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बुधवार, 14 फ़रवरी 2018

किताबें

डॉ. उमेश महादोषी





प्रेम एवं परिवेश की अनुभूतियों की कविता 
   
      चित्रकार हृदय से कवि होता है, भले वह शब्दों को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाए या नहीं। लेकिन जब चित्रकार शब्दों को अपनाता है तो उसकी कविता में प्रायः अनुभूतियों का सघन रूप देखने को मिलता है। हमारे समकालीनों में संदीप राशिनकर, विज्ञान व्रत आदि जैसे कई उदाहरण हैं। संदीप राशिनकर जी के कविता
संग्रह ‘कैनवास पर शब्द’ की कविताओं ने काफी प्रभावित किया था। अब वह अपनी सहधर्मिणी कवयित्री श्रीति राशिनकरजी के साथ संयुक्त संग्रह में सामने आए हैं। नए कविता संग्रह ‘कुछ मेरी कुछ तुम्हारी’ में श्रीतिजी की 37 व संदीपजी की 25 कविताएँ हैं। 
      श्रीतिजी का यह पहला कविता संग्रह है, लेकिन उनकी अनुभूतियाँ बेहद स्पष्ट, रचनात्मक और परिपक्व हैं। उनकी कविताओं में समृद्ध दृष्टि से जनित प्रेम और संवेदना के सुन्दर बिम्ब उभरते हैं। पहली ही कविता में प्रेम परछाई में बदलकर घनीभूत हो जाता है- ‘‘मैं ढूंढ़ती हूं/मेरे आसपास तुम्हें/और/तुम हो कि/बन जाते हो परछाई मेरी।’’ उनकी इन कविताओं में ‘माँ’ और ‘बेटियाँ’ बार-बार आती हैं, लेकिन किसी विमर्श के लिए नहीं। उनका आना केवल और केवल प्रेम के प्रतिबिम्बों का उभरना है, जो उसकी गहनता, व्यापकता और शाश्वतता को सामने रखता है। माँ पर लिखी एक कविता में देखें- ‘‘...जब भी मैं उदास हो जाऊं/झरने सी हंसाती/सपने में माँ’’। इसी प्रकार बेटियों पर लिखी कविता में- ‘‘बेटियां एक मीठा-सा सपना/जैसे आसमां और धरा का मिलना/कमल का कीचड़ में खिलना/शब्द का लय से मिलना’’। इस गहनता को बढ़ाने तितलियाँ और चिडिया भी कई बार आई हैं। एक समृद्ध दृष्टि चीजों को व्यक्तिगत परिवेश तक सीमित नहीं रहने देती, न ही व्यक्तिगत अहसासों तक। इसीलिए श्रीतिजी की कविताओं में प्रेम का सामाजिक विस्तार भी है, जिसे ‘हाट जाती महिलाएं’, ‘आंगन’ आदि कविताओं में देखा जा सकता है। प्रेम और संवेदना की इन अनुभूतियों को बुनते हुए श्रीतिजी ने स्वयं को विमर्श निरपेक्ष कर लिया हो, ऐसा भी नहीं है। हाँ, विमर्श में वह एक स्त्री के रूप में शामिल होती हैं- ‘‘लेकिन/जब-जब मैं/जीवन के कठिन पलों को/सफलता से पार करती हूँ/तब-तब/मैं/सिर्फ एक स्त्री हूं।’’ ‘शक्ति’ में यह बिम्ब और भी स्पष्टता से उभरता है। कुछेक कविताओं में रिश्तों के मध्य सर्द अहसासों और उपेक्षाओं से जनित अनुभूतियों को भी अभिव्यक्ति मिली है। बोन्साए, विज्ञापनों में, आधुनिक, पता आदि जैसी कविताओं में सामाजिक सरोकारों की प्रतिबद्वता भी दिखती है। शिल्प के स्तर भी ये कविताएँ प्रभावित करती हैं।
      संदीपजी इस संग्रह की अपनी कविताओं में ‘कैनवास पर शब्द’ से भी काफी आगे निकल आए हैं। कहीं-कहीं ऐसा लगता है कि उन्होंने कुछ कविताओं में अपनी सहचरी की प्रेम कविताओं में व्यक्त मनोभावों के प्रति कुछ सकारात्मक भाव-प्रदर्शन किया हो- ‘‘किन्तु/दिला सकता हूँ तुम्हें/इस बात का यकीं/कि तुम्हें/भूलूँगा कभी नहीं!!’’ वास्तव में इसे ग्रहण की गई प्रेमानुभूति की स्वीकारोक्ति की अभिव्यक्ति माना जाना चाहिए। और ग्रहण की गई प्रेमानुभूति है- ‘‘दूर कहीं/बज उठी/नूपुर की झंकार/चूड़ियों की खनकार/लगता है/शायद/दहलीज तक/आ गया है प्यार’’। कवि की दृष्टि में प्रेम अनुभूति की व्याप्ति है, हाथ में पकड़ा गया गुलाब का फूल नहीं। शायद इसीलिए वह शब्दों से परे प्रेमपत्र लिखकर अपने मनोभावों को एक नाद, एक ध्वनि के रूप में संप्रेषित करना चाहता है- ‘‘तुम्हें/सौंपना चाहता हूँ/एक नाद, एक ध्वनि/जो युगों-युगों तक/होती रहे निनादित/तुम्हारे/अंतरिक्ष में!!’’ निसंदेह संदीपजी की कविताओं में भी प्रेम की अनुभूति अत्यंत गहरी है, शायद अभिव्यक्ति में कलम जनित शब्दरूप में उनकी तूलिका भी रंग भर रही है। रिश्तों और संवाद पर जम रही वर्फ उनकी चिंताओं में शामिल है, इसीलिए उन्होंने लिखा है- ‘‘ऐसे/सहमते/जमते/ठिुठुरते समय में/मैंने/बचा रखी है/संवेदना के कोने में/थोड़ी सी/रिश्तों की गर्माहट’’। यह ऊर्जा उनके अर्न्तमन के भावनात्मक ज्वार को सामाजिक यथार्थ से जोड़ने के लिए आवश्यक है- ‘‘मत दो मुझे/इतनी ऊंचाइयां/के डाल न पाऊं/तुम्हारे गले में/गलबहियां।’’ मनुष्य के होने की सार्थकता भी तो इसी में है! यही चीज अन्ततः उन्हें सामाजिक सरोकारों से भी जोड़ती है, जहाँ वह हमारे परिवेश में विसंगतियों से जनित प्रश्नों को- संवादहीन, और कब तक, टापें जैसी कविताओं में उभारते हुए संग्रहालय कविता में जल बूँदों के संरक्षण की बात और सामाजिक आक्रोश से जनित परिवर्तन की शान्त अन्तःधारा की मारक प्रकृति को लेकर आगाह भी करते हैं- ‘‘भरभरा कर/ढह जाती है सत्ता/पता भी नहीं लगता/अनोखे हो गए हैं/तेवर प्रहार के’’।
      गौरैया, घोंसला जैसी कविताओं में चिड़िया कविता के लिए संदीपजी को अपरिहार्य लगती है। श्रीतिजी की कविताओं की तरह तितलियाँ और बेटियाँ संदीपजी की कविताओं में भी अनुभूति की सघनता, सम्प्रेषण और सौन्दर्य बोध को बढ़ाती हैं। ऐसी कई और भी चीजें- प्रेम, हाट, पिता की उपस्थिति आदि दोनों की कविताओं में सामान्य हैं, जो एक तरह से जुगलबंदी जैसा दृश्य उपस्थित करती हैं। सभी कविताओं को संदीपजी ने अपने रेखांकनों में भी भावबद्ध किया है। कुल मिलाकर प्रेम एव परिवेश की अनुभूतियों से प्रेरित अभिव्यक्ति की अकुलाहट को जीते दम्पत्ति की यह काव्यधारा प्रभावशाली भी है और अनूठी भी!

कुछ मेरी कुछ तुम्हारी : काव्य संग्रह : श्रीति राशिनकर व संदीप राशिनकर। प्रकाशक : अन्सारी पब्लिकेशन, प्रसार कुंज, सेक्टर पाई, ग्रेटर नोएडा, उ.प्र.। मूल्य : रु. 250/-। सं. : 2015।

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