अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 7, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2018
।।कविता अनवरत।।
श्रीकृष्ण कुमार त्रिवेदी
गीत
मेरे दरवाजे का बबूल
झुकता है झोंके खा-खाकर,
कहता जाने क्या हँस-हँसकर,
मैं नहीं समझ पाता हूँ कुछ
वह तन जाता है इठलाकर।
तन जाते उसके शूल-शूल।
मेरे दरवाजे का बबूल।।
मैं एकाकी, यह एकाकी,
एक-दूसरे के साथी,
कितने दिन से कर रहे बात
पर बात बहुत अब भी बाकी।
कितनी ही बातें गये भूल।
मेरे दरवाजे का बबूल।।
इसकी डालें ऊपर उठतीं,
फिर शर्माकर नीचे झुकतीं,
मेरे भावों की अनुगामिन
वे संग-संग उठतीं-गिरतीं।
बहलाते मन ये पीत फूल।
मेरे दरवाजे का बबूल।।
हर शाम बैठ इसके नीचे,
सोचा करता आँखें मींचे,
मैं गायक यह मेरा श्रोता
इसने मेरे सरगम सींचे।
हम जग-सरिता के पृथक कूल।
मेरे दरवाजे का बबूल।।
पथ के दावेदार
दूर हो गए जो भी पथ से,
पथ के दावेदार हो गए।
चौराहे सब रीते-रीते
निर्जनता का मौन न रीते,
पीर सुहागिन हुई तमिस्रा
क्षण-क्षण हार-हारकर जीते।
छूट गए जो अँधियारे में,
मन के पहरेदार हो गए।
छायाचित्र : अभिशक्ति गुप्ता |
थक बैठे मधुमास उमर के,
कैसी आँख-मिचौनी खेली
मूक हुए क्रन्दन दिन भर के।
ऐसी भाषा पढ़ी प्राण ने,
शब्दकोश बेकार हो गए।
पूजा का सामान कहाँ है!
बस काँटों का हार यहाँ है,
मंदिर तक आ गया मगर अब
सौरभ का शृंगार कहाँ है?
साँसों का नैवेद्य न त्यागो,
आँसू वंदनवार हो गए।
- द्वीपान्तर, ला. ब. शास्त्री मार्ग, फतेहपुर-212601, उ.प्र./फो. 05180-222828
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