अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 07-10, मार्च-जून 2017
।। कथा कहानी ।।
ज्योत्सना कपिल
वो चेहरा
महफ़िल जम चुकी थी, बस इंतज़ार था तो आयुषी का। न जाने कहाँ रह गई थी आज, अब तक उसका पता न था। सब अपने-अपने अनुमान लगा ही रही थीं कि तभी वह एक दुबली पतली आकर्षक महिला के साथ आती नज़र आई।
‘‘ये प्रेक्षा है, हमारी किटी की नई मैम्बर, मेरे पड़ोस में अभी आई है ट्रान्सफर होकर, सोचा तुम सब से परिचय करा दूँ।’’ आयुषी ने कहा।
सभी बारी-बारी से उसे अपना परिचय देने लगीं। प्रेक्षा हँसमुख स्वभाव की युवती थी। जल्दी ही उन सब के साथ घुल मिल गई।
हँसी-मज़ाक का वातावरण था। तभी अचानक ऋचा ने बातों का विषय बदलकर अपने एक सम्बन्धी का अनुभव बताना शुरू कर दिया कि कैसे एक बुरी आत्मा ने उन्हें सताया। बस फिर बातों का विषय बदलकर आत्मा, भूत-प्रेत हो गया। सभी बढ़-चढ़ कर एक से एक किस्से बताने लगीं।
पर सबके बीच प्रेक्षा एकदम खामोश थी। न जाने किस सोच में डूबी हुई।
‘‘तुम क्या सोच रही हो प्रेक्षा?’’ चारु ने उसे गुदगुदाया, ‘‘डर लग रहा है क्या ?’’
‘‘हूँ’’ वह चौंक पड़ी। ‘‘न...नहीं तो...!’’ उसका चेहरा फीका सा पड़ गया था। सबकी निगाह अब उसके चेहरे पर होते भाव परिवर्तन पर थी। सबको अपनी ओर ताकते पाकर एक फीकी सी मुस्कान उसके चेहरे पर खेल गई।
‘‘एक बात है तो, पर सोच रही हूँ की कहूँ या न कहूँ’’ उसने सबके चेहरे पर दृष्टि दौड़ाई।
‘‘हाँ बोलो न’’ सबने उत्सुकता से कहा।
‘‘दरअसल ऐसी ही एक घटना मेरे साथ भी घटी है’’ वह रहस्यमय अंदाज़ में बोली।
‘‘बताओ न प्लीज...’’ इस बार नेहा बोली।
‘‘ठीक है’’ उसने एक ठण्डी साँस छोड़ी।
‘‘पिछले शहर में हम अच्छी खासी ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे, कि एक दिन मकान मालिक ने हमें दूसरा मकान तलाश लेने के लिए कहा। उनके घर में रहते हुए हमंे चार साल गुज़र गए थे। शायद उन्हें लग रहा हो कि हम उनके घर पर अधिकार न जमा लें।
अब शुरू हुई नया मकान ढूँढने की जद्दो-जहद। कभी कोई मकान हमारे मुताबिक नहीं था, तो कभी कोई कॉलोनी। कहीं किराया ज्यादा तो कहीं कोई और दिक्कत। आखिर बड़ी मुश्किल से एक मकान हमें पसन्द आया। मकान शानदार था और किराया काफी कम। न जाने क्यों इतने कम किराये में वहाँ का मकान मालिक वो घर किराये पर उठा रहा था।
ख़ैर! हमने वहाँ शिफ्ट कर लिया। सारा सामान सेट हो गया तो मैंने चैन की साँस ली। उस दिन मैं बहुत थक गई थी, तो थोड़ी देर कमर सीधी करने अपने बेडरूम में जाकर लेट गई। वहाँ पहुँचने पर न जाने क्यों जिस्म में एक सिहरन सी हुई। ऐसा क्यों? मैं सोच में पड़ गई। सीधी लेटी मैं छत की और देख रही थी....कि तभी न जाने क्यों मुझे लगा कि एक चेहरा उसमें उभर रहा है। मेरे रोंगटे खड़े हो गए, मैंने आँखें बन्द कर लीं। फिर आँखें खोलकर देखा तो वहाँ कुछ भी न था। शायद ज्यादा थकान होने से मुझे वहम हुआ था, मैं मुस्कुरा दी।
रात हुई, मेरे पति सो चुके थे। दिन की बात याद आते ही न चाहते हुए भी मेरी निगाह ऊपर की ओर उठ गई। कुछ देर बाद वो चेहरा फिर उभरना शुरू हुआ। इस बार मैं चीख पड़ी और पति को झिंझोड़ डाला। वो जागे तो मैंने अपना अनुभव उन्हें बताया। फिर हम दोनों ने ऊपर देखा तो चेहरा गायब था। नींद खराब हो जाने के कारण वो झुँझला उठे और फालतू के सीरियल को दोष देते हुए मेरे दिमाग का फितूर बताने लगे।
दूसरे दिन आराम करने गई तो नज़र फिर वहीं जम गई। काफी देर देखते रहने के बावजूद भी आज मुझे कुछ न नज़र आया। मुझे यकीन हो गया कि पतिदेव सही कह रहे थे। वो वाकई मेरे दिमाग का ही फ़ितूर था। अगले दिन वो चेहरा धीरे-धीरे फिर से उभरने लगा। इस बार वह अधिक स्पष्ट था। उसे देखकर मालुम हुआ कि वो एक औरत का चेहरा था, जो क्रोध के भाव लिए मेरी ओर घूर रहा था। मैंने फिर आँखें बन्द कर लीं, और जब खोली तो वो चेहरा गायब था। अब थोड़ा डर सा मुझे महसूस हुआ।
फिर क्या था, इसके बाद तो वो चेहरा अक्सर मुझे दिखाई देने लगा। घर में अब यह भी महसूस होने लगा कि कोई मुझ पर नज़र रख रहा है। मैं परेशान रहने लगी। हैरानी की बात कि मेरे सिवा घर में किसी और को वो चेहरा कभी नज़र नहीं आया। इसलिए किसी को मुझ पर विश्वास ही नहीं होता था। एक दिन कोई सामान लेने मैं बेडरूम में गई तो आश्चर्य से देखती रह गई।
बेड पर से चादर और तकिया हटकर ज़मीन पर पड़ा हुआ था। मुझे अच्छी तरह से याद था कि सुबह मैं बिस्तर सँवारकर ही वहाँ से गई थी। मैंने इधर-उधर देखा तो कोई नहीं था। राम-राम कहते हुए मैंने फिर से बेड ठीक कर दिया। रात में जब मैं खाने के बाद रसोई समेट रही थी तभी पति के ऊँचे स्वर में चिल्लाने की आवाज़ आई। मैं दौड़ी हुई गई तो सर पकड़कर बैठ गई। कमरे की ये हालत थी मानो कोई भूचाल आया हो।
अलमारी खुली पड़ी थी, और उसमें से एक एक कपड़ा बिखरा हुआ ज़मीन पर पड़ा था। चादर, तकिया और दूसरी सभी चीजें फैली हुई थीं ।
‘‘प्रेक्षा, तुम दिन भर करती क्या रहती हो? तुमसे ये भी न हुआ कि कमरा ही ठीक कर लेतीं। दिनभर का थका मांदा आकर सोचा लेट लूँ तो यहाँ तूफ़ान आया हुआ है।’’ वे बिफर चुके थे।
‘‘आप यकीन नहीं करेंगे, आज दिन में दो बार मैंने कमरा ठीक किया है। न जाने कैसे ये सब हो रहा है।’’
दूसरे दिन ये मुझे मनोचिकित्सक के पास ले गए। कई तरह के टेस्ट हुए और फिर मेरा दिमागी इलाज शुरू हो गया। ये बात और है कि उससे मुझे फायदा कुछ भी न हुआ।
कुछ दिन बाद जब मैं सुबह चाय बनाने किचन में गई तो देखा वही औरत मुझे लाल-लाल आँखों से घूर रही है। उसे देखकर मेरी घिग्घी बँध गई और मैं होश खो बैठी। काफी देर बाद जब चैतन्य हुई तो देखा चिंतित दृष्टि से पति मुझे देख रहे थे। उनकी कमीज फ़टी हुई थी और चेहरे पर कई जगह खरोंचों के निशान थे। मुझे बहुत कमजोरी महसूस हो रही थी।
‘‘अब कैसी हो तुम?’’ इन्होंने कोमल स्वर में पूछा।
‘‘ठीक हूँ, बहुत वीकनेस लग रही है।’’
‘‘कुछ याद है कि तुम्हें हुआ क्या था ?’’
मैंने उन्हें सब कुछ बताया कि मैंने क्या देखा था। बदले में उन्होंने जो बताया सुनकर मैं काँप गई। रसोई में शोरगुल सुनकर वो देखने गए तो पाया कि मैं सामान इधर-उधर फेंक रही थी। इन्हें देखकर एक छुरी उठाकर वार करने के लिए झपट पड़ी। काफी देर तक हाथापाई के बाद मैं काबू में आई और मैंने कहा कि मुझे उनसे नफ़रत है और मैं उन्हें मार डालूँगी। उस वक्त मेरी आवाज़ बिलकुल बदली हुई थी।
अब मुझे बेडरूम में जाने के नाम से ही मुझे दहशत होने लगी थी, इसलिए वहाँ जाना बन्द ही कर दिया था। पर एक दिन किसी काम से मैं वहाँ गई तो देखा कि पंखे से एक औरत लटकी हुई है। मैं चीख पड़ी और दौड़ती हुई घर से बाहर निकल आई। लोगों ने मुझे घेर लिया और पूछताछ करने लगे। फिर एक महिला मेरे पास आकर कारण पूछने लगी। जब मैंने उसे बताया, तो वे सभी एक दूसरे को रहस्यमयी दृष्टि से देखने लगीं। फिर उसी महिला ने झिझकते हुए बताया कि मुझसे पहले उस घर में जो परिवार रहता था उसमें रहने वाली महिला ने अपने पति की बुरी आदतों और चरित्रहीनता से तंग आकर आत्महत्या की थी। शायद उसकी ही आत्मा भटक रही थी।
ये समाचार जंगल में आग की तरह चारों ओर फ़ैल गया। सबके अलग-अलग ख्याल और अलग-अलग सुझाव थे। फिर हमने एक बड़े तांत्रिक को बुलाया, उसने भी आकर यही कहा कि वहाँ एक आत्मा का वास है। हमने विधि-विधान से उसकी आत्मा की शांति के लिए पूजा-पाठ और हवन भी करवाया। तभी बेडरूम में से तेज आवाज़ आई। हमने जाकर देखा तो छत का पंखा गिरा हुआ था और खिड़की का काँच टूट गया था। शायद उस राह से वो अपने अंतिम पथ की ओर प्रस्थान कर गई थी। बस फिर वो मुझे कभी नज़र नहीं आई।’’ कहकर प्रेक्षा चुप हो गई, जो कुछ उसने भुगता था उसकी काली छाया उसके चेहरे पर साफ नज़र आ रही थी।
कमरे में एकदम सन्नाटा था। सब पर उसकी आप बीती का प्रभाव विद्यमान था।
‘‘चलो अब घर चला जाए। काफी देर हो चुकी है।’’ चारु ने चुप्पी तोड़ते हुए कहा।
‘‘हाँ’’ सबकी निगाह दीवार पर लगी घड़ी की ओर उठ गई।
‘‘पर एक बात है’’ उठते हुए प्रेक्षा ने कहा।
सबकी निगाहें उसके चेहरे पर जम गईं।
वह उठ खड़ी हुई, अपना पर्स उठाया और सब कुछ भूलकर जैसे बेध्यानी में चल पड़ी।
‘‘जाने से पहले वो बात तो बता दो।’’ गीत ने उत्सुकता से अपनी निगाहें उस पर गड़ा दीं।
प्रेक्षा ने सबकी ओर देखा। हर निगाह का केंद्र बिंदु बस वही थी। कुछ पल सस्पेंन्स-सा बनाते हुए वह खामोश रही।
‘‘यह कि मैं बहुत अच्छी एक्ट्रेस और स्टोरी टेलर हूँ।’’
‘‘मतलब?’’ चारु हैरान थी, साथ ही बाकी लोग भी कुछ न समझने के अंदाज़ में देख रहे थे।
‘‘मतलब कि ये कहानी मैंने अभी-अभी बनाई है।’’ कहकर वह ठहाका लगाकर हँस पड़ी। कुछ पल बाद, बात समझ में आने पर सबका सम्मिलित ठहाका गूँज पड़ा।
वह मुस्कुराती हुई द्वार की ओर बढ़ी, तभी भय से उसकी आँखें फ़ैल गईं, वह एकटक दरवाजे को घूर रही थी।
‘‘प्रेक्षा, क्या हुआ?’’ आयुषी ने उसे झकझोरते हुए पूछा।
जवाब में उसने एक ऊँगली सामने की ओर उठा दी। सबने सहमते हुए उक्त दिशा में देखा। पर कहीं कुछ न था।
‘‘वहाँ तो कुछ भी नहीं है, तुम्हें क्या दिख रहा है?’’
‘‘वही चेहरा’’ उसके स्वर में कम्पन था।
हर एक के मुख पर हवाइयाँ उड़ रही थीं। उसने विस्फारित नेत्रों से सबको देखा, फिर जोर से ठहाका लगा दिया।
‘‘तुम सब फिर डर गईं, अभी बताया तो था कि ये कहानी मैंने अभी बनाई थी, ये कल्पना के सिवा कुछ भी नहीं है।’’
- 18-ए, विक्रमादित्यपुरी, स्टेट बैंक कालोनी, बरेली, उ.प्र./मो. 09412291372
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