अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 7, अंक : 05-06, फरवरी-मार्च 2018
कपिलेश भोज
दो कविताएँ
विदीर्ण करो यह कुहासा
शिक्षा पर
जितने बढ़ रहे हैं प्रवचन और प्रशिक्षण
उतने ही
शिक्षकों और जरूरी साजोसामान से
खाली होते जा रहे हैं स्कूल और कॉलेज...
स्वास्थ्य पर/जितनी ही बढ़ रही हैं
संगोष्ठियाँ और कार्यशालाएँ
डॉक्टरों और दवाओं से
उतने ही
वंचित होते जा रहे हैं अस्पताल...
जनतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी पर
जितनी बढ़ रही हैं घोषणाएँ
लिखने-पढ़ने और सोचने-विचारने के
नैसर्गिक अधिकार पर
उतने ही
सख्त होते जा रहे हैं पहरे..
हे बन्धु!
कथनी और करनी के
इस मायाजाल के उद्गम का
करो सन्धान
और
विदीर्ण करो यह कुहासा
विदीर्ण करो यह कुहासा
ताकि
देख सको इसके पार...
उम्मीदों के हरकारे
बदहाली
और नाउम्मीदी की
स्याह कठोर चट्टानों से घिरे
दुर्गम पथ से गुजरते
देखो
उम्मीदों के इन हरकारों को...
छिल गए हों
भले ही पैर
हो गए हों क्षत-विक्षत
मगर
नष्ट नहीं कर सका कभी
कोई भी झंझावात इन्हें
पहचानो
ये ही तो हैं
हाँ, ठीक-ठीक पहचानो इन्हेंहर अँधेरे को
चीर देने के लिए सन्नद्ध
तुम्हारे धनुर्धर
जिनके शरों को चाहिए
केवल तुम्हारा संबल...
- सोमेश्वर, जिला अल्मोड़ा-263637 (उत्तराखण्ड)/मोबा. 08958983636
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