अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 07, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2018
।।कथा प्रवाह।।
बी. एल. आच्छा
संगमरमरी आतिथ्य
बहुत दिनों से उनका आग्रह था। नये घर को देख लूँ। सीमेण्ट-कंक्रीट की सड़क को पारकर उनके बँगले पहुँचा। घंटी बजने के बावजूद बड़ी देर से दरवाजा खुला। संयोग से नौकर ने नहीं खोला। वे बोले- ‘‘आइए, आज आए तो सही।’’
‘‘मकान तो बहुत शानदार बनाया है।’’
‘‘हाँ, चालीस-साठ का है। अब तो जमीनें ही आसमान पर हैं।’’
‘‘पर, आपने तो आसमान में ही तीसरी मंजिल तान दी है।’’
‘‘अरे, अपन बनाते हैं, तो फिर अच्छा ही। यह देखिए, हॉल तो पूरे ग्रेनाइट का है।’’
‘‘बहुत सुन्दर।’’
‘‘लाइटिंग भी सब मॉडर्न है, अधिकतर इण्डिया से बाहर का।’’
‘‘खूबसूरत।’’
‘‘इस झीने को आर्किटेक्ट ने कलात्मकता दे दी है।’’
‘‘देखते ही बनता है।’’
फिर वे एक-एक कमरा, लेट-बाथ की आधुनिकता को नुमाइश की तरह पेश करते रहे। मैंने कहा- ‘‘मार्बल तो उम्दा क्वालिटी का है।’’
वे बोले- ‘‘माल मंे तो कोई कसर छोड़ी ही नहीं है।’’
बड़ी देर बाद ड्राइंग रूम में बैठे हुए उन्होंने सोफे से एक मीटर दूर रखी सेन्ट्रल टेबल की ओर इशारा करते हुए कहा- ‘‘ये लीजिए न!’’
दूर ट्रे में सजे सूखे मेवे दूरी की वजह से मुँह में गीले नहीं हो पाये। मुझसे इतनी दूर का जवानी आतिथ्य निभाया नहीं गया। बोल दिया, ‘‘अभी लंच लेकर ही आया हूँ।’’
‘‘अच्छा, चाय तो चलेगी?’’ अब मैं क्या बोलता? चाय की प्रतीक्षा के बीच वे बोले- ‘‘कैसा लगा हमारा मकान?’’
मुझसे रहा न गया। बोला- ‘‘इमारतों के मार्बल तो ‘ताजमहल’ सरीखे लगते हैं, प्रेम दिख जाये तो सुहाने हो जाते हैं घर।’’
- 36, क्लीमेन्स रोड, सखना स्टोर्स के पीछे, पुरुषवाकम् चेन्नई-600007, तमिलनाडु/मो. 09425083335
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