अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 07, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2018
।।कथा प्रवाह।।
संतोष सुपेकर
एक सार्थक परिचर्चा की आत्महत्या
‘‘सुनो’’ टेलीविजन पर संयुक्त परिवार पर आधारित एक सीरियल देखता पति, यकायक पत्नी से बोला, ‘‘हम देखते हैं कि आजकल ज्यादातर टी.वी. सीरियलों में ज्वाइंट फैमिली दिखाई जाती है। बुजुर्ग माँ-बाप, चाचा-चाची, ताऊ-ताई, भाई-भाभी आदि सब साथ रहते हैं, एक साथ सारे त्यौहार मनाते हैं, हँसी-ठिठोली करते हैं। ज्यादातर घरेलू फिल्मों और यहाँ तक कि विज्ञापनों में भी ज्वाइंट फैमिली दिखाई जाती है। तब हर बात में रुपहले पर्दे का अनुसरण करने वाले संयुक्त परिवार टूट क्यों रहे हैं?’’ बोलते-बोलते पति के स्वर में दर्द उभर आया, ‘‘हम खुद भी कहाँ माँ-बाप के साथ रहते हैं? वे बेचारे तो गाँव में.....’’
‘‘रहने दो जी’’ पति की बात काटती, टी.वी. का वाल्यूम बढ़ाती पत्नी झुँझलाकर बोली, ‘‘हम ज्वाइंट फैमिली में रहेंगे तो क्या मैं इस तरह गाउन पहने आराम से बैठकर टी.वी. सीरियल देख सकूँगी?’’
‘‘हा हा हा’’ दब्बू पति ने बात को विराम देते हुए ठहाका लगाया अवश्य, लेकिन हँसी का वह भाव उसकी आँखों से नहीं झलका। अलग रहने का अपराध बोध अनायास ही उन्मुक्त हँसी में बाधक बन गया और इधर, एक सार्थक परिचर्चा आत्महत्या को अग्रसर थी।
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