अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 1, अंक : 12, अगस्त 2012
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में श्री जितेन्द्र जौहर, प्रो. विनोद अश्क, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’, श्री अरविन्द कुमार वर्मा, श्री अक्षय गोजा, श्री प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, सुश्री सुमन शेखर, श्री जयसिंह आर्य ‘जय’ व श्री दिनेश कुमार छाजेड़ की कविताएँ।
जितेन्द्र ‘जौहर’
{चर्चित स्तम्भ ‘तीसरी आँख’ के स्तम्भकार, कवि-समीक्षक श्री जितेन्द्र जौहर जी एक बहुत अच्छे गीतकार भी हैं। विगत दिनों उनके ब्लाग ‘जौहरवाणी’ पर ‘हिन्द युग्म’ द्वारा पुरस्कृत उनके एक गीत पर दृष्टि पड़ी। ठेठ देहाती परिवेश के प्रतीकों के माध्यम से काफी हद तक देश की व्यवस्था का हाल बयां कर रहा उनका यह गीत हम अपने पाठकों के लिए भी प्रस्तुत कर रहे हैं।}
रज्जो की चिट्ठी
प्रो. विनोद अश्क
{वरिष्ठ कवि एवं शाइर प्रो. विनोद अश्क जी का गत वर्ष प्रकाशित काव्य संग्रह ‘तेरी आवाज़’ से प्रस्तुत है एक गीत एवं एक ग़ज़ल।}
गीत
और चाहे जो सज़ा दे लो मगर
तुम हमें सौगन्ध मत देना कभी।
अनछुए शब्दों से निकले रूप को
आवरण के वस्त्र में रखना प्रिये!
सर्वव्यापी सार की गहराइयां
दर्पणों के सामने चखना प्रिये!
मनखगों को बींध देगा बाण से
पर कोई प्रतिबन्ध मत देना कभी।
और चाहे जो....
धर्म में लिपटी कथायें क्या कहें
बस वही अच्छे बुरे का खेल सी।
पर तुम्हारी याद से उगती नदी
पूज्य जलधारों का जैसे मेल सी।
जब मिलो मिलना हृदय की आंख से
कांपते संबंध मत देना कभी।
और चाहे जो....
तुम कोई संगीत की अणिमा लहर
छू ले जैसे भू भरे आकास को।
तुम कि जैसे चिर-कुंआरी चेतना
गंध-पूरित कर रही मधुमास को।
मांग लेना जो भी मेरे पास हो
अधपके अनुबंध मत देना कभी।
और चाहे जो....
ग़ज़ल
मेरे आंगन में ठहरी हुई है
रात गूंगी थी बहरी हुई है
बादलों को भटकना पड़ा है
तब ज़मीं ये सुनहरी हुई है
झील की वादियां जानती हैं
प्यास क्यूं और गहरी हुई है
आपके साथ सूरज चला है
आप आए दुपहरी हुई है
तेरी यादों की ताज़ा वो टहनी
धीरे-धीरे छरहरी हुई है
चीड़ के वन सुलगने लगे हैं
आग लेकिन इकहरी हुई है
{गत वर्ष प्रकाशित युवा कवि शैलेष गुप्त ‘वीर’ के सम्पादन में बारह कवियों की नई कविता विधा की रचनाओं के संकलन ‘आर-पार’ से पाँच कवियों सर्वश्री शैलेष गुप्त ‘वीर’, अरविन्द कुमार वर्मा, अक्षय गोजा, प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, एवं वसीम अकरम की एक-एक कविता हम अविराम पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।}
शैलेष गुप्त ‘वीर’
भेड़िये के पाँव
सीरियल बम ब्लास्ट
शहर दर शहर.....
हो रहे हादसे रोज़-ब-रोज़
आदमी के खूनी पंजे
खोद रहे हैं इंसानियत की क़ब्र
तो भी इंसान बच निकलता है
पुनः क़ब्र में जाने के लिए।
ठेकेदार राजनीति की उपज हैं
या किसी असलहाधारी कुंठित मस्तिष्क की
घिनोनी साज़िश का शिकार
उनकी तेज़ नज़रें फिसलती हैं
बड़ी तेजी से ओर-छोर तक
और भेड़िये के पाँव.....?
तय कर लेते हैं
चौदह-पन्द्रह घंटों में
बंगलुरू से अहमदाबाद
के बीच का रास्ता....
फिर तलाश करते हैं
कोई अगला निशाना
झुंड/बस्ती उजाड़कर
चल देता है फिर
किसी -बस्ती को वीरान करने
मानवता कराह रही है
लेकिन ख़ामोश है/राजा गुलाम है
जकड़ा है राजनीति की बेड़ियों में
और ओढ़े है
धर्म-निरपेक्षता की मोटी खाल।
अरविन्द कुमार वर्मा
डर
डरता हूँ आग से
डरता हूँ अथाह जल से
डरता हूँ घने अन्धकार से
डरता हूँ चोटिल आत्मा की कराह से
डर-डर कर सहमे-सहमे ही
गुज़र जाता है वक्त
कभी-कभी डर अन्दर का
बन जाता है पहाड़
उस वक्त ख़ुद का अस्तित्व
लगने लगता है बौना
डर से सहम कर
बुत बन जाता हूँ निरपराध
डर से उदासीनता का भाव
आते ही
विचलित हो जाता है मन
देर तक सिसकियों के बाद
सांत्वना से भरता है
अन्दर का शून्य
धीरे-धीरे मुट्ठियों में
आती है ताक़त
आत्मबल और साहस
भाग जाता है डर अघोषित
निर्बाध धड़कने लगता है दिल
फिर से पुतलियों में
रेंगने लगते हैं सपने
निश्चिन्तता के।
अक्षय गोजा
बेहतर
मैं समझ सकता हूँ,
इसलिए क्रुद्ध, हताश, भयग्रस्त
नहीं होता।
सब भोगा है मैंने
अब भी भोग रहा हूँ।
जानता हूँ-
यह होने के बाद वह होगा,
फिर ऐसे/और यों,
हाँ, इस तरह/हाँ-हाँ,
जैसे भविष्य-दर्शन की
शक्ति मिली हुई हो।
तब कोई विकार या क्षोभ
कैसे आ सकता है मन में?
सुविधा रहती है
कि सहयोग, सहायता,
समर्थन दे सकूँ।
इससे फैलते हैं
क्लेश, द्वेष, विग्रह,
विवाद की बजाय
सामंजस्य, समरसता, शान्ति।
क्या इस तरह दुनियाँ
बेहतर नहीं होती?
प्रवीण कुमार श्रीवास्तव
आख़िर कब तक
पैडल मारकर
सबको मंजिल तक पहुँचाने के बाद
क़स्बे से गाँव पहुँचने के लिए
शाम को रह जाते हैं
किराये के सिर्फ तीन रुपये
आटा, दाल, चावल
तौलाने के बाद/दिन गुजरते हैं
तीन पहियों पर लटककर।
फिर भी/जिन्दगी गुज़र रही है
एक पैर पर।
तीन साल पहले का
किराने का उधार
नहीं पट पाया अब तक
चंद बिस्वा पुश्तैनी खेत
गिरवी रहेंगे/न जाने कब तक
छुटकी जा पायेगी स्कूल
अबकी जुलाई?
बड़की की हो सकेगी
इस साल सगाई?
क्या? कब? कैसे?
सारे सवाल गड्ड-मड्ड
इस दस पैसे की बीड़ी में
बहुत दम है, वर्ना
चिंता मिटाने में
दिन भर का पसीना
और..../हिस्से में मिला
दो मुट्ठी भाग्य/बहुत कम है।
वसीम अकरम
दर्द से कह दो
दर्द से कह दो
दबे पाँव न आये
हंगामा करे
ज़ख़्मों को कुरेदे
बग़ावत को उबालने के लिए
लहू को ज़िम्मेदारी सौंपे
दर्द से कह दो....
ग़म को चाशनी बनाकर
उसमें दिल को डाल दे
ताकि दिल
बेताब हो जाये
इन्कलाब के मुँह में जाकर
बग़ावत करने के लिए
इन्क़लाब लाने के लिए
दर्द से कह दो....
दर्द से कह दो
ज़ख़्मों को भरने न दे
बल्कि
उसके आँच पर
इन्क़लाब के सारे हथियार
सुर्ख़ होने तक तपाये
दर्द से कह दो.....
दबे पाँव न आये....।
सुमन शेखर
{हिमाचल निवासी कवयित्री सुश्री सुमन शेखर का कविता संग्रह ‘कल्पतरु बन जाना तुम’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दो कविताएं।}
सड़क
उस पराये शहर के घर में
जो गुम हुई औरत
तो अब
ढूंढ़ने से भी नहीं मिलती है
पता चला
वह सड़क बन गयी है
सभी उस पर से
गुजर रहे हैं
अपनी मंजिल पाने को
वह केवल सड़क ही
बनी रह गयी है
उसकी कोई मंजिल नहीं है
सिल्वर ऑक कर रहा दीपयज्ञ
अप्रैल माह में
सिल्वर ऑक की
लम्बी
टहनियाँ पीले पुष्पों से
भर गयी हैं
लग रहा है
असंख्य दीप लड़ियाँ
एकाएक पेड़ के
सारे शरीर पर
चमक उठी हैं
सिल्वर ऑक
दीपयज्ञ कर रहा है
सबके हृदय में
शान्ति भर रहा है।
जयसिंह आर्य ‘जय’
{कवि सम्मेलनों के मंच के चर्चित कवि जयसिंह आर्य ‘जय’ का ग़ज़ल संग्रह ‘आँधियों के दरमियां’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी दो ग़ज़लें}
दो ग़ज़लें
1.
आदमी ग़म का मारा कहाँ जाएगा
जो भी है बेसहारा कहाँ जाएगा
रात-भर लेटे-लेटे ये सोचा किया
नभ से टूटा सितारा कहाँ जाएगा
हम तो योगी नहीं दिल पे क़ाबू नहीं
क्या कहें दिल हमारा कहाँ जाएगा
छेड़कर दिल या आँखों के संसार को
हादसों का नज़ारा कहाँ जाएगा
साथ रहकर तुम्हारे ये मालूम है
‘जय’ तुम्हारा इशारा कहाँ जाएगा
2.
उनकी करतूत का है असर साथियो
भूख से मर रहे हैं बशर साथियो
मौत खींचेगी उतना ही अपनी तरफ़
काटे जाएँगे जितने शजर साथियो
वो परेशानियों से डरेगा भी क्यों
आया जीने का जिसको हुनर साथियो
मैं न काबा न काशी कभी जाऊँगा
माँ के चरणों में है मेरा सर साथियो
कुछ भी हालात उनका बिगाड़ेंगे क्या
जिनकी हालात पर है नज़र साथियो
दिनेश कुमार छाजेड़
{गत वर्ष प्रकाशित कवि दिनेश कुमार छाजेड़ के कविता संग्रह ‘प्रतिबिम्ब’ से दो कविताएँ।}
भविष्य
जेठ की तपती दोपहरी में,
लू के गर्म थपेड़ों को सहती
प्लास्टिक की टूटी चप्पल पहने,
गर्म पिघले डामर को
सड़क-मिट्टी पर फैलाती,
पसीने से तरबतर अपने चेहरे को,
फटी साड़ी के पल्लू से पोछते हुए,
एक नजर ऊपर आकाश से,
आग बरसाते सूरज को देखती है वो,
और वहीं पास में बेर की झाड़ी के नीचे
गुदड़ी में लेटे हुए अपने
नन्हें मासूम को देखकर
वह सोचती है इसका भविष्य कैसा होगा?
क्या सड़क पर ही बड़ा होकर
अपने बाप के जैसे अनपढ़ मजदूर बनेगा।
और बच्चा अपनी बन्द मुट्ठियों को
जिसमें बन्द है उसका भविष्य
आकाश की ओर ताने मुस्कुराता है।
शायद सोचता होगा,
एक दिन दुनियां मेरी मुट्ठी में होगी।
मेरे शहर की नदी
मेरे शहर की नदी
सदानीरा
शांत गंभीर निर्मल,
वीरप्रसूता धरती के चरण पखारती
सदियों से नगरवासियों की प्यास बुझाने वाली
इसके तटों पर स्थित है
शिवाला, व्यायामशाला,
ईदगाह और बालाजी का धाम।
अक्सर नगरवासी करते थे जलक्रीड़ा
त्योहारों पर होता था दीपदान
मंगल गीतों के संग, होता कार्तिक स्नान।
साल दो साल में वर्षा काल में आता था
नदी में उफान।
वक्त के साथ-साथ आबादी का बोझ बढ़ने लगा
नदी पार शहर विस्तार लेने लगा।
कुछ मौसम की बेरुखी से
कुछ इन्सानों की करतूतों से
नदी में जलराशि कम होने लगी।
अब तो शहर की गन्दगी भी इसमें घुलने लगी
नदी अब दुर्गन्धयुक्त
पोखर में तब्दील हो गई।
अब चिन्ता है
नदी कहीं
गुमशुदा होकर
कागजों में ही न रह जाए।
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में श्री जितेन्द्र जौहर, प्रो. विनोद अश्क, डॉ. शैलेष गुप्त ‘वीर’, श्री अरविन्द कुमार वर्मा, श्री अक्षय गोजा, श्री प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, सुश्री सुमन शेखर, श्री जयसिंह आर्य ‘जय’ व श्री दिनेश कुमार छाजेड़ की कविताएँ।
जितेन्द्र ‘जौहर’
{चर्चित स्तम्भ ‘तीसरी आँख’ के स्तम्भकार, कवि-समीक्षक श्री जितेन्द्र जौहर जी एक बहुत अच्छे गीतकार भी हैं। विगत दिनों उनके ब्लाग ‘जौहरवाणी’ पर ‘हिन्द युग्म’ द्वारा पुरस्कृत उनके एक गीत पर दृष्टि पड़ी। ठेठ देहाती परिवेश के प्रतीकों के माध्यम से काफी हद तक देश की व्यवस्था का हाल बयां कर रहा उनका यह गीत हम अपने पाठकों के लिए भी प्रस्तुत कर रहे हैं।}
दिल के सब अरमान, हाय! फाँसी पर झूल गये।
पिया! शहर क्या गये, गाँव का रस्ता भूल गये!
अरसा बीत गया, घर का न, हाल लिया कोई।
चिट्ठी लिखी न अब तक, टेलीफोन किया कोई।
भूले से भी कभी डाकिया आया न द्वारे।
फोन के लिए मिसराइन से पूछ-पूछ हारे!
होली पे गुझिया को अबकी तरस गये बच्चे।
बिना तेल चूल्हे पे पापड़ भून लिये कच्चे!
फटा जाँघिया टाँक-टाँक कलुआ को पहनाया।
कई दिनों से घर में सब्ज़ी-साग नहीं आया!
कुल्फी वाला जब अपने टोले में आता है।
सबको खाते देख छुटन्कू लार गिराता है!
उमर नहीं थी पूरी सो, ‘इडबीसन’ नहीं हुआ !
सही कहत बूढ़े-बुजुर्ग कि जहाँ जाए भूखा।
किस्मत का सब खेल, राम जी! वहीं पड़त सूखा।
एक रोज बोलीं मुझसे, जोगिन्दर की माईं।
‘ए रज्जो ! तोहरे पउवाँ में, बिछिया तक नाहीं!’
का बतलाऊँ..? मरे लाज के, बोल नहीं निकरा।
हमरे घर का हाल, गाँव अब जानत है सिगरा!
सुबह-शाम बापू की रह-रह, साँस उखड़ जाती।
फूटी कौड़ी नहीं दवाई जो मैं ले आती!
का लिखवाऊँ हाल, हाय रे... बूढ़ी मइया का ?
‘कम्पोडर’ का पर्चा, दो सौ तीस रुपैय्या का!
रोज-रोज की गीता आखिर किस-किससे गाएँ?
कर्ज माँगने किस-किसके दरवाजे पे जाएँ?
ठकुराइन पहले ही रोज, तगादा करती है।
कल बोली, ‘रज्जो.. तू झूठा वादा करती है!’
तू-तड़ाक-तौहीन झेलकर, बहुत बुरा लागा।
कर्ज-कथा ठकुराइन घर-घर सुना रही जा-जा।
इससे ‘जादा’ और ‘बेजती’ क्या करवाओगे ?
अम्मा पूछ रहीं हैं, ‘लल्ला...घर कब आओगे?’
बापू को सूती की एक लँगोटी ले आना।
और सभी के लिए पेटभर रोटी ले आना!
मुन्नू चच्चा से कहकर ये चिट्ठी लिखवाई।
जल्दी से पहुँचइयो दिल्ली, ....हे दुर्गा माई !
- आई आर-13/3, रेणुसागर, सोनभद्र (उप्र) 231218.
प्रो. विनोद अश्क
{वरिष्ठ कवि एवं शाइर प्रो. विनोद अश्क जी का गत वर्ष प्रकाशित काव्य संग्रह ‘तेरी आवाज़’ से प्रस्तुत है एक गीत एवं एक ग़ज़ल।}
गीत
और चाहे जो सज़ा दे लो मगर
तुम हमें सौगन्ध मत देना कभी।
अनछुए शब्दों से निकले रूप को
आवरण के वस्त्र में रखना प्रिये!
सर्वव्यापी सार की गहराइयां
दर्पणों के सामने चखना प्रिये!
मनखगों को बींध देगा बाण से
पर कोई प्रतिबन्ध मत देना कभी।
और चाहे जो....
धर्म में लिपटी कथायें क्या कहें
बस वही अच्छे बुरे का खेल सी।
पर तुम्हारी याद से उगती नदी
पूज्य जलधारों का जैसे मेल सी।
जब मिलो मिलना हृदय की आंख से
कांपते संबंध मत देना कभी।
और चाहे जो....
तुम कोई संगीत की अणिमा लहर
छू ले जैसे भू भरे आकास को।
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
गंध-पूरित कर रही मधुमास को।
मांग लेना जो भी मेरे पास हो
अधपके अनुबंध मत देना कभी।
और चाहे जो....
ग़ज़ल
मेरे आंगन में ठहरी हुई है
रात गूंगी थी बहरी हुई है
बादलों को भटकना पड़ा है
तब ज़मीं ये सुनहरी हुई है
झील की वादियां जानती हैं
प्यास क्यूं और गहरी हुई है
आपके साथ सूरज चला है
आप आए दुपहरी हुई है
तेरी यादों की ताज़ा वो टहनी
धीरे-धीरे छरहरी हुई है
चीड़ के वन सुलगने लगे हैं
आग लेकिन इकहरी हुई है
- नटराज विला, 418, गगन विहार, शामली-247776 (उ.प्र.)
{गत वर्ष प्रकाशित युवा कवि शैलेष गुप्त ‘वीर’ के सम्पादन में बारह कवियों की नई कविता विधा की रचनाओं के संकलन ‘आर-पार’ से पाँच कवियों सर्वश्री शैलेष गुप्त ‘वीर’, अरविन्द कुमार वर्मा, अक्षय गोजा, प्रवीण कुमार श्रीवास्तव, एवं वसीम अकरम की एक-एक कविता हम अविराम पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।}
शैलेष गुप्त ‘वीर’
भेड़िये के पाँव
सीरियल बम ब्लास्ट
शहर दर शहर.....
हो रहे हादसे रोज़-ब-रोज़
आदमी के खूनी पंजे
खोद रहे हैं इंसानियत की क़ब्र
तो भी इंसान बच निकलता है
पुनः क़ब्र में जाने के लिए।
ठेकेदार राजनीति की उपज हैं
या किसी असलहाधारी कुंठित मस्तिष्क की
घिनोनी साज़िश का शिकार
उनकी तेज़ नज़रें फिसलती हैं
बड़ी तेजी से ओर-छोर तक
और भेड़िये के पाँव.....?
तय कर लेते हैं
चौदह-पन्द्रह घंटों में
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल |
के बीच का रास्ता....
फिर तलाश करते हैं
कोई अगला निशाना
झुंड/बस्ती उजाड़कर
चल देता है फिर
किसी -बस्ती को वीरान करने
मानवता कराह रही है
लेकिन ख़ामोश है/राजा गुलाम है
जकड़ा है राजनीति की बेड़ियों में
और ओढ़े है
धर्म-निरपेक्षता की मोटी खाल।
- 24/18, राधानगर, फतेहपुर-212601 (उ.प्र.)
अरविन्द कुमार वर्मा
डर
डरता हूँ आग से
डरता हूँ अथाह जल से
डरता हूँ घने अन्धकार से
डरता हूँ चोटिल आत्मा की कराह से
डर-डर कर सहमे-सहमे ही
गुज़र जाता है वक्त
कभी-कभी डर अन्दर का
बन जाता है पहाड़
उस वक्त ख़ुद का अस्तित्व
लगने लगता है बौना
डर से सहम कर
बुत बन जाता हूँ निरपराध
डर से उदासीनता का भाव
आते ही
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
देर तक सिसकियों के बाद
सांत्वना से भरता है
अन्दर का शून्य
धीरे-धीरे मुट्ठियों में
आती है ताक़त
आत्मबल और साहस
भाग जाता है डर अघोषित
निर्बाध धड़कने लगता है दिल
फिर से पुतलियों में
रेंगने लगते हैं सपने
निश्चिन्तता के।
- 73-एम.एन. लाको कॉलोनी, नवाब युसुफ रोड, इलाहाबाद (उ.प्र.)
अक्षय गोजा
बेहतर
मैं समझ सकता हूँ,
इसलिए क्रुद्ध, हताश, भयग्रस्त
नहीं होता।
सब भोगा है मैंने
अब भी भोग रहा हूँ।
जानता हूँ-
यह होने के बाद वह होगा,
फिर ऐसे/और यों,
हाँ, इस तरह/हाँ-हाँ,
जैसे भविष्य-दर्शन की
शक्ति मिली हुई हो।
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
तब कोई विकार या क्षोभ
कैसे आ सकता है मन में?
सुविधा रहती है
कि सहयोग, सहायता,
समर्थन दे सकूँ।
इससे फैलते हैं
क्लेश, द्वेष, विग्रह,
विवाद की बजाय
सामंजस्य, समरसता, शान्ति।
क्या इस तरह दुनियाँ
बेहतर नहीं होती?
- चाँदपोल गेट के पास, जोधपुर-342001 (राजस्थान)
प्रवीण कुमार श्रीवास्तव
आख़िर कब तक
पैडल मारकर
सबको मंजिल तक पहुँचाने के बाद
क़स्बे से गाँव पहुँचने के लिए
शाम को रह जाते हैं
किराये के सिर्फ तीन रुपये
आटा, दाल, चावल
तौलाने के बाद/दिन गुजरते हैं
तीन पहियों पर लटककर।
फिर भी/जिन्दगी गुज़र रही है
एक पैर पर।
तीन साल पहले का
किराने का उधार
नहीं पट पाया अब तक
चंद बिस्वा पुश्तैनी खेत
गिरवी रहेंगे/न जाने कब तक
छुटकी जा पायेगी स्कूल
अबकी जुलाई?
बड़की की हो सकेगी
इस साल सगाई?
क्या? कब? कैसे?
सारे सवाल गड्ड-मड्ड
इस दस पैसे की बीड़ी में
बहुत दम है, वर्ना
चिंता मिटाने में
दिन भर का पसीना
और..../हिस्से में मिला
दो मुट्ठी भाग्य/बहुत कम है।
- ग्राम-सनगाँव, पोस्ट-बहरामपुर, जिला- फतेहपुर (उ.प्र.)
वसीम अकरम
दर्द से कह दो
दर्द से कह दो
दबे पाँव न आये
हंगामा करे
ज़ख़्मों को कुरेदे
बग़ावत को उबालने के लिए
लहू को ज़िम्मेदारी सौंपे
दर्द से कह दो....
ग़म को चाशनी बनाकर
उसमें दिल को डाल दे
ताकि दिल
बेताब हो जाये
इन्कलाब के मुँह में जाकर
बग़ावत करने के लिए
इन्क़लाब लाने के लिए
दर्द से कह दो....
दर्द से कह दो
ज़ख़्मों को भरने न दे
बल्कि
उसके आँच पर
इन्क़लाब के सारे हथियार
सुर्ख़ होने तक तपाये
दर्द से कह दो.....
दबे पाँव न आये....।
- 88 जी, पॉकेट-ए-2, मयूर बिहार, फेज-3, नयी दिल्ली-96
सुमन शेखर
{हिमाचल निवासी कवयित्री सुश्री सुमन शेखर का कविता संग्रह ‘कल्पतरु बन जाना तुम’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। उनके इस संग्रह से प्रस्तुत हैं दो कविताएं।}
सड़क
उस पराये शहर के घर में
जो गुम हुई औरत
तो अब
ढूंढ़ने से भी नहीं मिलती है
पता चला
वह सड़क बन गयी है
सभी उस पर से
गुजर रहे हैं
अपनी मंजिल पाने को
रेखांकन : सिद्धेश्वर |
वह केवल सड़क ही
बनी रह गयी है
उसकी कोई मंजिल नहीं है
सिल्वर ऑक कर रहा दीपयज्ञ
अप्रैल माह में
सिल्वर ऑक की
लम्बी
टहनियाँ पीले पुष्पों से
भर गयी हैं
लग रहा है
असंख्य दीप लड़ियाँ
एकाएक पेड़ के
सारे शरीर पर
चमक उठी हैं
सिल्वर ऑक
दीपयज्ञ कर रहा है
सबके हृदय में
शान्ति भर रहा है।
- नजदीक पेट्रोल पम्प, ठाकुरद्वारा, पालमपुर-176102, जिला कांगड़ा (हि.प्र.)
जयसिंह आर्य ‘जय’
{कवि सम्मेलनों के मंच के चर्चित कवि जयसिंह आर्य ‘जय’ का ग़ज़ल संग्रह ‘आँधियों के दरमियां’ हाल ही में प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं इस संग्रह से उनकी दो ग़ज़लें}
दो ग़ज़लें
1.
आदमी ग़म का मारा कहाँ जाएगा
जो भी है बेसहारा कहाँ जाएगा
रात-भर लेटे-लेटे ये सोचा किया
नभ से टूटा सितारा कहाँ जाएगा
हम तो योगी नहीं दिल पे क़ाबू नहीं
क्या कहें दिल हमारा कहाँ जाएगा
छेड़कर दिल या आँखों के संसार को
हादसों का नज़ारा कहाँ जाएगा
साथ रहकर तुम्हारे ये मालूम है
‘जय’ तुम्हारा इशारा कहाँ जाएगा
2.
उनकी करतूत का है असर साथियो
भूख से मर रहे हैं बशर साथियो
मौत खींचेगी उतना ही अपनी तरफ़
काटे जाएँगे जितने शजर साथियो
वो परेशानियों से डरेगा भी क्यों
आया जीने का जिसको हुनर साथियो
मैं न काबा न काशी कभी जाऊँगा
माँ के चरणों में है मेरा सर साथियो
कुछ भी हालात उनका बिगाड़ेंगे क्या
जिनकी हालात पर है नज़र साथियो
- एफ-12, कुँवर सिंह नगर, निलोठी मोड़, नागलोई, दिल्ली-110041
दिनेश कुमार छाजेड़
{गत वर्ष प्रकाशित कवि दिनेश कुमार छाजेड़ के कविता संग्रह ‘प्रतिबिम्ब’ से दो कविताएँ।}
भविष्य
जेठ की तपती दोपहरी में,
लू के गर्म थपेड़ों को सहती
प्लास्टिक की टूटी चप्पल पहने,
गर्म पिघले डामर को
सड़क-मिट्टी पर फैलाती,
पसीने से तरबतर अपने चेहरे को,
फटी साड़ी के पल्लू से पोछते हुए,
एक नजर ऊपर आकाश से,
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
और वहीं पास में बेर की झाड़ी के नीचे
गुदड़ी में लेटे हुए अपने
नन्हें मासूम को देखकर
वह सोचती है इसका भविष्य कैसा होगा?
क्या सड़क पर ही बड़ा होकर
अपने बाप के जैसे अनपढ़ मजदूर बनेगा।
और बच्चा अपनी बन्द मुट्ठियों को
जिसमें बन्द है उसका भविष्य
आकाश की ओर ताने मुस्कुराता है।
शायद सोचता होगा,
एक दिन दुनियां मेरी मुट्ठी में होगी।
मेरे शहर की नदी
मेरे शहर की नदी
सदानीरा
शांत गंभीर निर्मल,
वीरप्रसूता धरती के चरण पखारती
सदियों से नगरवासियों की प्यास बुझाने वाली
इसके तटों पर स्थित है
शिवाला, व्यायामशाला,
ईदगाह और बालाजी का धाम।
अक्सर नगरवासी करते थे जलक्रीड़ा
त्योहारों पर होता था दीपदान
मंगल गीतों के संग, होता कार्तिक स्नान।
साल दो साल में वर्षा काल में आता था
नदी में उफान।
वक्त के साथ-साथ आबादी का बोझ बढ़ने लगा
नदी पार शहर विस्तार लेने लगा।
कुछ मौसम की बेरुखी से
कुछ इन्सानों की करतूतों से
नदी में जलराशि कम होने लगी।
अब तो शहर की गन्दगी भी इसमें घुलने लगी
नदी अब दुर्गन्धयुक्त
पोखर में तब्दील हो गई।
अब चिन्ता है
नदी कहीं
गुमशुदा होकर
कागजों में ही न रह जाए।
- ब्लॉक 63/395, भारी पानी संयंत्र कॉलोनी, रावतभाटा-323307 (राज.)
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