अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 03, अंक : 03-04, नवम्बर-दिसम्बर 2013
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में सु-श्री रचना श्रीवास्तव, सर्व-श्री राम मेश्राम, शैलेन्द्र चाँदना, दिलबाग विर्क, मोहन लोधिया, शैलेन्द्र सरस्वती की कविताएं।
रचना श्रीवास्तव
आतंक के तांडव में
आतंक के तांडव में
इंसानियत को
पर्त दर पर्त छीलता हुआ
एक दुबली काया पर
वो अपना शिकंजा कसने को था
के उन आँखों का सूरज देख
पूछ बैठा
बता तेरी अंतिम इच्छा क्या है?
आखेट पर थी हिरनी
फिर भी बोली
छीनते हाथ देंगे क्या ?
पर दे सको तो
मेरे टूटे छप्पर पर
एक बरसाती बिछा देना
बहुत टपकता है बरसात में
मेरे भूखे बच्चों को
भोजन का भरम दे देना
मै कई दिनों से
उनके लिए भूख पका रही थी
हो सके तो उनकी
खाना मिलने की उम्मीद बचा लेना
मेरी बेटी 14 वें बसंत में है
गरीबी में जवानी
वो कमल है
जिसे हर कोई
अपनी जागीर समझ
तापने की चाह रखता है
निचोड़ रंग उसके
पल अपने रंगीन कर
कैनवास भरना चाहता है
सभी की गिद्धी निगाहों से
मैने छुपा रखा था उसे
उसकी खुशबू बिखरने से बचा लेना
मेरा छोटा
धनक के रंगों पर चढ़
तारों की नोक छूना चाहता है
मन की उड़ान से
जीवन के हर पहलू को जीना चाहता है
पर नहीं
उस के सुंदर नैनों में
ज्योति पुंज का वास नहीं
माँ कह के बढ़ाये जो हाथ
तो थाम लेना
स्वयं बिखर
मैंने इन्हें समेटा है
इनके लिए उम्मीद लेने निकली थी
कुछ सिक्के चमके हाथों में
पर रूह का तिनका-तिनका बिखर गया
ये फड़फड़ाती उम्मीद
उन तक पंहुचा सको तो....
मै माँ हूँ
मुझसे लिपटी हैं बहुत सी जिम्मेदारियाँ
मैं कटी तो वो भी मुरझा जायेंगी
बचा सको तो उन्हें
झड़ने से बचालो
या ममता का बोझ उठा लो
मेरी इच्छाओं की गिरह बांध लो
इस रक्तपात में
शब्द जो बिखर गए
अभिलाषा खंड-खंड हो
तुम्हारी सोच में चुभेगी
आतंकवादी हो
करोगे हत्याएँ
फैलाओगे आतंक
पर दोष तुम्हारा नही
क्या कर रहे हो
खुद जानते नहीं
तुम्हारी सोचें गुलाम है
तंत्रिकाओं पर किसी और का पहरा है
उसी के निर्देश पर
बह रहे हो
इस बहाव में कुछ रोड़े अटका के
किनारे लग सको तो लग जाओ
शब्दों को चबाता हुआ
कुछ सोचता रहा
उस औरत को
वहीं छोड़
वो आगे बढ़ा
तभी एक
धमाका हुआ
अपनी नफरत का लावा
उसने खुद में ही उड़ेल लिया था
शायद उसकी
सोई आत्मा जाग गई थी
बीबी बहुत शरीफ है घर में, तो क्या हुआ
भीतर सड़ाँध मारते बूढ़े खयालो-ख्वाब
गरजे जुनूने-खून के प्यासे कई त्रिशूल
खारिज खुद जिनको ताश के पत्तों ने कर दिया
होती है बेलिबास सियासत इसी जगह
बाज़ार-हाट सब तेरे, हम भी तेरे गुलाम
शैलेन्द्र चाँदना
स्वर्णिम चोरी
पौ फटते ही
कैसे जगा देती है तुमको
सूरज की किरणों से निसृत
कानों में रची तुम्हारे
उसकी वह मन्द-मन्द मुस्कान
री कोयलिया!
क्या रिश्ता, क्या नाता तुम्हारा है
सूरज से
बतलाओ तनिक हमको भी
मुमकिन है देख सकें तुम्हारी नजरों से हम भी
उस स्वर्णिम आभा को
जिसे अकेली तुम चुरा लिया
करती हो अपने नयनों से
कहा उसने तब :
हो जाता संभव और आसान
केवल अनुशासन से है
यदि ले आओ कुछ खुशियों के मोती तुम
उस पावन वेला में
हिल-मिलकर कर लेंगे चोरी
हम-तुम
सूरज की स्वर्णिम मुस्कान।
दिलबाग विर्क
ग़ज़ल
कुछ नया इसमें नहीं, दास्तां पुरानी दे गया।
यार मेरा आँख को नमकीन पानी दे गया।
मैं इसे सबको सुनाऊं, लोग सुनते झूम के
वो जलाकर दिल मेरा, मुझको कहानी दे गया।
भूल सकता हूँ भला मैं किस तरह उसको बता
याद करने को तड़पता दिल निशानी दे गया।
हक उसे तो है मुकरने का मगर मुझको नहीं
हल्फनामा ले गया, वादा जुबानी दे गया।
बाद मुद्दत जी रहे जिनको लगाकर हम गले
प्यार करके ‘विर्क’ वो यादें सुहानी दे गया।
मोहन लोधिया
{श्री मोहन लोधिया का ग़ज़ल संग्रह ‘तरन्नुम’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इस संग्रह से दो प्रतिनिधि ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
एक
रात में ख्वाब पल गया कोई
सुबह होते ही छल गया कोई
तैरता था जो मेरी आंखों में
ख्वाब आंसू में ढल गया कोई
फंस गया चश्मदीद सीधा सा
बचके क़ातिल निकल गया कोई
मैं तो बच-बचके चल रहा था
पर मूंग छाती पर दल गया कोई
लोग मायूस मेरी तरक्की से थे
फिर भी सुनके उछल गया कोई
दो
बेवजह ये महक उठी तो नहीं
तेरी जुल्फें कहीं खुलीं तो नहीं
बागबां को भी अब नहीं मालूम
फिर कली वहां कोई खिली तो नहीं
चाँदनी में नई चमक क्यों है
ये तेरे रूप में धुली तो नहीं
एतवार अब कहाँ अदालत पर
मेरे कातिल से ये मिली तो नहीं
धुप अंधेरा भी हो गया रोशन
शमआ कोई यहाँ जली तो नहीं
शैलेन्द्र सरस्वती
मुझसे जब भी रूठा होगा
मुझसे जब भी रूठा होगा
तू भी तनहां तनहां होगा
बाहर खुशी छलकती होगी
भीतर सहमा सहमा होगा
सबको बदन लुटा दोगे पर
दिल मुझसे ही उलझा होगा
किससे बात करोगे दिल की
मुझसा कौन दिवाना होगा
शैल वो मेरा साकी शायद
झूठे जहां से बहका होगा
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में सु-श्री रचना श्रीवास्तव, सर्व-श्री राम मेश्राम, शैलेन्द्र चाँदना, दिलबाग विर्क, मोहन लोधिया, शैलेन्द्र सरस्वती की कविताएं।
रचना श्रीवास्तव
आतंक के तांडव में
आतंक के तांडव में
इंसानियत को
पर्त दर पर्त छीलता हुआ
एक दुबली काया पर
वो अपना शिकंजा कसने को था
के उन आँखों का सूरज देख
पूछ बैठा
बता तेरी अंतिम इच्छा क्या है?
रेखा चित्र : शशि भूषण बडोनी |
फिर भी बोली
छीनते हाथ देंगे क्या ?
पर दे सको तो
मेरे टूटे छप्पर पर
एक बरसाती बिछा देना
बहुत टपकता है बरसात में
मेरे भूखे बच्चों को
भोजन का भरम दे देना
मै कई दिनों से
उनके लिए भूख पका रही थी
हो सके तो उनकी
खाना मिलने की उम्मीद बचा लेना
मेरी बेटी 14 वें बसंत में है
गरीबी में जवानी
वो कमल है
जिसे हर कोई
अपनी जागीर समझ
तापने की चाह रखता है
निचोड़ रंग उसके
पल अपने रंगीन कर
कैनवास भरना चाहता है
सभी की गिद्धी निगाहों से
मैने छुपा रखा था उसे
उसकी खुशबू बिखरने से बचा लेना
मेरा छोटा
धनक के रंगों पर चढ़
तारों की नोक छूना चाहता है
मन की उड़ान से
जीवन के हर पहलू को जीना चाहता है
पर नहीं
उस के सुंदर नैनों में
ज्योति पुंज का वास नहीं
माँ कह के बढ़ाये जो हाथ
तो थाम लेना
स्वयं बिखर
मैंने इन्हें समेटा है
इनके लिए उम्मीद लेने निकली थी
कुछ सिक्के चमके हाथों में
पर रूह का तिनका-तिनका बिखर गया
ये फड़फड़ाती उम्मीद
उन तक पंहुचा सको तो....
मै माँ हूँ
मुझसे लिपटी हैं बहुत सी जिम्मेदारियाँ
मैं कटी तो वो भी मुरझा जायेंगी
बचा सको तो उन्हें
झड़ने से बचालो
या ममता का बोझ उठा लो
मेरी इच्छाओं की गिरह बांध लो
इस रक्तपात में
शब्द जो बिखर गए
अभिलाषा खंड-खंड हो
तुम्हारी सोच में चुभेगी
आतंकवादी हो
करोगे हत्याएँ
फैलाओगे आतंक
पर दोष तुम्हारा नही
रेखा चित्र : विज्ञान व्रत |
क्या कर रहे हो
खुद जानते नहीं
तुम्हारी सोचें गुलाम है
तंत्रिकाओं पर किसी और का पहरा है
उसी के निर्देश पर
बह रहे हो
इस बहाव में कुछ रोड़े अटका के
किनारे लग सको तो लग जाओ
शब्दों को चबाता हुआ
कुछ सोचता रहा
उस औरत को
वहीं छोड़
वो आगे बढ़ा
तभी एक
धमाका हुआ
अपनी नफरत का लावा
उसने खुद में ही उड़ेल लिया था
शायद उसकी
सोई आत्मा जाग गई थी
- 2715 Chattanooga Loop, apt 104, Ardmore OK 73401
- ई मेल : rach_anvi@yahoo.com
राम मेश्राम
ग़ज़ल
दिल इख़्तियार करता है तेवर नए-नए
मक्रो-फरेबो-झूठ के जौहर नए-नए
बीबी बहुत शरीफ है घर में, तो क्या हुआ
अय्यास दिल की माँग है, दिलवर नए-नए
भीतर सड़ाँध मारते बूढ़े खयालो-ख्वाब
फैशन परस्त स्वांग हैं, बाहर नए-नए
गरजे जुनूने-खून के प्यासे कई त्रिशूल
चमके हवा में, मज़हबी ख़ंजर नए-नए
घर-घर में उग रहे हैं, लो ईश्वर नए-नए
खारिज खुद जिनको ताश के पत्तों ने कर दिया
ग़ालिब हैं मंच पर वही जोकर नए-नए
होती है बेलिबास सियासत इसी जगह
देते रहें अवाम को चक्कर नए-नए
बाज़ार-हाट सब तेरे, हम भी तेरे गुलाम
स्वागत है मल्टीनेशनल हिटलर नए-नए
- एफ-115/29, शिवाजी नगर, भोपाल-462016, म.प्र.
शैलेन्द्र चाँदना
स्वर्णिम चोरी
पौ फटते ही
कैसे जगा देती है तुमको
सूरज की किरणों से निसृत
कानों में रची तुम्हारे
उसकी वह मन्द-मन्द मुस्कान
री कोयलिया!
क्या रिश्ता, क्या नाता तुम्हारा है
सूरज से
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
मुमकिन है देख सकें तुम्हारी नजरों से हम भी
उस स्वर्णिम आभा को
जिसे अकेली तुम चुरा लिया
करती हो अपने नयनों से
कहा उसने तब :
हो जाता संभव और आसान
केवल अनुशासन से है
यदि ले आओ कुछ खुशियों के मोती तुम
उस पावन वेला में
हिल-मिलकर कर लेंगे चोरी
हम-तुम
सूरज की स्वर्णिम मुस्कान।
- 1/6-सी, मोहिनी रोड, देहरादून (उत्तराखण्ड)
दिलबाग विर्क
ग़ज़ल
कुछ नया इसमें नहीं, दास्तां पुरानी दे गया।
यार मेरा आँख को नमकीन पानी दे गया।
मैं इसे सबको सुनाऊं, लोग सुनते झूम के
वो जलाकर दिल मेरा, मुझको कहानी दे गया।
भूल सकता हूँ भला मैं किस तरह उसको बता
याद करने को तड़पता दिल निशानी दे गया।
छाया चित्र : आदित्य अग्रवाल |
हक उसे तो है मुकरने का मगर मुझको नहीं
हल्फनामा ले गया, वादा जुबानी दे गया।
बाद मुद्दत जी रहे जिनको लगाकर हम गले
प्यार करके ‘विर्क’ वो यादें सुहानी दे गया।
- गाँव व डाक: मसीतां डबवाली, सिरसा-125104, हरियाणा
मोहन लोधिया
{श्री मोहन लोधिया का ग़ज़ल संग्रह ‘तरन्नुम’ इसी वर्ष प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत हैं उनके इस संग्रह से दो प्रतिनिधि ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
एक
रात में ख्वाब पल गया कोई
सुबह होते ही छल गया कोई
तैरता था जो मेरी आंखों में
ख्वाब आंसू में ढल गया कोई
फंस गया चश्मदीद सीधा सा
बचके क़ातिल निकल गया कोई
मैं तो बच-बचके चल रहा था
छाया चित्र : अभिशक्ति |
पर मूंग छाती पर दल गया कोई
लोग मायूस मेरी तरक्की से थे
फिर भी सुनके उछल गया कोई
दो
बेवजह ये महक उठी तो नहीं
तेरी जुल्फें कहीं खुलीं तो नहीं
बागबां को भी अब नहीं मालूम
फिर कली वहां कोई खिली तो नहीं
चाँदनी में नई चमक क्यों है
ये तेरे रूप में धुली तो नहीं
एतवार अब कहाँ अदालत पर
मेरे कातिल से ये मिली तो नहीं
धुप अंधेरा भी हो गया रोशन
शमआ कोई यहाँ जली तो नहीं
- 135/136, ‘मोहन निकेत’, अवधपुरी, नर्मदा रोड, जबलपुर-482008 (म.प्र.)
शैलेन्द्र सरस्वती
मुझसे जब भी रूठा होगा
मुझसे जब भी रूठा होगा
तू भी तनहां तनहां होगा
बाहर खुशी छलकती होगी
भीतर सहमा सहमा होगा
सबको बदन लुटा दोगे पर
दिल मुझसे ही उलझा होगा
छाया चित्र : रोहित कम्बोज |
किससे बात करोगे दिल की
मुझसा कौन दिवाना होगा
शैल वो मेरा साकी शायद
झूठे जहां से बहका होगा
- नारायणी निवास, धरणीधर कॉलोनी, उस्तों की बारी के बाहर, बीकानेर-334005,राजस्थान
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 02-01-2014 को चर्चा मंच पर दिया गया है
जवाब देंहटाएंआभार
कुछ बेह्रारिन रचनाएं पढवाने के लिए आभार ! रचना जी की कविता सामयिक और विचार उत्पादक है !
जवाब देंहटाएंनया वर्ष २०१४ मंगलमय हो |सुख ,शांति ,स्वास्थ्यकर हो |कल्याणकारी हो |
नई पोस्ट नया वर्ष !
नई पोस्ट मिशन मून