अविराम का ब्लॉग : वर्ष : 2, अंक : 4, दिसम्बर 2012
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डा. ऊषा उप्पल, डा. किशन तिवारी, डॉ. ऊषा यादव ‘ऊषा’, नित्यानन्द गायेन, बरुण कुमार चन्द्रा, डॉ. दशरथ मसानिया, देवी नागरानी एवं ब्रह्मानन्द झा की काव्य रचनाएं।
डा. ऊषा उप्पल
आक्रान्ता
तुम सोचते हो- तुमने मुझे कुचल दिया
मेरे नारीत्व, मेरी अस्मिता को मिटा डाला
तुम कितने ग़लत हो!
तुम्हारे अपराध ने मुझे भगवान के समकक्ष बिठा दिया
मां बनाकर
तुम क्या बने? एक आततायी, पशु, कापुरुष
और संसार की नज़र में अपराधी
तुम कुछ नहीं कर सके
मां का दर्जा तुम्हारी नियति नहीं है
पर फिर भी तुम विजयघोष करते हो
और सोचते हो तुम अजेय हो
तुम कितने ग़लत हो!
मैं कभी सिर झुकाकर नहीं चलूंगी
क्योंकि अपराध मैंने नहीं तुमने किया है
तुम तो केवल जिस्म हो
आत्मबल तुममें नहीं, मुझमें है
अगर तुम सोचते हो तुम मेरे नियन्ता हो
जिस्म से रूह को कुचल सकते हो
तुम कितने ग़लत हो!
मैंने पशु से लड़ना सीख लिया है
अब न मुझे तोड़ सकोगे, न झुका सकोगे
क्योंकि मैं बहुत ऊंची उठ गई हूं
और तुम बहुत नीचे रह गये हो
फिर भी सोचते हो मुझे झुकाकर छू लोगे
तुम कितने ग़लत हो!
मैं सदा आगे बढ़ती रहूंगी
और तुम देखते रहोगे पराजित से
क्योंकि तुम आक्रान्ता हो
तुममें आत्मबल नहीं
फिर भी सोचते हो तुम शक्तिवान हो
तुममें पौरुष है, हिम्मत है
तुम कितने ग़लत हो!
ज़रा पलटकर देखो बीते हुए वक़्त को
तुम पौरुषविहीन हो, खाखले हो, अस्तित्वविहीन हो
तुम्हारा अभिमान मिट चुका है
तुम्हारा अहं लुट चुका है
पर मुझे तुम नहीं मिटा सके
मैं आज भी सर ऊंचा किये खड़ी हूं
मैं शक्ति हूं, मां हूं, सृजनकर्ता हूं
जो तुम जानते हो पर मानते नहीं
तुम कितने ग़लत हो!
डा. किशन तिवारी
{डा. किशन तिवारी ग़ज़ल के जाने माने हस्ताक्षर हैं। उनका ग़ज़ल संग्रह ‘सोचिये तो सही’ हाल ही में हमें पढ़ने को मिला। उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं दो ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
एक
हर तरफ घिर आयें जब काली घटाएँ, क्या करें
फँस गई अपनी भँवर में आस्थाएँ, क्या करें
था बहुत चालाक मन पर, जाल की मछली बना
फड़फड़ाता ढूंढ़ता संभावनाएँ, क्या करें
देखकर चट्टान, मुड़ जाता है, टकराता नहीं
वो बदलता रोज ही, अपनी दिशाएँ, क्या करें
सत्य के संदर्भ, उल्लेखित हुए जब भी यहाँ
प्रश्न प्रति पल प्रश्न-उत्तर यातनाएँ, क्या करें
शब्द में नायक बना, हर जुल्म से टकरा गया
किन्तु व्यवहारों में उल्टी धारणाएँ, क्या करें
आस्था अस्तित्व का हर पल नया संघर्ष है
व्यर्थ हो जाएँ जहाँ पर प्रार्थनाएँ, क्या करें
दो
आप हैं पर्वत, हमें तिनका भले ही मानिये
किन्तु हर अणु में छिपे, विस्फोट को पहचानिये
तुम महासागर कई नदियाँ, तुम्हारी गोद में
बूँद हमको मानकर, मत बैर हमसे ठानिये
झूठ के पोथे पे चढ़, साहित्य के पण्डे बने
ढाई आखर पर न अब, तलवार अपनी तानिये
धुन्ध कोहरे को हटा, सरगम छिड़ेगी धूप की
हैं मुखौटे, आवरण, अन्तिम चरण में जानिये
काँपती हैं क्यूँ भला पुरवाई से पछुआ नकल
झूठ सच के फासले को अब सही पहचानिये
डॉ. ऊषा यादव ‘ऊषा’
ग़ज़ल
लाख वहमों-गुमाँ हम भी पाले रहे
इस बहाने से खुद को सम्हाले रहे
साथ जब तक ये काबे-सिवाले रहे
‘रूह’ में देखो उजले उजाले रहे
जब तलक जीस्त तेरे हवाले रहे
हम सभी ज़हर के पीते प्याले रहे
हाथों से खुद जो गेहूं उगाते रहे
दूर उनसे ही देखो निवाले रहे
आस्माँ तक न पहुँचा हमारा नसीब
एक पत्थर तबीयत से उछाले रहे
अच्छी-खासी गुज़र जब गई जिन्दगी
तब लगा बेसबब बैठे ठाले रहे
ग़म भरा इक फ़साना सुनाते रहे
इस तरह अपने क़ातिल को टाले रहे
मेरी ग़ज़लों में है देखो इतना जमाल
इसलिए रश्क़ भी करने वाले रहे
नित्यानन्द गायेन
गाँव से अभी-अभी लौटा हूँ शहर में
गाँव से
अभी-अभी
लौटा हूँ शहर में
याद आ रही हैं
गाँव की शामें
सियार की हुक्का हू
टर्र-टर्र करते मेंढक
सुलटी‘1 के नवजात पिल्ले
कुहासा में भीगी हुई सुबह
घाट की युवतियां
सब्जी का मोठ उठाया किसान
धान और पुआल
आँगन में मुर्गिओं की हलचल
डाब का पानी
खजूर का गुड़
अमरुद का पेड़
मासी की हाथ की गरम रोटियाँ
माछ-भात
पान चबाते दांत
और ...........
नन्ही पिटकुली’2 की
चुलबुली बातें
’1 हमारी कुतिया
’2 छोटे मामा की 5 वर्ष की बिटिया
बरुण कुमार चन्द्रा
....नये युग में जायें
डॉ. दशरथ मसानिया
डॉ. मसानिया बेटियों के प्रति भेदभाव के विरुद्ध और उनके महत्व को बखान करने वाले साहित्य के सृजन में समर्पण भाव से जुटे हैं। हाल ही में बेटी पर केन्द्रित उनका दूसरा काव्य संग्रह (जिसमें इसी विषय पर उनकी कई लघुकथाएँ भी संग्रहीत हैं) प्रकाशित हुआ है। उनके इसी संग्रह से लोक शैली में रचित दो रचनाएँ प्रस्तुत हैं।
बेटी है सरग की तार
हेली म्हारी बेटी आई है द्वार, मनावा खुशी सब नगरी।
मनावा खुशी सब नगरी, मनावा खुशी सब नगरी।।टेक।।
हेली म्हारी बेटी है शरीर को अंग, मत मारो ऊके पेट में पली।
पेट में पली हेली फूल की कली। हेली.....
हेली म्हारी बेटी है सरग की तार,
चढ़ि जावे बेटी चाँद की घाटी। हेली.....
हेली म्हारी मत करजो, बेटी को अपमान
बेटी म्हारी प्रेम की डली।
प्रेम की डली, हेली फूल की कली। हेली....
बोली-बोली माता द्वार, बेटी से म्हारी काया सुधरी
काया सुधरी हेली, काया सुधरी। हेली.....
हेली म्हारी सुनीता, कल्पना सी नार,
थामस आरती को विचार
उड़ि जावे हेली आज की घड़ी। हेली......
मारे मति मैया
मारे मति मैया, वचन भरवायले।
तेरे घर की लछमी, मैं बनके दिखाउँगी।।टेक।।
झाडू भी लगाउँगी, बर्तन मंजवाउँगी।
बिस्तर भी उठवाउँगी, मैं घर भी सजाउँगी।।1।।
बासी रोटी खायके, स्कूल चली जाउँगी।
रोटी भी बनवाउँगी, मैं भाजी भी बनवाउँगी।।2।।
तू जो कहेगी तो चांद चढ़ी जाउँगी।
दुर्गा का अवतार हूँ, मैं दुश्मन को हराउँगी।।3।।
सरस्वती बनके, मैं ज्ञान भी सिखलाउँगी।
अहिल्यादेवी बन के, राज भी चलाउँगी।।4।।
धरम की धुरी बन, जग को बचाउँगी।
भ्रष्टों को मारके, नीति बतलाउँगी।।5।।
देवी नागरानी
ग़ज़ल
अनबुझी प्यास रूह की है ग़ज़ल
खुश्क होठों की तिश्नगी है ग़ज़ल
उन दहकते से मंज़रो की क़सम
इक दहकती सी जो कही है ग़ज़ल
नर्म अहसास मुझको देती है
धूप में चांदनी लगी है ग़ज़ल
इक इबादत से कम नहीं हर्गिज़
बंदगी सी मुझे लगी है ग़ज़ल
बोलता है हर एक लफ़्ज़ उसका
गुफ़्तगू यूँ भी कर रही है ग़ज़ल
मेहराबाँ इस क़दर हुई मुझपर
मेरी पहचान बन गई है ग़ज़ल
उसमें हिंदोस्ताँ की खु़शबू है
अपनी धरती से जब जुड़ी है ग़ज़ल
उसका श्रंगार क्या करूँ ‘देवी’
सादगी में भी सज रही है ग़ज़ल
ब्रह्मानन्द झा
शहीद
कौन कहता है कि मैं शहीद हुआ हूँ
इस वतन के वास्ते हमीद हुआ हूँ
गाँधी, सुभाष, शेखर, ऊधम के देश में
चोला बसन्ती ओढ़कर मैं नींद हुआ हूँ
ममता स्नेह बिछुए राखी से पूछ लो
माँ के गले मिलकर मैं ईद हुआ हूँ
भर के लाल सिंदूर सीमा की माँग में
कारगिल द्रास के लिए मुफीद हुआ हूँ
।।कविता अनवरत।।
सामग्री : इस अंक में डा. ऊषा उप्पल, डा. किशन तिवारी, डॉ. ऊषा यादव ‘ऊषा’, नित्यानन्द गायेन, बरुण कुमार चन्द्रा, डॉ. दशरथ मसानिया, देवी नागरानी एवं ब्रह्मानन्द झा की काव्य रचनाएं।
डा. ऊषा उप्पल
आक्रान्ता
तुम सोचते हो- तुमने मुझे कुचल दिया
मेरे नारीत्व, मेरी अस्मिता को मिटा डाला
तुम कितने ग़लत हो!
तुम्हारे अपराध ने मुझे भगवान के समकक्ष बिठा दिया
मां बनाकर
तुम क्या बने? एक आततायी, पशु, कापुरुष
और संसार की नज़र में अपराधी
तुम कुछ नहीं कर सके
मां का दर्जा तुम्हारी नियति नहीं है
पर फिर भी तुम विजयघोष करते हो
और सोचते हो तुम अजेय हो
तुम कितने ग़लत हो!
रेखा चित्र : मनीषा सक्सेना |
मैं कभी सिर झुकाकर नहीं चलूंगी
क्योंकि अपराध मैंने नहीं तुमने किया है
तुम तो केवल जिस्म हो
आत्मबल तुममें नहीं, मुझमें है
अगर तुम सोचते हो तुम मेरे नियन्ता हो
जिस्म से रूह को कुचल सकते हो
तुम कितने ग़लत हो!
मैंने पशु से लड़ना सीख लिया है
अब न मुझे तोड़ सकोगे, न झुका सकोगे
क्योंकि मैं बहुत ऊंची उठ गई हूं
और तुम बहुत नीचे रह गये हो
फिर भी सोचते हो मुझे झुकाकर छू लोगे
तुम कितने ग़लत हो!
मैं सदा आगे बढ़ती रहूंगी
और तुम देखते रहोगे पराजित से
क्योंकि तुम आक्रान्ता हो
तुममें आत्मबल नहीं
फिर भी सोचते हो तुम शक्तिवान हो
तुममें पौरुष है, हिम्मत है
तुम कितने ग़लत हो!
ज़रा पलटकर देखो बीते हुए वक़्त को
तुम पौरुषविहीन हो, खाखले हो, अस्तित्वविहीन हो
तुम्हारा अभिमान मिट चुका है
तुम्हारा अहं लुट चुका है
पर मुझे तुम नहीं मिटा सके
मैं आज भी सर ऊंचा किये खड़ी हूं
मैं शक्ति हूं, मां हूं, सृजनकर्ता हूं
जो तुम जानते हो पर मानते नहीं
तुम कितने ग़लत हो!
- 159, सिविल लाइन्स, बरेली-134001 (उ.प्र.)
डा. किशन तिवारी
{डा. किशन तिवारी ग़ज़ल के जाने माने हस्ताक्षर हैं। उनका ग़ज़ल संग्रह ‘सोचिये तो सही’ हाल ही में हमें पढ़ने को मिला। उनके इसी संग्रह से प्रस्तुत हैं दो ग़ज़लें।}
दो ग़ज़लें
एक
हर तरफ घिर आयें जब काली घटाएँ, क्या करें
फँस गई अपनी भँवर में आस्थाएँ, क्या करें
था बहुत चालाक मन पर, जाल की मछली बना
फड़फड़ाता ढूंढ़ता संभावनाएँ, क्या करें
रेखांकन : के. रविन्द्र |
देखकर चट्टान, मुड़ जाता है, टकराता नहीं
वो बदलता रोज ही, अपनी दिशाएँ, क्या करें
सत्य के संदर्भ, उल्लेखित हुए जब भी यहाँ
प्रश्न प्रति पल प्रश्न-उत्तर यातनाएँ, क्या करें
शब्द में नायक बना, हर जुल्म से टकरा गया
किन्तु व्यवहारों में उल्टी धारणाएँ, क्या करें
आस्था अस्तित्व का हर पल नया संघर्ष है
व्यर्थ हो जाएँ जहाँ पर प्रार्थनाएँ, क्या करें
दो
आप हैं पर्वत, हमें तिनका भले ही मानिये
किन्तु हर अणु में छिपे, विस्फोट को पहचानिये
तुम महासागर कई नदियाँ, तुम्हारी गोद में
बूँद हमको मानकर, मत बैर हमसे ठानिये
झूठ के पोथे पे चढ़, साहित्य के पण्डे बने
ढाई आखर पर न अब, तलवार अपनी तानिये
धुन्ध कोहरे को हटा, सरगम छिड़ेगी धूप की
हैं मुखौटे, आवरण, अन्तिम चरण में जानिये
काँपती हैं क्यूँ भला पुरवाई से पछुआ नकल
झूठ सच के फासले को अब सही पहचानिये
- 34, सेक्टर-9ए, साकेत नगर, भोपाल-462024 (म.प्र.)
डॉ. ऊषा यादव ‘ऊषा’
ग़ज़ल
लाख वहमों-गुमाँ हम भी पाले रहे
इस बहाने से खुद को सम्हाले रहे
साथ जब तक ये काबे-सिवाले रहे
‘रूह’ में देखो उजले उजाले रहे
जब तलक जीस्त तेरे हवाले रहे
हम सभी ज़हर के पीते प्याले रहे
हाथों से खुद जो गेहूं उगाते रहे
दूर उनसे ही देखो निवाले रहे
रेखांकन : बी. मोहन नेगी |
आस्माँ तक न पहुँचा हमारा नसीब
एक पत्थर तबीयत से उछाले रहे
अच्छी-खासी गुज़र जब गई जिन्दगी
तब लगा बेसबब बैठे ठाले रहे
ग़म भरा इक फ़साना सुनाते रहे
इस तरह अपने क़ातिल को टाले रहे
मेरी ग़ज़लों में है देखो इतना जमाल
इसलिए रश्क़ भी करने वाले रहे
- 23/47/57-बी, किदवई नगर, अल्लापुर, इलाहाबाद (उ.प्र.)
नित्यानन्द गायेन
गाँव से अभी-अभी लौटा हूँ शहर में
गाँव से
अभी-अभी
लौटा हूँ शहर में
याद आ रही हैं
गाँव की शामें
सियार की हुक्का हू
टर्र-टर्र करते मेंढक
सुलटी‘1 के नवजात पिल्ले
छाया चित्र : उमेश महादोषी |
कुहासा में भीगी हुई सुबह
घाट की युवतियां
सब्जी का मोठ उठाया किसान
धान और पुआल
आँगन में मुर्गिओं की हलचल
डाब का पानी
खजूर का गुड़
अमरुद का पेड़
मासी की हाथ की गरम रोटियाँ
माछ-भात
पान चबाते दांत
और ...........
नन्ही पिटकुली’2 की
चुलबुली बातें
’1 हमारी कुतिया
’2 छोटे मामा की 5 वर्ष की बिटिया
- 315, डोयेन्स कॉलोनी, शेरिलिंगम पल्ली, हैदराबाद-500019, आं.प्र.
बरुण कुमार चन्द्रा
लेकर मन में दृढ़ विश्वास
करें हम कुछ नये प्रयास
जीवन में नयी जोत जगायें।
आओ! हम नये युग में जायें।
छाया चित्र : डॉ बलराम अग्रवाल |
ऊँच-नीच का भेद मिटाकर
छोटे-बड़ों को गले लगाकर।
देश प्रेम की नई राह दिखायें
आओ! हम नये युग में जायें।।
राह कठिन है, कहना सरल है
पर दृढ़ निश्चय ही इसका हल है
शनैः-शनैः ऐसा विश्वास जगायें
आओ! हम नये युग में जायें।।
- विद्या विहार कॉलोनी, भैरव मन्दिर रोड, कनखल, हरिद्वार (उ.खण्ड)
डॉ. दशरथ मसानिया
डॉ. मसानिया बेटियों के प्रति भेदभाव के विरुद्ध और उनके महत्व को बखान करने वाले साहित्य के सृजन में समर्पण भाव से जुटे हैं। हाल ही में बेटी पर केन्द्रित उनका दूसरा काव्य संग्रह (जिसमें इसी विषय पर उनकी कई लघुकथाएँ भी संग्रहीत हैं) प्रकाशित हुआ है। उनके इसी संग्रह से लोक शैली में रचित दो रचनाएँ प्रस्तुत हैं।
बेटी है सरग की तार
हेली म्हारी बेटी आई है द्वार, मनावा खुशी सब नगरी।
मनावा खुशी सब नगरी, मनावा खुशी सब नगरी।।टेक।।
हेली म्हारी बेटी है शरीर को अंग, मत मारो ऊके पेट में पली।
पेट में पली हेली फूल की कली। हेली.....
हेली म्हारी बेटी है सरग की तार,
रेखा चित्र : नरेश उदास |
हेली म्हारी मत करजो, बेटी को अपमान
बेटी म्हारी प्रेम की डली।
प्रेम की डली, हेली फूल की कली। हेली....
बोली-बोली माता द्वार, बेटी से म्हारी काया सुधरी
काया सुधरी हेली, काया सुधरी। हेली.....
हेली म्हारी सुनीता, कल्पना सी नार,
थामस आरती को विचार
उड़ि जावे हेली आज की घड़ी। हेली......
मारे मति मैया
मारे मति मैया, वचन भरवायले।
तेरे घर की लछमी, मैं बनके दिखाउँगी।।टेक।।
झाडू भी लगाउँगी, बर्तन मंजवाउँगी।
रेखा चित्र : नरेश उदास |
बासी रोटी खायके, स्कूल चली जाउँगी।
रोटी भी बनवाउँगी, मैं भाजी भी बनवाउँगी।।2।।
तू जो कहेगी तो चांद चढ़ी जाउँगी।
दुर्गा का अवतार हूँ, मैं दुश्मन को हराउँगी।।3।।
सरस्वती बनके, मैं ज्ञान भी सिखलाउँगी।
अहिल्यादेवी बन के, राज भी चलाउँगी।।4।।
धरम की धुरी बन, जग को बचाउँगी।
भ्रष्टों को मारके, नीति बतलाउँगी।।5।।
- 123, गवलीपुरा, आगर, जिला शाजापुर-465441 (म.प्र.)
देवी नागरानी
ग़ज़ल
अनबुझी प्यास रूह की है ग़ज़ल
खुश्क होठों की तिश्नगी है ग़ज़ल
उन दहकते से मंज़रो की क़सम
इक दहकती सी जो कही है ग़ज़ल
नर्म अहसास मुझको देती है
धूप में चांदनी लगी है ग़ज़ल
रेखांकन : सिद्धेश्वर |
इक इबादत से कम नहीं हर्गिज़
बंदगी सी मुझे लगी है ग़ज़ल
बोलता है हर एक लफ़्ज़ उसका
गुफ़्तगू यूँ भी कर रही है ग़ज़ल
मेहराबाँ इस क़दर हुई मुझपर
मेरी पहचान बन गई है ग़ज़ल
उसमें हिंदोस्ताँ की खु़शबू है
अपनी धरती से जब जुड़ी है ग़ज़ल
उसका श्रंगार क्या करूँ ‘देवी’
सादगी में भी सज रही है ग़ज़ल
- 9-डी कार्नर, व्यू सोसायटी, 15/33 रोड बान्द्रा, मुम्बई-400050
ब्रह्मानन्द झा
शहीद
कौन कहता है कि मैं शहीद हुआ हूँ
इस वतन के वास्ते हमीद हुआ हूँ
रेखांकन : डॉ सुरेन्द्र वर्मा |
गाँधी, सुभाष, शेखर, ऊधम के देश में
चोला बसन्ती ओढ़कर मैं नींद हुआ हूँ
ममता स्नेह बिछुए राखी से पूछ लो
माँ के गले मिलकर मैं ईद हुआ हूँ
भर के लाल सिंदूर सीमा की माँग में
कारगिल द्रास के लिए मुफीद हुआ हूँ
- 1209-बी, शम्भूनग, शिकोहाबाद, जिला: फिरोजाबाद-205135 (उ.प्र.)
अच्छी रचनाओँ की शुरुआत मनीषा सक्सेना के चित्र के साथ की है, अच्छा सामंजस्य है।
जवाब देंहटाएंhttp://yuvaam.blogspot.com/p/1908-1935.html?m=1
अच्छी रचनाओँ की शुरुआत मनीषा सक्सेना के चित्र के साथ की है, अच्छा सामंजस्य है।
जवाब देंहटाएंhttp://yuvaam.blogspot.com/p/1908-1935.html?m=1