अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 7, अंक : 05-06, जनवरी-फरवरी 2017
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लघुकथाओं में बोलता कहानी का रियाज़
आज लघुकथायें खूब लिखी जा रही हैं लेकिन इनमें बहुत कम याद रखने लायक होती हैं। कथ्य की दृष्टि से वैविध्यपूर्ण होते हुये भी भाषा और शिल्प के प्रयोग यहाँ दुर्लभ हैं। संवेदना की गहराई, संवादों की मार्मिकता, विचारों की मारकता, दृष्टि, कल्पनाशीलता आदि की कमी के चलते अधिकतर लघुकथायें मन पर स्थाई प्रभाव नहीं छोड़ पातीं। इसका कारण है अध्ययन, अभ्यास व धैर्य की कमी।
प्रायः देखा गया है कि जो रचनाकार कहानी लिखते-लिखते लघुकथा में आते हैं, वे
अपेक्षाकृत परिपक्व होते हैं। वे ऊपर वर्णित कमियों से काफी हद तक पार पा चुके होते हैं। ऐसे रचनाकार चाहे लघुकथा कम लिखते हैं, मगर उनमें एक चमक होती है। राजस्थान की ही बात करें तो सत्य नारायण, स्व. रघुनंदन त्रिवेदी, हसन जमाल, रत्नकुमार सांभरिया, हरदर्शन सहगल जैसे कहानीकारों की लघुकथायें शिल्प व ताज़गी के चलते बहुचर्चित हुई हैं। आभा सिंह भी कहानी से लघुकथा में आई हैं। कहानी का रियाज़ उनकी लघुकथाओं में मुँह बोल रहा है। उनके लघुकथा संग्रह ‘माटी कहे’ की जिन लघुकथाओं ने सर्वाधिक प्रभावित किया है, उनमें माटी कहे, बादशाह, प्रतिक्रिया, आवरण, अकेलेपन का दर्द, श्राप, प्रतिवाद, स्थिति-परिस्थिति, अनावृत, परिवर्तन, सफलता, पब्लिक फिगर, मोबाइल, आदेश प्रमुख हैं। ये लघुकथायें मुझे अलग-अलग कारणों से अच्छी लगीं हैं, मसलन- ‘माटी कहे’ और ‘स्थिति-परिस्थिति’ बदलती सामाजिक परिस्थिति में सवर्ण ग्रंथि पर अपने ही ढंग से चोट करती है। ‘स्थिति-परिस्थिति’ तो बहुत ही मारक बन पड़ी है। कई लघुकथाओं में मध्यमवर्गीय मानसिकता का यथार्थ पूरी सिद्दत के साथ व्यक्त हुआ है। हालाँकि अन्य लघुकथाकार भी इस वर्ग की विषम स्थितियों पर कलम चलाते रहे हैं किन्तु ‘बादशाह’ जैसी कसावट कम ही दिखाई देती है। यहाँ एक भी शब्द बेकार नहीं है। ‘प्रतिक्रिया’ में एक नई दृष्टि उभरकर आई है कि स्मार्ट होना अलग बात है और सुन्दर होना अलग। दरअसल सुन्दरता नैसर्गिक होती है जो सहज रूप से हमारा ध्यान खींच लेती है, बिना किसी बनाव-शृंगार के।
कई कथाओं में भाषा की सजगता, संवादों का टटकापन, परिवेश पर पकड़, सांकेतिकता, कहने की नवीनता आदि ऐसी विशेषताएँ हैं, जो पाठक को सहज ही बाँध लेती हैं। खरखरी आवाज, चप्पल-जूतों की खिसखिसाहट, भक्षक प्रवृत्ति के अस्तित्व का नाम, झलर-मलर होती हुई, सफेद-बुर्राक कपड़े पहने- जैसे वाक्य-प्रयोग रचनाकार को उन सैकड़ों लघुकथाकारों से अलग ज़मीन पर खड़ा करते हैं, जो अपनी भाषायी कमजोरी को सपाटबयानी की आड़ में छिपाने की कोशिश करते हैं। लघुकथा में पात्रों को यादगार बनाने का हुनर अभी कम लघुकथाकारों को आया है। असग़र वजाहत, विष्णु नागर ने जरूर इस दिशा में सफलता पाई है। आभाजी की कम से कम दो लघुकथाओं में यह हुनर साफ नज़र आया है। ये हैं- ‘मोबाइल’ और ‘पब्लिक फिगर’। संयोग से दोनों की ही पात्र इमरती नाम की महिलाएँ हैं। लेखिका चाहें तो इस शृंखला की और भी लघुकथायें लिख सकती हैं।
कहा जाता है कि लघुकथा जैसी सीमित कलेवर वाली विधा में परिवेश के चित्रण की ज्यादा छूट नहीं होती परन्तु लेखिका ने कुछ लघुकथाओं में बड़े कौशल के साथ यह छूट हासिल की है। ‘श्राप’ में परिवेश का ऑब्जरवेशन सराहनीय है। यह लघुकथा का हिस्सा लगता है न कि थोपा हुआ। ‘अपनापन’ में लेखिका ने राजस्थान के आदिवासियों की परम्परा- ‘मौताणा’ का अनूठा प्रयोग किया है। ‘अनावृत’ का सांकेतिक समापन बहुत कुछ कह जाता है। दरअसल इन लघुकथाओं का आरम्भ व अंत अलग से चर्चा का विषय है, यहाँ ये बिन्दु बड़े सधे हुए अंदाज़ में सामने आते हैं।
कुछ लघुकथायें कमजोर भी हैं परन्तु मैं उनका जिक्र करना जरूरी नहीं समझता। सजग रचनाकार को अपनी रचनाओं की कमियों का बखूबी भान होता है। भविष्य में लेखिका से और भी सशक्त रचनाओं की आशा है। उज्जवल भविष्य की शुभकामनाएँ।
माटी कहे : लघुकथा संग्रह : आभा सिंह। प्रकाशक : पार्वती प्रकाशन, 73-ए, द्वारकापुरी, ज्ञानसागर स्कूल गली, इंदौर-452009, म.प्र.। मूल्य : रु. 200/-। संस्करण : 2015।
- लाल मादड़ी, नाथद्वारा-313301, राज./मो. 09829588494
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