अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 6, अंक : 07-10, मार्च-जून 2017
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डॉ. बुला कार
वैविध्य और भाषा का अनूठा संगम
इस परिवर्तनकारी समय में काव्य की नयी विधा ‘हाइकु’ के पदार्पण ने, काव्य क्षेत्र में चमत्कार उत्पन्न कर दिया है। यह विधा कम से कम शब्दों में रचनाकार की बात पाठकों के समक्ष रखने में सक्षम है। हाइकु लघुत्तम काव्य रचना है। सत्रह वर्णो में लिखित कविता युगबोध को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से प्रतिध्वनित करती है। ज्वलन्त समस्याओं से रूबरू कराती हाइकु कविता सामाजिक-राजनैतिक परिवर्तन की दिशा में सार्थक भूमिका निभा रही है। इसमें व्यंग्य की अहम् भूमिका है। सभी तथ्यों की दृष्टि से डॉ. सतीश दुबे जी का हाइकु संग्रह ‘सात सौ सत्रह हाइकु मंत्रम्’ बेजोड़ रचना मानी जा सकती है। इन हाइकुओं में विषय वैविध्य के साथ भाषा का अनूठा संगम दिखायी देता है। लघ्वाकार के साथ ‘हाइकु’ में वर्ण सीमा निर्धारित होती है। एक भी वर्ण न ज्यादा, न कम। ऐसी कविता में सृजन काफी मुश्किल होता है। डॉ. दुबे जी ने सात सौ सत्रह हाइकु सृजित कर हमें अभिभूत कर दिया है। कम शब्दों में गुंफित अपने संस्कार और घनीभूत कसाव के कारण वे जो कथ्य-बिम्ब प्रस्तुत करते हैं, वह हमारे मन-मस्तिष्क में संवेदनाओं के अर्थप्रसार विस्फोटक का काम कर जाते हैं। अन्तर्मन में छिपे एहसास, दर्द, अंधविश्वास, कुरीतियाँ, रिश्तों की अहमियत, प्रकृति का अनूठा गान, और भी न जाने कितने तथ्यों को जिए हुए हैं ये सात सौ सत्रह हाइकु। संग्रह की सभी रचनाएँ हमारे अन्तर्मन को झकझोरती हैं। माँ और पिता पर लिखे शब्द प्रवाह, जैसे- ‘‘परिधि कैद/अपनो की उपेक्षा/तन्हा जीवन...’’ और ‘‘पिता ने पिया/संघर्ष का ज़हर/नीलकंठ सा’’ कवि के हृदय की बेचैनी प्रकट करता है। एक कविता में पिता के बताए संघर्षमय जीवन के साथ परिवार के सदस्यों में खुशियों के पल बाँटते रहने का प्रसंग मानो पूरी एक कहानी है- ‘‘बाबा, प्रसाद/फैला बेटे का हाथ/पिता के सामने...’’ । पिता की हार्दिक इच्छा होती है उनके बेटे-बेटियाँ सुखी हों। किन्तु वही बेटा-बहू उन्हें वृद्धाश्रम भेज दें- कितनी पीढ़ादायी स्थिति है! माँ-पिता बेटे को पढ़ा-लिखाकर लायक बनाते हैं, चाव से विवाह करवाते हैं। आशा करते हैं कि उनका बुढ़ापा खुशियों भरा होगा। लेकिन होता क्या है- ‘‘साध के चुप्पी/देखते रहो उन्हें/बड़े हो गये’’ और ‘‘क्या है संभव/वाकयुद्ध या शांति/पत्नी से प्रश्न...’’। माँ के दिवंगता होते ही पिता के सारे मंसूबे खतम हो गए- ‘‘शांत हो गए/तमाम मनसूबे/माँ के जाते ही’’। पिता परिवार के वृक्ष हैं, घर के सभी- बेटे-बेटी आदि को छाया देते हैं। परन्तु पिता वृद्ध होते हैं तब घर में उनकी हैसियत कुछ भी नहीं रहती। सारा जीवन कष्ट सहकर जिन बच्चों का लालन-पालन करते हैं, वे बच्चे बदले में क्या देते हैं- ‘‘बदला मिला/आरियों के रूप में/पिता वृक्ष को’’।
घर-घर में पति-पत्नी में आपसी संवाद-विवाद बनते देखे जाते हैं। जब ये विवाद लड़ाई-झगड़े में बदल जाते हैं तो सिर से पानी ऊपर हो उठता है और रिश्ता टूट जाता है। दुबे जी ने समाज के कोने-कोने को परखा है- ‘‘पानी का सेरा/पत्नी-पति विवाद/गिरा औ खत्म’’। विवाद की अति संबंधों को खत्म करती है। घर एक मंदिर होता है, इसमें पति, पत्नी और बच्चा- ये तीन प्रतिमाएँ उसे संभाले रखती हैं। इस मंदिर को बचाए रखने के लिए एक दूसरे के प्रति प्रेम, सौहार्द और अपनत्व भाव की आवश्यकता है। ‘‘घर मंदिर/पति-पत्नी व बच्चा/तीन मूर्तियाँ’’। खुशहाल जीवन इसे ही कहते हैं।
नारी के सन्दर्भ में दुबे जी का सकारात्मक दृष्टिकोंण ‘हाइकु’ से बाँधे रखता है। आज स्त्री अबला नहीं, सबला है। भावनात्मक सूत्र को व्यर्थ मानकर, आगे पहुँच रही है। प्लेन उड़ाने वाली, देश-विदेश की कम्पनी में काम करने वाली, पुलिस, शिक्षा, न्याय आदि पदों पर काम करती स्त्री किसी पर निर्भर नहीं है- ‘‘कल्पना परी/प्लेन उड़ा रही/औरत आज’’। दुबे जी ने जहाँ स्त्री के सकारात्मक पक्ष को उभारा है, वहीं उसके नकारात्मक पक्ष पर उँगली भी उठाई है- ‘‘पर्याय बनी/क्लब-बार-कॉल की/औरत आज’’। दुबे जी ने अकेली स्त्री की पीड़ा और पुरुषों की उसके प्रति नकारात्मक दृष्टि को भी चित्रित किया है- ‘‘अकेली नारी/दीदे फाड़ देखते/शंकालु लोग’’। राजनीति के प्रपंच किसी से अछूते नहीं हैं। दुबे साहब ने भी इसे निशाने पर लिया है।
कोई कविता तभी रमणीय बनती है, जब भाव और कला- दोनों पक्षों में अन्योन्याश्रित मेल और सन्तुलन बना रहे। इस हाइकु संग्रह में दोनों पक्षों का सुन्दर तालमेल है, यही कारण है कि इस संग्रह को पढ़ते हुए सुपरिचित और आत्मीय बोध का परिचय मिलता है। किसी कविता की सकारात्मक स्थापना वही हो सकती है जो मनुष्य की श्रेष्ठ संस्कृति, परम्पराओं और जीवन मूल्यों के सहकार में हो। एक आत्मकेन्द्रित इकाई इस सहकार की संवाहक नहीं हो सकती। अकेलेपन से जूझते कवि के सामाजिक संदर्भ अधिक मूर्त और प्रकट हैं। कवि के लिए संघर्ष के अनुभव बिम्बों की श्रंखला दूर तक जाती है। अन्तर्वस्तु का तनाव जटिल रूप में भी दिखाई देता है। चिन्तन प्रक्रिया हाइकु के रूप या बनावट में भी हस्तक्षेप करती है।
‘हाइकु’ कविता की भाषा में विशिष्टता लाने के लिए दुबे जी संवेदना का अद्भुत मेल लाते हैं। गद्य में चाहे हम जैसे भी तोड़-मरोड़कर भावों को विस्तार दे सकते हैं, परन्तु ‘हाइकु’ जैसी कविता में एक पूरी कहानी रच देना दुष्कर कार्य है। समाज के हर पक्ष को जिस साफगोई से कवि वर्णित करता है, यह मानवीय मूल्यों से उसके लगाव और जड़ता से संघर्ष की उसकी इच्छा का द्योतक है। कवि की शैली विषय-वस्तु के अनुरूप परिवर्तनशील है। अनुभूति जिस ओर प्रेरित करती है, उसी ओर कवि का सहज गमन होता है। कवि ने लोक प्रचलित सहज सरल भाषा और भाव शब्दों के साथ संगति मिलाकर भावार्थ का संप्रेषण किया है। यह सहजता हाइकु को अतिरिक्त शक्ति प्रदान करती है और कथ्य की उपादेयता बढ़ा देती है। दुबे जी ने किसी विषय को अछूता नहीं रखा है, दुनिया में निहित प्रपंचों को तीक्ष्ण और सूक्ष्म नजर से जाँचा परखा है। अन्तर्मन की कविताएँ, निस्वार्थ रिश्तों में स्वान्तः सुखाय भी हैं। ये हाइकु हमारे आसपास के अनेक विषयों को उठाकर रचे गये हैं। संवेदना के धरातल पर जीता हुुआ कवि कथ्य-तथ्य-सत्य की सार्थकता की उचित पहचान कराता है। डॉ. दुबे जी की ये रचनाएँ भाषा, शिल्प की दृष्टि से अनुपम हैं।
सात सौ सत्रह हाइकु मंत्रम् : हाइकु संग्रह : डॉ. सतीश दुबे। प्रकाशक : पार्वती प्रकाशन, 73-ए, द्वारिकापुरी, ज्ञानसागर स्कूल गली, इन्दौर। मूल्य : रु. 100/- मात्र। संस्करण : 2015।
- 119, रायल कृष्णा, एमराल्ड हाईट्स स्कूल के पास, ए.बी. रोड, राऊ, इन्दौर, म.प्र./मोबा. 09425844990
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