अविराम ब्लॉग संकलन, वर्ष : 7, अंक : 11-12, जुलाई-अगस्त 2018
।।कविता अनवरत।।
श्रीराम दवे
कविताएँ
उनकी खुशी
वस्त्र बदल लिए हैं
बहेलियों ने
उनके चेहरों पर
मुस्कानें चिपकी हैं
हाथों में प्रलोभन है
जाल हैं
काँटे हैं
बंदूकों में भरी गोलियाँ हैं
और
फितरतें हैं तरह-तरह की
तुम बचना...
देखना कहीं कि
तुम्हारे जवान होते बच्चे
उनकी निगाह में न आ पाएँ
उन्हें अच्छे नहीं लगते
गुटरगूँ करते/किलकारियाँ करते
चौकड़िया भरते और
अपना काम करते बच्चे
उन्हें बचाना...
जब आँखों का पानी मर चुका हो
तब पैदा होती है उनकी खुशी
उन्हें तुम्हारी खुशी से
कोई वास्ता नहीं है
शिकार करना-
ध्वस्त करना और
इतिहास में काले हरफ लिखना
उनकी खुशी है
तुम याद रखना...
उनकी जरूरतें
वह दिन भर
छतरियाँ सुधारता है
लेकिन उसने नहीं खरीदी
कोई छतरी कभी अपने लिए
धूप और बरसात
उसकी सगी भी तो नहीं है
फुटपाथ पर बैठा
जूता सुधारने वाला
नहीं खरीदता है
कोई नया जूता अपने लिए
उसके पाँव भी चाहते तो होंगे
कभी वे भी नए जूतों में कुनमुनाएँ
फूल बेचने वाली
कभी नहीं बाँधती
फूलों की नई वेणी अपने बालों में
भले ही खफा रहता हो उसका मरद
जूड़े में बँधी बासी वेणी के फूलों से
अपने-अपने कामों में
मसरूफ ये लोग
जानते हैं कि उनकी जरूरतें ये नहीं है
उनकी जरूरतें क्या हैं
नहीं जानते हैं
छतरियाँ सुधरवाने वाले
जूते ठीक करवाने वाले
जूते ठीक करवाने वाले और
फूलों की वेणियाँ खरीदने वाले।
रामदुलारियाँ
एक और रामदुलारी
चिट्ठी छोड़कर चली गयी
अपने मैके
कभी वापस नहीं आने के लिए
क्यों चली जाती हैं
रामदुलारियाँ अपने मैके
बसी-बसायी/जमी-जमायी
गृहस्थियाँ छोड़कर
शायद नहीं चाहतीं वे
रोज-रोज उनके कानों में कोई
ज़हर बुझे तीर छोड़े
जो नहीं जा पाती हैं/अपने मैके
वे कुतुबमीनार से
घासलेट की वैतरणी से
सल्फास की गोलियाँ और
छत के पंखों के रास्ते
अनाम/अनदेखे मैके की ओर
चल देती हैं
ताकि/वे भी ला सकें अगले जन्म में
अपनी देह के साथ
वह सब कुछ भी
जिससे उनके मर्दों को प्यार है
वास्ता है
और रामदुलारियों से चिढ़...
आत्मीय यदि तुम हो
हिमालय यदि तुम हो
मैं वाष्प से भरा बादल हूँ
तुमसे टकराना - पानी बन जाना
मेरी प्रवृत्ति है
वसुधा यदि तुम हो
मैं टपकी हुई बूँद हूँ
तुमसे टकराकर - तुममें मिल जाना
मेरी नियति है
आत्मीय यदि तुम हो
मैं समग्र समर्पित हूँ
तुम्हारे समक्ष समर्पित होना
रेखाचित्र : (स्व.) बी.मोहन नेगी |
मेरी आत्मीयता है।
उस ओर
उस ओर मत जाना
बंधु मेरे
वहाँ आग है
हवाएँ कैद हैं
और पानी सूख गया है
ज़मीन की आँख का
वहाँ बैठी है
निर्जन बसन्त में
एक कोकिल अभी भी
जिसकी कूहक
उसके हलक में फँसी हुई है
और
इतिहास पुरुष
उसके सामने खड़ा है-
याचक की मुद्रा में
मत जाना बन्धु मेरे,
उस ओर- तुम!
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