अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 07, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2018
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डॉ. उमेश महादोषी
हिन्दी लघुकथा का मार्गदर्शक दस्तावेज
कथा लेखन प्रमुखतः मनुष्य और उसके समग्र परिवेश पर केन्द्रित होता है। लेकिन लघुकथा से इतर विधाओं में मनुष्य और उसका परिवेश अपने विविध अन्तर्सम्बन्धों के साथ सामने आता है जबकि लघुकथा में मनुष्य के साथ उसका परिवेश उसे प्रभावित करने वाले कारक के रूप में सामने आता है। इसलिए लघुकथा सृजन मनुष्य और उसके समकालीन (अद्यतन) परिवेश के सूक्ष्म अध्ययन की अपेक्षा करता है।
समकालीन लघुकथा के अब तक के सृजन में मनुष्य के परिवेश का सूक्ष्म अध्ययन तो स्पष्टतः दिखाई
देता है, लेकिन मनुष्य का अध्ययन अपेक्षित सूक्ष्मता और नियोजित दृष्टि के साथ दिखाई नहीं देता। जितना दिखता है, उसमें बहुत कुछ सांयोगिक है। लघुकथा में सृजनात्मक कमजोरियों और कहीं-कहीं गम्भीरता के अभाव की जो बातें कही जाती हैं, उनका कारण निसन्देह मनुष्य (मुख्यतः परिवेश से प्रभावित होने एवं प्रतिक्रिया देने के सन्दर्भ में) को अपेक्षित रूप में समझने (अध्ययन) की कमी है। दूसरे रूप में हम कह सकते हैं कि मनुष्य के मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण से एक लघुकथाकार को जिस तरह जुड़ना चाहिए, वह लघुकथा के कई अच्छे उदाहरण उपलब्ध होने के बावजूद उससे काफी दूर है।
देता है, लेकिन मनुष्य का अध्ययन अपेक्षित सूक्ष्मता और नियोजित दृष्टि के साथ दिखाई नहीं देता। जितना दिखता है, उसमें बहुत कुछ सांयोगिक है। लघुकथा में सृजनात्मक कमजोरियों और कहीं-कहीं गम्भीरता के अभाव की जो बातें कही जाती हैं, उनका कारण निसन्देह मनुष्य (मुख्यतः परिवेश से प्रभावित होने एवं प्रतिक्रिया देने के सन्दर्भ में) को अपेक्षित रूप में समझने (अध्ययन) की कमी है। दूसरे रूप में हम कह सकते हैं कि मनुष्य के मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण से एक लघुकथाकार को जिस तरह जुड़ना चाहिए, वह लघुकथा के कई अच्छे उदाहरण उपलब्ध होने के बावजूद उससे काफी दूर है।
डॉ. बलराम अग्रवाल ने लघुकथा में गम्भीर सृजन के साथ लघुकथा के समग्र रूप-स्वरूप को समझने का प्रयास आरम्भ से ही किया है। इसी का परिणाम है कि लघुकथा के अनेक पक्षों पर उन्होंने गम्भीर आलोचनात्मक आलेख लिखे और शोध के लिए भी उन्होंने ऐसे विषय का चुनाव किया, जो लघुकथाकारों को लघुकथा सृजन से पूर्व लघुकथा की आधारीय भावभूमि को सूक्ष्मता से समझने एवं ग्रहण करने के लिए प्रेरित करने में सक्षम है। उनका यही शोधकार्य महत्वपूर्ण ग्रन्थ ‘हिन्दी लघुकथा का मनोविज्ञान’ के रूप में हमारे सामने है। मनुष्य के मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण को समझने के साथ समकालीन लघुकथा को उसके आधार पर विभिन्न कोणों से परखने का काम इस विश्लेषण में किया गया है, जो निश्चित रूप से लघुकथा सृजन की आवश्यकता के सन्दर्भ में मनुष्य को सूक्ष्मता से समझने का प्रेरक प्रयास है।
इस ग्रन्थ में सम्पूर्ण विश्लेषण को प्रमुखतः चार भागों (अध्यायों) में बाँटा गया है। पहले भाग ‘लघुकथा: परम्परा और विकास’ में लघुकथा के उपलब्ध इतिहास के सन्दर्भ में ‘समकालीन लघुकथा’ की मौलिकता और सदृश रचनाओं से उसकी भिन्नता को विस्तृत विश्लेषण के साथ स्पष्ट किया गया है। इससे समकालीन लघुकथा के उद्भव का मनुष्य के वर्तमान (अद्यतन) परिवेश से सम्बन्ध स्पष्ट होता है और समकालीन लघुकथा स्पष्टतः आधुनिक काल की रचना सिद्ध होती है।
दूसरे अध्याय ‘समकालीन लघुकथा: विभिन्न आयाम’ में ‘समकालीनता’ के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए उसके सन्दर्भ में समकालीन लघुकथा का परीक्षण किया गया है। साथ ही प्रमुख समकालीन लघुकथाकारों का संक्षिप्त परिचय दिया गया है, जिन्होंने लघुकथा को गहराई से समझते हुए ‘समकालीन लघुकथा’ के रूप में प्रतिष्ठित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
‘संवेदना, सृजनशीलता और मनोविज्ञान’ नामक तीसरे भाग में सृजन की आधारभूमि के रूप में संवेदना को विस्तार से समझने का प्रयास किया गया है। संवेदना और सृजनशीलता के सम्बन्ध के दृष्टिगत मनुष्य के मनोविज्ञान और मनोविश्लेषण के सन्दर्भों पर प्रकाश डालते हुए संवेदना को समझना बेहद रुचिकर बन पड़ा है। इस अध्याय में सृजन से जुड़ने वाले व्यक्ति के लिए व्यक्ति और समाज के मनोविज्ञान से परिचित होना आवश्यक माना गया है। अभिव्यक्ति के कलात्मक पक्ष के रूप में ‘बिम्ब’ और अभिव्यक्ति के रचनात्मक माध्यम ‘भाषा’ के वास्तविक आशय को भी स्पष्ट किया गया है।
ग्रन्थ के चौथे और सर्वाधिक महत्वपूर्ण भाग ‘मनोविश्लेषण: सिद्धान्त और विवेचन’ में मनुष्य के मनोविश्लेषण के प्रमुख सिद्धान्तों पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। इनमें फ्रायड, एलफ्रेड एडलर, कार्ल गुस्ताव युंग, ओटो रांक, सैंडर फेरेंजी, विल्हेम राइक, करेन हार्नी, एरिक फ्राम, हेरी स्टैक सलीवन के सिद्धान्त शामिल हैं। फ्रायड के सिद्धान्त सर्वाधिक महत्वपूर्ण माने जाने के बावजूद अन्य मनोविज्ञानियों के सिद्धान्त भी मनुष्य को समझने में महत्वपूर्ण सिद्ध होते हैं। यद्यपि अन्य विद्वानों की दृष्टि में एक तथ्य यह भी हो सकता है कि भारतीय साहित्य, जो हर दृष्टि से समृद्ध है, में भी मनुष्य को मनोविश्लेषण की दृष्टि से समझने के लिए सूत्र खोजे जा सकते हैं। इस सन्दर्भ में, इतना समझना पर्याप्त होना चाहिए कि एक तो प्रत्येक शोध का एक दायरा होता है और दूसरे, समकालीन मनुष्य को समकालीन मनोविश्लेषण के सिद्धान्तों के परिप्रेक्ष्य में कहीं अधिक अच्छे से समझा जा सकता है। एक और बात, लघुकथा-सृजन में मनुष्य और उसके परिवेश के सूक्ष्म अध्ययन की दृष्टि से इस तरह का शोध-विश्लेषण किसी भी अबलम्ब के सहारे किया जाये, उसका निष्कर्ष उसी बिन्दु पर जाकर ठहरेगा, जो डॉ. बलराम अग्रवाल जी के अपने इन शब्दों से निर्धारित होता है- ‘‘...और व्यक्ति की सामाजिक और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के चित्रण का काम ही तो समकालीन लघुकथाकार कर रहे हैं। इस कार्य को उत्कृष्टता, परिपूर्णता, कुशलता के साथ सम्पन्न करने के लिए आवश्यक है कि वे समकालीन मनोविश्लेषण की धारा को, समकालीन मनोविश्लेषकों द्वारा गहन अध्ययन के बाद प्रस्तुत व्यक्ति चरित्र सम्बन्धी अनेक रहस्यों को, उनकी परतों को जानें, तब आगे बढें। आगे बढ़ चुके हैं तो इनके द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्तों के आलोक में उन्हें जाँचें, परखें। उनका व अपना आकलन करें।...’’
प्रत्येक अध्याय के आरम्भ में एक श्रेष्ठ लघुकथा और ग्रन्थ के अन्त में नई पीढ़ी के कुछ प्रमुख लघुकथाकारों की श्रेष्ठ लघुकथाएँ पाठकों के विश्लेषणार्थ दी गई हैं। इसका अपना प्रतीकात्मक महत्व है। निसन्देह यह ग्रन्थ समकालीन लघुकथाकारों को समकालीन लघुकथा की सृजन-प्रकिया को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा।
हिन्दी लघुकथा का मनोविज्ञान : शोधालोचना : डॉ. बलराम अग्रवाल। प्रकाशक : राही प्रकाशन, एल-45, गली सं.-5, करतार नगर, दिल्ली। मूल्य : रु. 595/-। सं. 2017।- 121, इन्द्रापुरम, निकट बीडीए कॉलोनी, बदायूँ रोड, बरेली-247001, उ.प्र./मो. 09458929004
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