।।कविता अनवरत।।
जेन्नी शबनम
दो कविताएँ
प्रलय...
नहीं मालूम कौन ले गया
रोटी को और सपनों को
सिरहाने की नींद को
और तन के ठौर को
राह दिखाते ध्रुव तारे को
और दिन के उजाले को
मन की छाँव को
और अपनों के गाँव को
धधकती धरती और दहकता सूरज
बौखलाई नदी और चीखता मौसम
बाट जोह रहा है
मेरे पिघलने का
मेरे बिखरने का
मैं ढहूँ तो एक बात हो
मैं मिटूँ तो कोई बात हो!
खिड़की मर गई है...
खिड़की सदा के लिए बंद हो गई है
वह अब बाहर नहीं झाँकती
ताज़े हवा से नाता टूट गया
सूरज अब दिखता नही
पेड़ पौधे ओट में चले गए
बिचारी खिड़की
उमस से लथपथ
रेखाचित्र : डॉ. सुरेंद्र वर्मा |
घुट रही है
मानव को कोस रही है
जिसने
उसके आसमान को ढँक दिया है
खिड़की उजाले से ही नहीं
अंधेरों से भी नाता तोड़ चुकी है
खिड़की सदा के लिए बंद हो गई है
गोया खिड़की मर गई है।
- द्वारा राजेश कुमार श्रीवास्तव, द्वितीय तल-5/7, सर्वप्रिय विहार, नई दिल्ली-110016
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