।। कथा प्रवाह ।।
वंदना सहाय
झूठे का सच
मनोरमा जी जब पूजा कर कमरे से बाहर निकलीं तो उन्हें तन्नुक कहीं दिखाई नहीं दिया। वे समझ गई कि तन्नुक आज फिर से काम करने समय पर नहीं आएगा। पीकर कहीं लुढ़का पड़ा होगा। होश आते ही वहाँ पहुँचेगा, ढेरों बहाने बनाता हुआ-‘‘क्या बताऊँ मेमसाब! आज तो सरकारी राशन की लाइन इतनी लंबी थी या छोटे वाले को बुखार हो गया था...’’
वे ऊब चुकी थीं, उसकी आदतों से। उनके जी में आता था कि उसे काम से निकाल दें, पर अगले ही क्षण उनको उसके छोटे-छोटे बच्चों का ख्याल आता और मन दया से भर उठता था। उन्हें यह भी पता था कि अगर उन्होनें उसे निकाला तो उसके पीने की आदत की वजह से उसे कोई काम पर नहीं रखेगा। तन्नुक की जानकारी लेने के ख्याल से उन्होनें ड्राइवर को आवाज़ लगाई। मौक़ा देखते ही ड्राइवर भी कान भरने लगा- ‘‘अरे मेमसाब! यह तन्नुक भी आपके दयालु स्वभाव का गलत फायदा उठाता है। अपनी तनखा के पैसों को शराब में उड़ा देता है। फिर आपसे आए दिन किसी न किसी बहाने से पैसे माँगता रहता है।’’
फिर, वही हुआ। शाम को रोनी सूरत बनाए तन्नुक पहुँचा और उसने कहना शुरू किया- ‘‘क्या बताऊँ मेमसाब। आज मेरे घर में खाने तक को राशन नहीं है। घर पर बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं। बारिश के चलते इस महीने बच्चे कई बार बीमार हुए। उनके इलाज में सारे पैसे खर्च हो गए।’’
पर, ड्राइवर द्वारा कुछ ही समय पहले भरे गए कान ने कुछ भी सुनने से साफ़ इनकार कर दिया। उनका दयालु मन आज नहीं पसीजा।
रात को मनोरमा जी के खाने की मेज कई तरह के पकवानों से सज गई। सजे खाने की मेज को देखकर उनका मन वितृष्णा से भर उठा। वे सीधे ड्राइवर को ले कार से उसकी झुग्गी पहुँची। उन्होंने झूठे का सच देखा- मिट्टी का चूल्हा ठंडा पड़ा था, बच्चे बिलख रहे थे। तन्नुक सर घुटनों में डाले बैठा था और पत्नी तेज़ आवाज़ में उसे कोस रही थी।
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