा खुद-ब-खुद गायब हो जायेंगे। मुझे लगता है कि पीड़ा की बजाय धारा के साथ तैरने-उतराने का आनन्द ही विकल्प है।)
नरेन्द्र कुमार ‘राजपूत’, ग्राम व डाक कुरथल, जिला मुजफ्फरनगर (उ.प्र.)
जवाब देंहटाएं.....इस बार कविता के मामले में कुछ निराशा सी हुई। आजकल लोग बाग नयी नयी विधायें खोज रहे हैं कहीं हाइकू है कहीं ताँका ये न केवल काव्य धारा को कलुषित करने के उपकरण हैं बल्कि छन्द विधान की जटिलताओं से बचने के बहाने। सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ ने छन्दों का बन्धन तोड़कर अकविता का प्रचालन किया परन्तु उनमें एक गति एक प्रवाह के साथ उच्च कोटि की भाव व्यंजना का समावेश था परन्तु इस बहाने न जाने कितने लोग कवि बन गये हैं। चूकि न तुक की प्रवाह है न छन्दों का बन्धन अन्ड बन्ड लिखा और कविता तैयार मजे की बात ये है कि सम्पादक प्रकाशित भी इन्हें ही कर रहे हैं। एक तुकान्त रचना लिखते इनकी रूह काँपती है तो बनाने चले हैं हाइकू और ताँका। जिस तरह पोप म्युजिक ने भारतीय गीत संगीत की दुर्गति कर दी है इसी तरह इस तरह के साहित्यकारों ने कविता का बेड़ा गर्क कर दिया है। ये ताँका बाँका हाइकू जैसी रचनायें उनका पांडित्य प्रदर्शन है। कविता की मधुरता निरन्तरता व सोम्यता का नितान्त अभाव है। ईश्वर इन रचनाकारों को सद्बुद्धि दे।....
(अंक संपादक उमेश महादोषी की टिप्पणी: नरेन्द्र जी, अपनी ओर से यथासम्भव अच्छी रचनाएँ देने का ही प्रयास रहता है, जो लिखा जा रहा है, उसका सर्वश्रेष्ठ आप तक पहुँचाया है। सम्पर्क में आये किसी रचनाकार की अच्छी रचना उपेक्षित की हो, ऐसा दावा कोई न कर सकेगा। वे दो-चार मित्र भी नहीं, जो आपकी तरह पत्र नहीं लिखते, सिर्फ फोन पर अपनी निराशा व्यक्त करते हैं, पर जब उनसे उनकी अच्छी रचनाओं को भेजने का अनुरोध किया जाता है, तो हर तरह से निराशा ही हाथ लगती है। रचनाएँ न भेजें कोई बात नहीं, पर भेजी गई रचनाएँ कुछ ऐसी हों, जैसे अपने घर का कूड़ा ‘अविराम’ नाम की डस्टबिन में फेंक दिया गया हो, तो इसे आपकी भाषा में ‘अण्ड बण्ड’ कहना गलत होगा? आपको भी निराशा कविता, यानी कि सभी कविताओं के मामले में हुई, तो खिंचाई सिर्फ ताँका बाँका (हालांकि ‘बाँका’ जैसा कोई छन्द या विधा मैंने सुनी नहीं है) हाइकू यानी हाइकु पर ही क्यों? इस अंक के 76 पृष्ठों में ताँका पर काम्बोज जी के दो पृष्ठीय आलेख सहित 13 पृष्ठ की सामग्री है, जबकि अन्य काव्य रचनाएँ लगभग 20 पृष्ठों में हैं? लाखन सिंह भदौरिया जी के मुक्तक और प्रो. विनोद अश्क की ग़ज़ल पर आपने कुछ नहीं कहा? खैर! आपने लिखा है- ‘एक तुकान्त रचना लिखते इनकी रूह काँपती है...’। इस सन्दर्भ में वरिष्ठ गीतकार गोपालदास नीरज और डॉ. कुँअर बेचैन जैसे कवियों, जो हाइकुकार भी हैं, के बारे में भी क्या आपकी यही धारणा है? और क्या आपने डॉ. सुधा गुप्ता, रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’ जैसे हाइकु और ताँका के महत्वपूर्ण कवियों के समग्र काव्य साहित्य का अध्ययन करने के बाद यह धारणा बनाई है? किसी विधा का मूल्यांकन उसमें लिखी गई अच्छी रचनाओं को पढ़ने के बाद ही किया जा सकता है। भाई, कविता को परिभाषित करना इतना आसान नहीं है, उसके विस्तृत आयाम हैं, जिन्हें समझना जरूरी है। आपको जो पसन्द है, वही सब पसन्द करें, यह उसी तरह जरूरी नहीं है, जिस तरह आप दूसरों से सहमत होने को तैयार नहीं हैं।)
डॉ.प्रद्युम्न भल्ला, 508,सेक्टर 20, अर्बन एस्टेट, कैथल-136027 (हरि.)
जवाब देंहटाएं......प्रचुर मात्रा में स्तरीय सामग्री दी है आपने इस अंक में। पृष्ठ संख्या भी बढ़ा दी है। लघु-पत्रिकाओं की भीड़ में पत्रिका का अपना एक स्थान है। साधुवाद स्वीकारें।....
डॉ.बी.पी.दुबे, होटल के सामने, चौराहा, 5,सिविल लाइन्स, सागर-470001(म.प्र.)
......पत्रिका में स्तंभों की संतोषजनक पूर्ति करती हुई साहित्यिक सामग्री पत्रिका के नाम के अनुरूप पढ़कर ज्ञानवृद्धि हुई।...धन्यवाद।...
कृष्ण स्वरूप शर्मा ‘मैथिलेन्द्र’, गीतांजलि, म.आ.व.8, शिवाजीनगर उपनिवेशिका, नर्मदापुरम्-461001, होशंगाबाद(म.प्र.)
.....अविराम पत्रिका पठनीय लेख, कथा, कविता आदि से परिपूर्ण है। पत्रिका के अक्षर बहुत सूक्ष्म हैं। कृपया इनका आकार वृद्धि करें, ताकि सभी पढ़ सकें।....
गोविन्द चावला, 28-ए, दुर्गानगर, अम्बाला केन्ट (हरियाणा)
.....अंक प्राप्त हुआ। पढ़कर मन प्रशन्न हुआ। साहित्य सेवा का एक प्रशंसनीय प्रयास है।....
सुजीत आर. कर, टिकारापारा, दरोगापारा, रायगढ़-496001 (छ.गढ़)
.....‘अविराम साहित्यिकी’ पढ़ा। अच्छी रचनाओं का चुनाव और बेहतर संपादन की वजह से पत्रिका आकर्षित करती है।....
राम मूर्ति गौतम ‘गगन’, 253-ए, करुण कुंज, प्रह्लादनगर, मणिनाथ रोड, बरेली-243001(उ.प्र.)
.....‘अविराम साहित्यिकी’ त्रैमासिक अंक पाकर अतीव हर्ष की अनुभूति कर रहा हूँ। साधुवाद। विविध आयामों को अपने में समेटे अनुकरणीय एवं सराहनीय साहित्य परोसकर साहित्य जगत को एक अद्वितीय कृति से मुखर किया है। अविराम साहित्यिकी अपने नाम को और और और भी सार्थक करे तथा प्रभावी ज्योत्सना प्रदान करे। इसका साहित्य जगत अवश्य ही स्वागत करेगा।...
श्रीकान्त व्यास, पोस्ट बाक्स-16, जी.पी.ओ. पटना (बिहार)
.....प्रकाशित रचनाएं पसंद आई। पत्रिका सचमुच में ‘गागर में सागर’ वाली कहावत को चरितार्थ करती है। छोटी आकार वाली पत्रिका में ढेर सारी सामग्री परोसी गई है।....
शिवशंकर मिश्र, 403, लावण्या अपार्टमेंट, टैगोर हिल रोड, मोरहाबादी, राँची-834008 (झारखण्ड)
.....सामग्री कुल मिलाकर अच्छी है, प्रस्तुति पर भी थोड़ा समय लगाया जाए तो और अच्छा हो।...
रामेश्वर वैश्णव, 62/699, प्रोफेसर कॉलोनी, सड़क 3, सेक्टर 1, रायपुर-492001 (छ.गढ़)
.....लघु विधाओं का विराट प्लेटफार्म आपने रचनाकारों को उपलब्ध कराया है। ढेर सारे नये रचनाकार इसके माध्यम से साहित्य जगत से परिचित हुए हैं। पत्रिका सुरुचिपूर्ण एवं गरिमापूर्ण है।....
डॉ. जयपुरी अलवरी, दिल्ली स्वीट, सिरुगुप्पा-583121, जिला बल्लारी (कर्नाटका)
.....पत्रिका अविराम की प्रति प्राप्त। आभार। अध्ययन कर मन गद-गद हुआ। सभी लेख व रचनाएं श्रेष्ठ/स्तरीय हैं। घोर परिश्रम से किये सम्पादन के एक-एक पल को बधाई।...
डॉ. सुरेश प्रकाश शुक्ल, 554/93, पवनपुरी लेन 9, आलमबाग, लखनऊ-05 (उ.प्र.)
.....कुछ बहुत अच्छी और कुछ सामान्य रचनाएँ भी भाव प्रबल लगीं। यह जानकर अच्छा लगा कि अगला अंक लघुकथा विशेषांक रूप में आ रहा है।....
डॉ.नरेन्द्रनाथ लाहा, 27, ललितपुर कॉलोनी, डॉ.पी.एन. लाहा मार्ग, ग्वालियर (म.प्र.)
.....‘अविराम साहित्यिकी’ (जुलाई-सितम्बर 2012) की प्रति प्राप्त हुई। अच्छी लगी। सुन्दर साहित्यिक प्रयास हेतु बधाई। यात्रा जारी रखें। शुभकामनाएं।
शमीमुल कादरी स्योहारवी, धर्म वाच कं.,नाहिद सिनेमा, रेलवे बाजार, हल्द्वानी-263139 जिला नैनीताल(उ.खंड)
.....बहुत मुख़्तसर मगर बहुत मयारी और खूबसूरत अन्दाज से आप हज़रात ने तरतीब देकर तरकीब के साथ शाय फरमाये हैं।.....एक मशवरा देना चाहँूगा वह यह के आप कातिब से यह बात साफ़ लफ़्ज़ों में बता दें के वह तलफ़्फुज़ और रसमुख़लत पर बारीकी से नज़र रखें। चूकी कई जगह मैंने किताबत की व लफ़्ज़ी खामियाँ पायी हैं जो के नहीं होनी चाहिये। आपका जो कातिब वह उर्दू और हिन्दी शनास होना चाहिए जो के दोनों ज़बानों पर कमांड रखता हो।....और दोनों मिसरे शायर के शेर के बराबर लाइन हों दोनों छोटी बड़ी लाइनें ना जाये.....
पत्रिका अविराम सफर करे।
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