अविराम ब्लॉग संकलन : वर्ष : 3, अंक : 05-06, जनवरी-फरवरी 2014
।।कविता अनवरत।।
लाखन सिंह भदौरिया ‘सौमित्र’
इसी विश्व की मधुमयी वाटिका का मैं भी मधुर फूल बनता किसी दिन।
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : सर्वश्री लाखन सिंह भदौरिया ‘सौमित्र’, डॉ. विनोद निगम, वेद व्यथित, जगन्नाथ ‘विश्व’, कृष्णमोहन अम्भोज, अनिल पतंग, आकांक्षा यादव व सुधीर मौर्य ’सुधीर’ की कविताएं।
इसी विश्व की मधुमयी वाटिका का
मगर विश्व की वंचना के करों से, कली रूप में ही मरोड़ा गया मैं
नियति के निठुरतम करों से मसलकर, मृदुल वृन्त से आह तोड़ा गया मैं
हृदय हारिणी प्रीति सौरभ लुटा कर भली भांति उर को खिला भी न पाया
अपने सनेही मधुप मीत को, प्रीति मकरन्द प्याली, पिला भी न पाया।
भले अर्चना में चढ़ाया न जाता, मगर प्रिय चरण धूल बनता किसी दिन।
इसी विश्व की मधुमयी वाटिका का मैं भी मधुर फूल बनता किसी दिन।
अनपारखी जौहरी के करों से, जो अनमोल हीरा लुटाया न जाता।
अनजान के हाथ में सौंप कर जो मधुर चित्र, मेरा मिटाया न जाता।
तो मधु प्रात, मेरा भी होता अनोखा, अमर यामिनी का न साम्राज्य होता
बनता मरुस्थल न मेरा सरस उर सभी के लिये मैं नहीं त्याज्य होता
मैं भी किसी हृदय की तटी का, अनोखा कलित कूल बनता किसी दिन।
इसी विश्व की मधुमयी वाटिका का मैं भी मधुर फूल बनता किसी दिन।
बहुत पास से निकल गये तुम
बहुत पास से निकल गये तुम, जाते हुये पुकार न पाया।
जीवन भर की थकन भरी थी फीकी फीकी मुस्कानो में।
इतनी गहरी रची उदासी, चित्र बन गये सुनसानो में।
आँखों से अधढुलके आँसू का मधु रूप निहार न पाया।
बहुत पास से निकल गये तुम, जाते हुये पुकार न पाया।
तुम भी अपने में खोये थे रुके नहीं आँसू के द्वारे।
अन्तर्लीन चरण की गति को अश्रु प्रवीण, परवार न पाया।
बहुत पास से निकल गये तुम, जाते हुये पुकार न पाया।
बोझिल-बोझिल सी पलकों पर ठहरा हुआ अकेलापन था।
अपने को निहारते थे दृग, टूटा हुआ सपन दर्पन था।
सहमी-सी रह गयी तूलिका, मैं वह चित्र उतार न पाया।
बहुत पास से निकल गये तुम, जाते हुये पुकार न पाया।
सेवा का अवसर पाने को, अमृत लिये, तृप्ति चलती थी।
एक दृष्टि का दान मिल सके, बाँधे हाथ मुक्ति चलती थी।
अपराधी-सा मिलन साथ था, अपना जन्म, सँवार न पाया।
बहुत पास से निकल गये तुम, जाते हुये पुकार न पाया।
- भोजपुरा, मैनपुरी-205001 (उ.प्र.)
डॉ. विनोद निगम
राकेश दीवान के लिए एक गीत
गीत नया रचना है, और गुनगुनाना है
भाए मन को तो, राकेश को सुनाना है
दर्द जब मुखातिब था, गीत सहज आते थे
बूँद बूँद आँसू थे, शब्द-शब्द गाते थे
दुखते मन पर, मरहम छन्द ही लगाते थे
अब तो सुविधाएँ हैं, सुख की समिधाएँ हैं
कीर्ति, यश मिला है जो, बस उसे भुनाना है।
पाँवों की गर्मी से, राह पिघल जाती थी,
धूप जेठ की, भूख पर चन्दन मल जाती थी
रिसती छत-दीवारें, अर्थ नये बुनती थीं
शिशिर की गलन भी, तब नई गज़ल गाती थी
सड़कों में तब रस था, ऋतुओं पर भी बस था
ए सी के बन्दी अब, मौसम के नन्दी अब
नये शीर्षक में, बस खुद को दोहराया है।
दिन थे यात्राओं के, मित्रों की रातें थीं
चर्चाओं की पूँजी, बेशुमार बातें थीं
नाहक मिलना जुलना, घूमना अकारण ही
निरावरण जीवन था, काँच की कनातें थीं
पर्तें ही पर्तें अब, आरोपित शर्तें अब
आदम कद छोटे हैं, पर बड़े मुखौटे हैं
समझौते ही सच, जीवन इन्हें निभाना है।
गीत नया रचना है, और गुनगुनाना है
भाए मन को तो, राकेश को सुनाना है
- ‘नन्द कुटीर’, शनीचरा, होशंगाबाद, म.प्र.
वेद व्यथित
आकर्षण
काजल की रेख कहीं
अंदर तक पैठ गई
तमस की आकृतियाँ
अंतर की सुरत हुईं
मन को झकझोर दिया
गहरी सी सांसों ने...
दूर कहाँ रह पाया
आकर्षण विद्युत सा
अंग अंग संग रहा
तमस बहु रंग हुआ
गहरे तक डूब गया
रेखा चित्र : बी. मोहन नेगी |
अपनी ही साँसों में...
चाहा तो दूर रहूँ
शक्त नही मन था
कोमल थे तार बहुत
टूटन का डर था
सोचा संगीत बजे
उच्छल इन साँसों में...
जो भी जिया था
उस क्षण का सच था
किस ने सोचा ये
आगे का सच क्या
फिर भी वो शेष रहा
जीवन की सांसों में....
- अनुकम्पा, 1577, सेक्टर-3,फरीदाबाद-121004, हरियाणा
जगन्नाथ ‘विश्व’
हैरान है पूनम
रोशनी गयी कहाँ आश्चर्य चकित हम
लगता है अमावस से हैरान है पूनम
मना रही जश्न लफंगों की टोलियाँ
लजा रही हैं नंगेपन से रंगीन कोठियाँ
खिड़की में लगे परदों को आ रही शरम
लगता है अमावस से हैरान है पूनम
चढ़ रही दर कीमतें, है बेहाल आदमी
भीड़ में बम फूटते, बेफिक्र बेरहम
लगता है अमावस से हैरान है पूनम
जुल्मों-सितम से तंग परेशान हैं सभी
सादगी को कितना, दफनायेंगे अभी
हरजाइयों के बीच प्रजा तोड़ रही दम
लगता है अमावस से हैरान है पूनम
- मनोबल, 25, एम.आई.जी., हनुमान नगर, नागदा जं-456335 (म.प्र.)
कृष्णमोहन अम्भोज
सम्बन्धों का रूपान्तरण
उपवनी चेहरे पर
रेतीले चलन।
जिनके
दिन सावन
भादों जैसी रात,
प्यास के लिए
करते हैं वह
पोखर की घात,
धरती के वैभव पर
डाली सच की
नाक में
झूठ ने नकेल,
चल रहे
मुखौटे के
जादू भरे खेल,
सम्बन्धों का हुआ
नाट्य रूपांतरण।
- नर्मदा निवास, न्यू कॉलोनी, पचोर-465683, जिला राजगढ़ (म.प्र.)
अनिल पतंग
हराम की कमाई
टेबुल पर बैठे बैठे
तकता हूँ
कोई काम
काम का जड़
मिलता नहीं
समूचे महीने
बैठ कर कुर्सी पर
दस-पाँच ह्स्ताक्षर
के सहारे
पा लेता हूँ
मोटी तन्खाह
कुछ बाहर पढ़ने
बच्चों को भेज
शेष का राशन
लाता हूँ
रात में जब
खाकर लेटता
हूँ विस्तर पर
तो राशन
बाहर निकल
आना निकल चाहता है
गैस बनकर
सिर को फाड़
क्योंकि वह कमाई
हराम की है।
- संपादक, रंग अभियान, पोस्ट बाक्स नं-10, बेगूसराय (बिहार)-851101।
आकांक्षा यादव
नियति का प्रहार
नारी बढ़ती जाती है
इक नदी की तरह
अपनी समस्त भावनाओं
और संवेदनाओं के प्रवाह के साथ।
जीवन का अद्भुत संगीत और
आगोश में किलकारियों की गूंज
करती है वह नव-सृजन
नित् प्रवाहमान होकर।
लोग रोकते हैं नारी का प्रवाह
सिमेट देना चाहते हैं
उसे घर की चहरदीवारी में
जैसे तालाब या बाँध।
पर इन सबसे बेपरवाह
बढ़ती जाती है नारी
अपनी ही धुन में
ताजगी को बिखेरते
मस्ती को समेटते।
जीवन भर झेलती है
झंझावतों व अत्याचारों को
पर चलती रहती अविरल
भावनाओं व संवेदनाओं के प्रवाह के साथ
और कहती जाती है
मत तोड़ो नियम प्रकृति का
बहने दो मुझे प्रबल आवेग से
अन्यथा सहना पड़ेगा नियति का प्रहार।
- टाइप-5, निदेशक बंगला, जी.पी.ओ. कैम्पस, सिविल लाइन्स, इलाहाबाद-211001(उ.प्र.)
सुधीर मौर्य ’सुधीर’
ख्वाब की किरचें
वक्त ने मेरी
बाह थाम के
मेरी हथेली पर
रेखा चित्र : शशि भूषण बडोनी |
अश्क के
दो कतरे बिखेर दिए
मेरे सवाल पर बोल
ये अश्क की बूँदें नहीं
टूटे ख्वाब की
किरचे हैं
ये तुम्हें याद दिलायेंगी
कि मुफ्लिश
आँखों में
ख्वाब सजाया
नहीं करते..
- ग्राम व पोस्ट गंजजलालाबाद, जनपद-उन्नाव-209869
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